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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 19/ मन्त्र 9
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    आ ते॒ शुष्मो॑ वृष॒भ ए॑तु प॒श्चादोत्त॒राद॑ध॒रादा पु॒रस्ता॑त्। आ वि॒श्वतो॑ अ॒भि समे॑त्व॒र्वाङिन्द्र॑ द्यु॒म्नं स्व॑र्वद्धेह्य॒स्मे ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ते॒ । शुष्मः॑ । वृ॒ष॒भः । ए॒तु॒ । प॒श्चात् । आ । उ॒त्त॒रात् । अ॒ध॒रात् । आ । पु॒रस्ता॑त् । आ । वि॒श्वतः॑ । अ॒भि । सम् । ए॒तु॒ । अ॒र्वाङ् । इन्द्र॑ । द्यु॒म्नम् । स्वः॑ऽवत् । धे॒हि॒ । अ॒स्मे इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ ते शुष्मो वृषभ एतु पश्चादोत्तरादधरादा पुरस्तात्। आ विश्वतो अभि समेत्वर्वाङिन्द्र द्युम्नं स्वर्वद्धेह्यस्मे ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। ते। शुष्मः। वृषभः। एतु। पश्चात्। आ। उत्तरात्। अधरात्। आ। पुरस्तात्। आ। विश्वतः। अभि। सम्। एतु। अर्वाङ्। इन्द्र। द्युम्नम्। स्वःऽवत्। धेहि। अस्मे इति ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 19; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्सर्वैर्जनैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यथास्मे पश्चात् स्वर्वद्द्युम्नमेतूत्तरात् स्वर्वद्द्युम्नमैतु। अधरात् र्स्ववद्द्युम्नमैतु विश्वतो द्युम्नमाभ्येतु, अर्वाङ् स्वर्वद् द्युम्नं समेतु पुरस्तात् स्वर्वद्द्युम्नं समेतु तथा ते शुष्मो वृषभ ऐतु। त्वमस्मभ्यमेतद्धेहि ॥९॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (ते) तव (शुष्मः) उत्तमबलः (वृषभः) बलिष्ठः (एतु) प्राप्नोतु (पश्चात्) (आ) (उत्तरात्) (अधरात्) (आ) (पुरस्तात्) (आ) (विश्वतः) सर्वतः (अभि) (सम्) (एतु) प्राप्नोतु (अर्वाङ्) योऽर्वागञ्चति (इन्द्र) परमैश्वर्यकारक (द्युम्नम्) प्रकाशमयं यशोधनं वा (स्वर्वत्) स्वर्बहुविधं सुखं विद्यते यस्मिंस्तत् (धेहि) (अस्मे) अस्मभ्यम् ॥९॥

    भावार्थः

    हे राजप्रजाजना यथा सर्वाभ्यो दिग्भ्यस्सर्वान्त्सुखकीर्ती प्राप्नुयातां तथा यत्नमातिष्ठत ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर सम्पूर्ण जनों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य के करनेवाले ! जैसे (अस्मे) हम लोगों के लिये (पश्चात्) पीछे से (स्वर्वत्) बहुत प्रकार सुख विद्यमान जिसमें उस (द्युम्नम्) प्रकाशस्वरूप यश वा धन को (एतु) प्राप्त हूजिये और (उत्तरात्) बाईं ओर से बहुत प्रकार सुख जिसमें उस प्रकाशस्वरूप यश वा धन को (आ) सब ओर से प्राप्त हूजिये और (अधरात्) नीचे से बहुविध सुखवाले प्रकाशस्वरूप यश वा धन को (आ) सब ओर से प्राप्त हूजिये तथा (विश्वतः) सब ओर से प्रकाशस्वरूप यश वा धन के (आ) सब प्रकार से (अभि, एतु) सम्मुख हूजिये और (अर्वाङ्) नीचे से बहुत सुखवाले सम्पूर्ण प्रकाशस्वरूप यश वा धन को (सम्) उत्तम प्रकार प्राप्त हूजिये तथा (पुरस्तात्) आगे से बहुत प्रकार सुख जिसमें उस प्रकाशस्वरूप यश वा धन को अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये, वैसे (ते) आप का (शुष्मः) उत्तम बलयुक्त (वृषभः) बलिष्ठ (आ) सब ओर से प्राप्त होवे और आप हम लोगों के लिये इसको (धेहि) धारण करिये ॥९॥

    भावार्थ

    हे राजा और प्रजाजनो ! जैसे सब दिशाओं से सम्पूर्ण जनों को सुख और यश प्राप्त होवें, वैसे यत्न का अनुष्ठान करिये ॥९॥

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    विषय

    उसके कर्तव्य । प्रजा का शक्तिवर्धन

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुहन्तः ! ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! (ते) तेरा (वृषभः) बलवान् ( शुष्मः ) शत्रुओं को शोषण करने में समर्थ, ( वृषभः ) धर्म से तेजस्वी, बलवान्, पुरुष ( पश्चात् ) पीछे से ( उत्तरात् ) बायें से वैसे ही ( अधरात् ) नीचे से, ( पुरस्तात् ) आगे से (आ एतु) आवे । वह (विश्वतः ) सब ओर से ( आ एतु ) आये, ( अभि एतु ) आगे बढ़े, ( सम् एतु ) ठीक प्रकार से चले । हे राजन् ! तू ( अस्मे ) हमारे उपकार के लिये ( अर्वाङ् ) हमारे साथ हमें प्राप्त होने वाले (स्वर्वत् ) सुखयुक्त, तेजःसम्पन्न, उत्तम उपदेशपूर्ण (द्युम्नं ) धन, यश, ज्ञानप्रकाश, ( धेहि ) धारण कर और करा ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, ३, १३ भुरिक्पंक्ति: । ९ पंक्तिः । २, ४,६,७ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, १०, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप् ॥ ८ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    शुष्मः द्युम्नम्

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (ते) = आपका (वृषभः) = सुखों का सेचन करनेवाला (शुष्मः) = शत्रुशोषक बल (पश्चात्) = पीछे की ओर से (आ एतु) = हमें सर्वथा प्राप्त हो । इसी प्रकार (उत्तरात् आ)[ एतु ] = उत्तर की ओर से प्राप्त हो (अधरात्) = नीचे की ओर से और (पुरस्तात्) = सामने की ओर से भी (आ) [ एतु ] हमारी ओर आये। [२] यह बल (विश्वतः) = सब ओर से (अर्वाड्) = हमारे अभिमुख होता हुआ हमें (अभि आ समेतु) = आभिमुख्येन सम्यक् प्राप्त हो । हे प्रभो ! इस बल के साथ (स्वः वत्) = प्रकाशवाले व सुख के कारणभूत द्युम्नम् ज्ञान प्रकाश को (अस्मे धेहि) = हमारे लिये धारण करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ– हे प्रभो! आप हमारे में सब दिशाओं से बल का धारण करिये। बल के साथ हमारे लिये ज्ञान के प्रकाश को भी प्राप्त कराइये । यह ज्ञान का प्रकाश हमारे सुखों का कारण बने ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा व प्रजाजनहो ! सगळीकडून सर्व लोकांना सुख व यश प्राप्त व्हावे असा प्रयत्न करा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, ruler of the world, may overwhelming and generous vigour, force and power come and flow for you all round from above and below, front and behind, all ways and every way constantly without break, and may it come to us from all sides. O lord of peace, prosperity and happiness, hold, protect and promote the wealth, honour and excellence of life for us and bless us with the grace of holy living on earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should all men do is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra! (you are) giver of great wealth. Let the heroic strength come from behind us (our followers). Let it come from before us (our leader) from above us and from below us. From every side may the shining glory of wealth, endowed with much happiness come to usher us. Bestow this upon us. Give us the glory of the realm of splendor.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king and the people! you should try in such a manner that all may attain happiness and good reputation from all sides.

    Foot Notes

    (द्युम्नम् ) प्रकाशमयं यशो धनं वा । दयुम्नमिति धननाम (NG 2,1) द्युम्नं द्योततेर्यशो वा अन्नंयेति (NKT 5,1,5)। = Shining glory or wealth. (स्वर्वत्) स्वर्बहुबिधं सुखं विद्यते = Endowed with much happiness.

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