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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - गावः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    न ता अर्वा॑ रे॒णुक॑काटो अश्नुते॒ न सं॑स्कृत॒त्रमुप॑ यन्ति॒ ता अ॒भि। उ॒रु॒गा॒यमभ॑यं॒ तस्य॒ ता अनु॒ गावो॒ मर्त॑स्य॒ वि च॑रन्ति॒ यज्व॑नः ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । ताः । अर्वा॑ । रे॒णुऽक॑काटः । अ॒श्नु॒ते॒ । न । सं॒स्कृ॒त॒ऽत्रम् । उप॑ । य॒न्ति॒ । ताः । अ॒भि । उ॒रु॒ऽगा॒यम् । अभ॑यम् । तस्य॑ । ताः । अनु॑ । गावः॑ । मर्त॑स्य । वि । च॒र॒न्ति॒ । यज्व॑नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न ता अर्वा रेणुककाटो अश्नुते न संस्कृतत्रमुप यन्ति ता अभि। उरुगायमभयं तस्य ता अनु गावो मर्तस्य वि चरन्ति यज्वनः ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। ताः। अर्वा। रेणुऽककाटः। अश्नुते। न। संस्कृतऽत्रम्। उप। यन्ति। ताः। अभि। उरुऽगायम्। अभयम्। तस्य। ताः। अनु। गावः। मर्तस्य। वि। चरन्ति। यज्वनः ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 28; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    सा विद्या कं प्राप्नोति कं न प्राप्नोतीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्यास्ता रेणुककाटोऽर्वा नाश्नुते मूढाः संस्कृतत्रं प्राप्य ता नाऽभ्युप यन्ति किन्तु ता उरुगायमभयं जनमभ्युपयन्ति ता गाव इव तस्य यज्वनो मर्त्तस्यानु वि चरन्ति विशेषेण प्राप्नुवन्ति ॥४॥

    पदार्थः

    (न) निषेधे (ताः) (अर्वा) अश्व इव बुद्धिहीनो विषयासक्तः (रेणुककाटः) रेणुकाकूप इवान्धकारहृदयः (अश्नुते) प्राप्नोति (न) (संकृतत्रम्) यः संस्कृतं त्रायते रक्षति तम् (उप) (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (ताः) (अभि) आभिमुख्ये (उरुगायम्) बहुभिः प्रशंसनीयम् (अभयम्) अविद्यमानं भयं यस्य यस्माद्वा (तस्य) (ताः) (अनु) (गावः) किरणा इव (मर्त्तस्य) मननशीलस्य नरस्य (वि) (चरन्ति) (यज्वनः) विदुषां सेवकस्य सङ्गच्छमानस्य ॥४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! येऽशुद्धाहाराविहारा लम्पटाः पिशुनाः कुसङ्गिनः सन्ति तान् विद्या कदाचिदपि नाप्नोति ये च पवित्राहारविहारा जितेन्द्रिया यथार्थवक्तारः सत्सङ्गिनः पुरुषार्थिनः सन्ति तान् विद्याऽभिगच्छतीति विजानीत ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    वह विद्या किस को प्राप्त होती और किस को नहीं प्राप्त होती है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (ताः) उन विद्याओं को (रेणुककाटः) रेणुकाओं के कूप के समान अन्धकार हृदयवाला (अर्वा) घोड़े के समान बुद्धिहीन विषयासक्त जन (न) नहीं (अश्नुते) प्राप्त होता है और मूढ़जन (संस्कृत्रम्) संस्कारयुक्त की रक्षा करनेवाले को प्राप्त होकर (ताः) उनके (न) नहीं (अभि) सन्मुख (उप, यन्ति) समीप प्राप्त होते हैं, किन्तु वे (उरुगायम्) बहुतों से प्रशंसनीय (अभयम्) निर्भय जन के सम्मुख समीप प्राप्त होती हैं और (ताः) वे विद्यायें (गावः) किरणों के समान (तस्य) उस (यज्वनः) विद्वानों के सेवक और प्राप्त होते हुए (मर्त्तस्य) विचारशील मनुष्य के (अनु, वि, चरन्ति) पश्चात् चलती हैं तथा विशेष करके प्राप्त होती हैं ॥४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो अशुद्ध व्यवहार और विहार करनेवाले, लम्पट, चुगुल और कुसङ्गी हैं, उनको विद्या कभी नहीं प्राप्त होती है और जो पवित्र आहार और विहार करनेवाले, जितेन्द्रिय, यथार्थवक्ता, सत्सङ्गी, पुरुषार्थी हैं, उनको विद्या प्राप्त होती है, ऐसा जानिये ॥४॥

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    विषय

    ज्ञानी इन्द्र की अहिंस्य गौंएं, वाणियें हैं ।

    भावार्थ

    ( ताः गावः ) उन वेद-वाणियों को ( अर्वा ) हिंसक वा अश्व के समान केवल पशु, (रेणुक-काट:) धूल से भरे शुष्क कूए के समान नीरस पुरुष भी ( न अश्नुते ) प्राप्त नहीं कर सकता, और जो ( संस्कृ तत्रम् न उप यन्ति ) शुद्ध संस्कृत, ज्ञान की रक्षा करने वाले विद्वान् के समीप नहीं जाते वे भी ( ताः अभि न ) उनको प्राप्त नहीं करते, परन्तु जो (उरु-गायम् ) महान् ज्ञान के उपदेश करने वाले, भय से रहित पुरुष को ( उप यन्ति ) प्राप्त करते हैं वे लोग ( तस्य मर्तस्य यज्वनः ) उस सत्संगयोग्य, ज्ञानदाता पुरुष की ( ताः ) उन वाणियों को ( अनु ) विनयपूर्वक प्राप्त करते हैं । ( तस्य गावः विचरन्ति ) उसकी वाणियां गौओं के समान सुख से विविध रूपों में विचरती, प्रकाशित होती हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १, ३-८ गावः । २, ८ गाव इन्द्रो वा देवता । छन्दः–१, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । २ स्वराट् त्रिष्टुप् । ५, ६ त्रिष्टुप् । ३, ४ जगती । ८ निचृदनुष्टुप् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    न अपहरण, न विशसन [गौवों का]

    पदार्थ

    [१] (ता:) = इन गौवों को (रेणुककाट:) = युद्ध में पार्थिव धूलि का उद्भेदक (अर्वा) = युद्ध के लिये आया हुआ घोड़ा (न अश्नुते) = नहीं प्राप्त करता । अर्थात् युद्ध के द्वारा कोई हमारी इन गौवों का अपहरण नहीं कर पाता । तथा (ताः) = वे गौएँ (संस्कृतत्रम्) = विशसन आदि संस्कार को (न अभि उपयन्ति) = नहीं प्राप्त होती हैं। अर्थात् ये गौवें वध्यस्थल में हिंसित होकर भोजन का अंग नहीं बन जाती। [२] और (ताः गावः) = वे गौवें (यज्वन:) = यज्ञशील (तस्य मर्तस्य) = उस मनुष्य के (उरुगायम्) = विस्तीर्णगमनवाले (अभयम्) = भयवर्जित प्रदेश का (अनु) = लक्ष्य करके (विचरन्ति) = विचरण करती है। यज्ञों में ही इनके दूध-घृत आदि का प्रयोग होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु कृपा से न हमारी गौवों का युद्ध द्वारा अपहरण होता है, ना ये वधशाला में पहुँचती हैं। यज्ञशील पुरुषों की यज्ञभूमियों में ही ये विचरती हैं और यज्ञार्थ घृत-दुग्ध आदि को प्राप्त कराती हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जे अयोग्य आहार-विहार करणारे, लंपट, निंदक, कुसंग करणारे असतात त्यांना कधी विद्या प्राप्त होत नाही व जे योग्य आहार-विहार करणारे, जितेंद्रिय, विद्वान, सत्संग करणारे असतात त्यांना विद्या प्राप्त होते हे जाणा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Neither a vociferous brute raising clouds of dust like a war horse attains to these rays of light and culture, nor do these radiations penetrate the thick head of a violent man insulated against enlightenment. Like cows, the rays of refinement roam freely round the open pastures of the generous man of yajna and social service, a boundless world of freedom and fearlessness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Who can attain true knowledge and who cannot is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! a man who is intelligent and immersed in passions like a horse and who is full of darkness in his heart like a well full of sand, cannot enjoy the Vedic speech. Those ignorant persons who do not approach a preserver of Sanskrit (cultured) pure Vedic speech cannot obtain that. But the pure speech and knowledge is attained by a man who is much raised on account of his divine virtues and who is fearless. Like the rays of the sun, those cultured and pure Vedic words follow a man who associates with the enlightened persons and serves them.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! those persons whose diet and conduct are impure, who are addicted to licentious pleasures back biters and keeping bad company can never attain true knowledge only those whose diet and movements are pure, who are self controlled, utterers knowledge. Only of truth, associating with good men, and industrious, attain true knowledge. This is what you should all know well.

    Foot Notes

    (अर्वा)) अश्व इव वुद्धिहीनो विषयासक्तः। = Un intelligent and licentious person like the horse. (रेणुककाड:) रेणुकाकूप इवान्धकारहृदय: । = One whose heart is full of darkness of ignorance like the well full of sand. (संस्कृतत्वम्) य: संस्कृतं त्रायते रक्षति तम् = To the preserver of Sanskrit or the refined speech.

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