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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - गाव इन्द्रो वा छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रो॒ यज्व॑ने पृण॒ते च॑ शिक्ष॒त्युपेद्द॑दाति॒ न स्वं मु॑षायति। भूयो॑भूयो र॒यिमिद॑स्य व॒र्धय॒न्नभि॑न्ने खि॒ल्ये नि द॑धाति देव॒युम् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । यज्व॑ने । पृ॒ण॒ते । च॒ । शि॒क्ष॒ति॒ । उप॑ । इत् । द॒दा॒ति॒ । न । स्वम् । मु॒षा॒य॒ति॒ । भूयः॑ऽभूयः । र॒यिम् । इत् । अ॒स्य॒ । व॒र्धय॑न् । अभि॑न्ने । खि॒ल्ये । नि । द॒धा॒ति॒ । दे॒व॒ऽयुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो यज्वने पृणते च शिक्षत्युपेद्ददाति न स्वं मुषायति। भूयोभूयो रयिमिदस्य वर्धयन्नभिन्ने खिल्ये नि दधाति देवयुम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। यज्वने। पृणते। च। शिक्षति। उप। इत्। ददाति। न। स्वम्। मुषायति। भूयःऽभूयः। रयिम्। इत्। अस्य। वर्धयन्। अभिन्ने। खिल्ये। नि। दधाति। देवऽयुम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजा किं कुर्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! य इन्द्रोऽस्य संसारस्य मध्ये रयिमिद् वर्धयन्नभिन्ने खिल्ये च देवयुं भूयोभूयो नि दधाति स्वं न मुषायति यज्वन उपशिक्षति पृणते च ददाति स इदेव सर्वान् वर्धयितुं शक्नोति ॥२॥

    पदार्थः

    (इन्द्रः) राजा (यज्वने) यज्ञस्य कर्त्रे (पृणते) सुखयते (च) (शिक्षति) विद्यां ददाति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (उप) (इत्) (ददाति) (न) निषेधे (स्वम्) स्वकीयं बोधम् (मुषायति) चोरयति (भूयोभूयः) (रयिम्) विद्याधनम् (इत्) एव (अस्य) संसारस्य मध्ये (वर्धयन्) (अभिन्ने) एकीभूते व्यवहारे (खिल्ये) खण्डेषु भवे (नि) (दधाति) (देवयुम्) देवान् विदुषः कामयमानं विद्वांसम् ॥२॥

    भावार्थः

    त एव विद्वांस आप्ताः सन्ति ये निष्कपटत्वेन पुनः पुनः प्रतिदिनं विद्यानिधिं योग्याय ददति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रः) राजा (अस्य) इस संसार के मध्य में (रयिम्) विद्यारूप धन को (इत्) (वर्धयन्) बढ़ाता हुआ (अभिन्ने) इकट्ठे हुए व्यवहार में और (खिल्ये) टुकड़ों में हुए के बीच (च) भी (देवयुम्) विद्वानों की कामना करते हुए विद्वान् को (भूयोभूयः) वारंवार (नि, दधाति) निरन्तर धारण करता है और (स्वम्) अपने ज्ञान को (न) नहीं (मुषायति) चुराता है और (यज्वने) यज्ञ के करनेवाले के लिये (उप, शिक्षति) विद्या देता है और (पृणते) सुखयुक्त करता है (च) और (ददाति) देता है, वह (इत्) ही सबको बढ़ा सकता है ॥२॥

    भावार्थ

    वे ही विद्वान् यथार्थवक्ता हैं, जो निष्कपटता से वार-वार प्रतिदिन विद्याकोश को योग्य के लिये देते हैं ॥२॥

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    विषय

    राजा का प्रजाजन को खजाने के समान रक्षा करने का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष ( यज्वने ) यज्ञशील, दान देने वाले और आदर सत्कार करने वाले ( पृणते च ) राष्ट्र के ऐश्वर्य को पूर्ण करने वाले प्रजाजन को ( शिक्षति ) शिष्य वा पुत्रवत् शिक्षा दे और ( उप ददाति इत् ) प्राप्त कर बहुत धन प्रदान भी करे । और वह ( स्वं ) प्रजा के अपने धन को ( न मुषायति ) चोरी से ग्रहण नहीं करता, प्रत्युत ( भूयः भूयः ) और भी अधिकाधिक ( अस्य रयिम् वर्धयन् इत् ) उसके धनैश्वर्य को बढ़ाता हुआ ही (देव-युम् ) दाता, तेजस्वी राजा को चाहने वाले प्रजाज़न को पिता वा गुरु के समान ही ( अभिन्ने खिल्ये ) अपने से अभिन्न अंश में अथवा शत्रु आदि से न टूटने योग्य भू प्रदेश दुर्गादि के बीच में (निदधाति ) उसको अपने उत्तम धन के समान सुरक्षित रखे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १, ३-८ गावः । २, ८ गाव इन्द्रो वा देवता । छन्दः–१, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । २ स्वराट् त्रिष्टुप् । ५, ६ त्रिष्टुप् । ३, ४ जगती । ८ निचृदनुष्टुप् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    'यज्वा पृणन्' की अभिन्न खिल्य में स्थिति

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (यज्वने) = यज्ञशील पुरुष के लिये, (च) = और (पृणते) = स्तुतियों के द्वारा प्रीणित करनेवाले पुरुष के लिये (शिक्षति) = आवश्यक धन को देता है। (उप इत् ददाति) = समीप प्राप्त होकर देता ही है। इस यज्ञशील पुरुष के (स्वं न मुषायति) = धन की अपहृत नहीं करता। [२] (अस्य) = इस यज्ञशील वस्तुतियों के द्वारा प्रीणित करनेवाले मनुष्य के (रयिम्) = ऐश्वर्य को (इत्) = निश्चय से (भूयः भूयः) = अधिक और अधिक (वर्धयन्) = बढ़ाता हुआ, इस (देवयुम्) = दिव्य गुणों को अपने साथ जोड़ने की कामनावाले पुरुष को (अभिन्ने) = शत्रुओं से (न विदीर्ण) = किये जानेवाले (खिल्ये) = अप्रतिहत स्थान में (निदधाति) = स्थापित करते हैं। तमोगुण व रजोगुण से ऊपर उठाकर सत्त्वगुण में स्थापित करते हैं। इस सत्त्वगुण में स्थित हुआ-हुआ यह पुरुष वासनारूप शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होता।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्रभु यज्ञशील स्तोता के धन को बढ़ाते हैं और इसे सत्त्वगुण में स्थापित करके वासनाओं से आक्रान्त नहीं होने देते।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे निष्कपटीपणाने वारंवार व दररोज योग्य लोकांना विद्या निधी देतात तेच विद्वान असतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, the ruler, gives protection and maintenance grants to the man dedicated to yajna. He engages him in creative and educational work and thus gives him fulfilment and purpose in life. This way too he does not deplete his own knowledge and culture but maintains it. Constantly and continuously he adds to the wealth of the nation and, in every region of the land, he looks after and maintains the devotees of learning, society and divinity without taking away anything from them materially.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a king do-is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That king alone is able to make all grow harmoniously, who increases the wealth of true knowledge and establishes a man desiring the association of the enlightened persons in unified and separate dealing; who does not deprive any one of the knowledge of himself, gives instructions to the performer of the Yajna and to him who makes all happy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those only are most reliable and absolutely truthful and enlightened persons who give again and again the treasure of true knowledge to the deserving seekers of truth without deceit.

    Foot Notes

    (स्वं मुषायति) स्वकीयं बोधं चोरयति । मुष-स्तेये (क्रया०) != Deprives of the knowledge of self. (खिल्ये) खण्डेषु भवे । = Belonging to parts. (पुणते) सुखयते । पुण-प्रीणने (तुदा०)। = To the person who makes others happy.

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