ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 19/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
धृ॒तव्र॑तो धन॒दाः सोम॑वृद्धः॒ स हि वा॒मस्य॒ वसु॑नः पुरु॒क्षुः। सं ज॑ग्मिरे प॒थ्या॒३॒॑ रायो॑ अस्मिन्त्समु॒द्रे न सिन्ध॑वो॒ याद॑मानाः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठधृ॒तऽव्र॑तः । ध॒न॒ऽदाः । सोम॑ऽवृद्धः । सः । हि । वा॒मस्य॑ । वसु॑नः । पु॒रु॒ऽक्षुः । सम् । जि॒ग्मि॒रे॒ । प॒थ्याः॑ । रायः॑ । अ॒स्मि॒न् । स॒मु॒द्रे । न । सिन्ध॑वः । याद॑मानाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
धृतव्रतो धनदाः सोमवृद्धः स हि वामस्य वसुनः पुरुक्षुः। सं जग्मिरे पथ्या३ रायो अस्मिन्त्समुद्रे न सिन्धवो यादमानाः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठधृतऽव्रतः। धनऽदाः। सोमऽवृद्धः। सः। हि। वामस्य। वसुनः। पुरुऽक्षुः। सम्। जग्मिरे। पथ्याः। रायः। अस्मिन्। समुद्रे। न। सिन्धवः। यादमानाः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 19; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कथं भवितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यमस्मिन् व्यवहारे यादमानाः सिन्धवः समुद्रे न पथ्या रायः सं जग्मिरे स हि धृतव्रतः सोमवृद्धो धनदाः पुरुक्षुर्वामस्य वसुनः प्रभुर्भवति ॥५॥
पदार्थः
(धृतव्रतः) धृतानि व्रतानि कर्म्माणि येन (धनदाः) यो धनं ददाति (सोमवृद्धः) सोमेनैश्वर्येणौषध्या वा प्रवृद्धः (सः) (हि) यतः (वामस्य) प्रशस्यस्य (वसुनः) धनस्य (पुरुक्षुः) पुरूणि बहून्यन्नानि यस्य सः (सम्) (जग्मिरे) सङ्गच्छन्ते (पथ्याः) पथि साधवः (रायः) श्रियः (अस्मिन्) (समुद्रे) सागरे (न) इव (सिन्धवः) नद्यः (यादमानः) अभिगच्छन्त्यः ॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा नद्यो वेगेन समुद्रं प्राप्य स्थिरा भवन्ति तथैव धार्मिकमुद्योगिनं श्रियं सेवन्ते ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसा होना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! जिसको (अस्मिन्) इस व्यवहार में (यादमानाः) चारों ओर से जाती हुई (सिन्धवः) नदियाँ (समुद्रे) समुद्र में (न) जैसे वैसे (पथ्याः) मार्ग में श्रेष्ठ (रायः) धन (सम्, जग्मिरे) प्राप्त होते हैं (सः, हि) वही (धृतव्रतः) धारण किये कर्म जिसने वह (सोमवृद्धः) ऐश्वर्य वा ओषधि से बढ़ा हुआ (धनदाः) धनका देनेवाला (पुरुक्षुः) बहुत अन्न से युक्त (वामस्य) प्रशंसा करने योग्य (वसुनः) धन का स्वामी होता है ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे नदियाँ वेग से समुद्र को प्राप्त होकर स्थिर होती हैं, वैसे ही धार्मिक तथा उद्योगी पुरुष की लक्ष्मी सेवा करती है ॥५॥
विषय
राजा के उत्तम गुण।
भावार्थ
( सः ) वह ( हि ) निश्चय से (घृत-व्रत:) व्रत, उत्तम कर्म करने के दृढ़ निश्चयों, प्रतिज्ञाओं को धारण करने वाला, ( धन-दाः ) धन देने वाला, (सोम-वृद्ध :) ऐश्वर्य और अन्नादि से परिपुष्ट पुरुष (वामस्य वसुनः ) सुन्दर, उपभोग योग्य ऐश्वर्य का स्वामी और (पुरुक्षुः) बहुत से अन्नों का स्वामी हो । (समुद्रे सिन्धवः न) समुद्र में नदियों के समान (अस्मिन्) उसमें (पथ्याः रायः) सम्मार्गों से आने वाले ऐश्वर्य (यादमाना:) निरन्तर आते हुए ( सं जग्मिरे ) एकत्र हो जावें । इति सप्तमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, ३, १३ भुरिक्पंक्ति: । ९ पंक्तिः । २, ४,६,७ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, १०, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप् ॥ ८ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
धृतव्रतः-धनदाः
पदार्थ
[१] वे प्रभु (धृतव्रत:) = सूर्य आदि सब देवों के व्रतों का धारण करनेवाले हैं। सूर्य, चन्द्र, तारे व अन्य लोक-लोकान्तर प्रभु के नियमों में ही चलते हैं। वे प्रभु हम सब जीवों के लिये (धनदाः) = धनों को देनेवाले हैं। (सोमवृद्धः) = वे प्रभु सोमरक्षण के द्वारा हमारे अन्दर अधिक प्रादुर्भूत् होते हैं, सोमरक्षण के द्वारा ही हम प्रभु का दर्शन कर पाते हैं। (सः हि) = वे ही (वामस्य) = वननीय, चाहने योग्य (वसुनः) = निवास के लिए आवश्यक धन के स्वामी हैं और (पुरुक्षुः) = पालक व पूरक अन्नोंवाले हैं। वननीय वसुओं के द्वारा हमें इन अन्नों को प्राप्त कराते हैं। [२] (अस्मिन्) = इस प्रभु में (पथ्या:) = हमारे लिये हितकर (रायः) = ऐश्वर्य (सं जग्मिरे) = इस प्रकार संगत होते हैं, (न) = जैसे कि (यादमाना:) = [अतिगच्छन्त्यः] बहती हुई (सिन्धवः) = नदियाँ (समुद्रे) = समुद्र में संगत हो जाती हैं। प्रभु सब पथ्य ऐश्वर्यों के निधान हैं। प्रभु की प्राप्ति से ये सब ऐश्वर्य हमें प्राप्त हो जाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के द्वारा हम सूर्यादि के व्रतों का धारण करनेवाले प्रभु के अधिकाधिक समीप होते हैं। सब ऐश्वर्यों के अधिष्ठान ये प्रभु ही हैं। प्रभु की प्राप्ति में सब ऐश्वर्यों की प्राप्ति है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशा नद्या वेगाने समुद्राला मिळतात व स्थिर होतात तशी लक्ष्मी धार्मिक व उद्योगी पुरुषांची सेवा करते. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra is the lord ordainer and observer of unshakable discipline of law and order, giver of wealth, exalted in honour and excellence, and abundant treasure- hold of cherished riches of the world. Indeed all wealth, powers and honours of the world move, each in its own right course, and concentrate in him just as the rivers flow and all together join and concentrate in the sea.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men behave and act is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned persons ! that man becomes the lord of the admirable wealth in whom riches earned by righteous means are united (blended) like rivers that co-mingle with the ocean. Such a man is the upholder or noble deeds, giver of wealth, advanced in wealth or in knowledge of the Soma and other herbs and has abundant and good food.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is simile used in the mantra. As the rivers going to the ocean quickly become steady having reached the ocean, in the same manner, it is only to a righteous and industrious person riches beget.
Foot Notes
(पुरुक्षु:) पुरूणि बहुन्यन्नानि यस्य सः । क्षु इति अन्ननाम (NG 2,7) पुरुइति बहुनाम (NG 3,9)। = Who possesses abundant food material of various kinds. (यादमाना:) अभिगच्छन्त्यः । यादमानाः-अभिगच्छन्त्य इति सायणाचार्योऽपि। = Going, flowing.
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