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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - गावः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    गावो॒ भगो॒ गाव॒ इन्द्रो॑ मे अच्छा॒न् गावः॒ सोम॑स्य प्रथ॒मस्य॑ भ॒क्षः। इ॒मा या गावः॒ स ज॑नास॒ इन्द्र॑ इ॒च्छामीद्धृ॒दा मन॑सा चि॒दिन्द्र॑म् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गावः॑ । भगः॑ । गावः॑ । इन्द्रः॑ । मे॒ । अ॒च्छा॒न् । गावः॑ । सोम॑स्य । प्र॒थ॒मस्य॑ । भ॒क्षः । इ॒माः । याः । गावः॑ । सः । ज॒ना॒सः॒ । इन्द्रः॑ । इ॒च्छामि॑ । इत् । हृ॒दा । मन॑सा । चि॒त् । इन्द्र॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गावो भगो गाव इन्द्रो मे अच्छान् गावः सोमस्य प्रथमस्य भक्षः। इमा या गावः स जनास इन्द्र इच्छामीद्धृदा मनसा चिदिन्द्रम् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गावः। भगः। गावः। इन्द्रः। मे। अच्छान्। गावः। सोमस्य। प्रथमस्य। भक्षः। इमाः। याः। गावः। सः। जनासः। इन्द्रः। इच्छामि। इत्। हृदा। मनसा। चित्। इन्द्रम् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 28; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैरवश्यं विद्याप्राप्तीच्छा कार्य्येत्याह ॥

    अन्वयः

    हे जनासो विद्वांसो ! यथा प्रथमस्य सोमस्य सेवमाना गावो वत्सान् दुग्धं प्रयच्छन्ति तथा गावो जना भगो गाव इन्द्रो भक्षश्च मेऽच्छान् या इमा गावो यस्य सन्ति स इन्द्रो मां शिक्षतु। अहं हृदा मनसा चिदिन्द्रमिदिच्छामि ॥५॥

    पदार्थः

    (गावः) किरणा इव (भगः) ऐश्वर्यमिच्छुः (गावः) सुशिक्षिता वाचः (इन्द्रः) विद्यैश्वर्ययुक्तः (मे) मम (अच्छान्) यच्छन्तु प्रददतु। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति यलोपः। (गावः) धेनवः (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (प्रथमस्य) आदिमस्य (भक्षः) सेवनीयः (इमाः) (याः) (गावः) वाचः (सः) (जनासः) विद्वांसः (इन्द्रः) (इच्छामि) (इत्) एव (हृदा) आत्मना (मनसा) विज्ञानेन (चित्) अपि (इन्द्रम्) ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये मनुष्या आत्मनाऽन्तःकरणेन च विद्यां प्राप्तुमिच्छन्ति ते सर्वं सुखमश्नुवते ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों को चाहिये कि अवश्य विद्या की इच्छा करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (जनासः) विद्वान् मनुष्यो ! जैसे (प्रथमस्य) पहिले (सोमस्य) ऐश्वर्य की सेवनेवाली (गावः) गौएँ बछड़ों को दूध देती हैं, वैसे (गावः) किरणों के समान जन और (भगः) ऐश्वर्य की इच्छा करनेवाला (गावः) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणियों को और (इन्द्रः) विद्या और ऐश्वर्य से युक्त (भक्षः) सेवा करने योग्य जन (मे) मेरे लिये (अच्छान्) देवें और (याः) जो (इमाः) ये (गावः) वाणियाँ जिसकी हैं (सः) वह (इन्द्रः) विद्या और ऐश्वर्य से युक्त मुझ को शिक्षा देवे और मैं (हृदा) आत्मा तथा (मनसा) विज्ञान से (चित्) भी (इन्द्रम्) ऐश्वर्ययुक्त जन की (इत्) ही (इच्छामि) इच्छा करता हूँ ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य आत्मा और अन्तःकरण से विद्या की प्राप्ति की इच्छा करते हैं, वे सब सुख का भोग करते हैं ॥५॥

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    विषय

    इन्द्र से राजा, गृहपति, विद्वान् से भूमि, गौवाणी दान करने की याचना ।

    भावार्थ

    प्रथमस्य ) सर्वश्रेष्ठ ( सोमस्य ) ऐश्वर्य, अन्नादि का ( भक्षः ) सेवन करने वाला वा विद्वान् शिष्य की सेवा योग्य विद्वान् ( मे गावः अच्छान् ) मुझे गौओं और ज्ञानयुक्त विद्याओं को प्रदान करे । (भगः) ऐश्वर्यवान् पुरुष (मे गाव:) मुझे गौएं, ज्ञानवाणियें दे । ( इन्द्रः मे गाव: अच्छान् ) शत्रुहन्ता राजा मुझे भूमियां प्रदान करे । हे ( जनासः ) लोगो ! सुनो । (याः इमाः गाव:) ये जो गौएं, वेदवाणियां और भूमियां हैं ( स इन्द्रः ) वही परमैश्वर्य है । मैं ( हृदा मनसा ) हृदय और मन से उत्तम और उचित जानकर ऐसे ही ( इन्द्रं चित् ) ऐश्वर्य को ही ( इच्छामि ) प्राप्त करना चाहता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १, ३-८ गावः । २, ८ गाव इन्द्रो वा देवता । छन्दः–१, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । २ स्वराट् त्रिष्टुप् । ५, ६ त्रिष्टुप् । ३, ४ जगती । ८ निचृदनुष्टुप् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    'गाव:' भगः [गौ]

    पदार्थ

    [१] (गावः भगः) = गौएँ ही ऐश्वर्य हैं । (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (मे) = मेरे लिये (गावः अच्छान्) = गौवों को प्राप्त कराये [यक्षतु सा० ] । ये (गावः) = गो-दुग्ध (प्रथमस्य सोमस्य) = सर्वश्रेष्ठ सोम के (भक्षः) = भोजन हैं, अर्थात् गो-दुग्ध के सेवन सर्वोत्तम वीर्य प्राप्त होता है । [२] (इमाः) = ये (या:) = जो (गावः) = गौवें हैं, हे (जनासः) = लोगो ! (या स इन्द्रः) = वे ही इन्द्र हैं। इन्द्र की प्राप्ति का ये गौएँ ही साधन बनती हैं। मैं वस्तुतः (हृदा) = श्रद्धायुक्त हृदय से तथा (मनसा) = प्रबल प्राप्ति की कामनावाले (मनसे इन्द्रं चित्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को ही (इच्छामि) = चाहता हूँ । उस प्रभु प्राप्ति की कामना से ही इन गौवों की भी सेवा करता हूँ। इनके दुग्ध से ही सात्त्विक बुद्धिवाला होकर मैं प्रभु को प्राप्त करनेवाला होता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- गौवें ही सर्वोत्कृष्ट ऐश्वर्य हैं। ये ही सर्वोत्कृष्ट सोम को अपने दुग्ध द्वारा प्राप्त कराती हैं। ये ही अपने दूध से हमारी बुद्धि को सात्त्विक बनाकर हमें प्रभु की प्राप्ति के योग्य करती हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे आत्मा व अंतःकरणपूर्वक विद्याप्राप्तीची इच्छा करतात ती सर्व सुखे भोगतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May Bhaga, lord of wealth and good fortune, give me cows. May Indra, lord of power and majesty, give me good cows. May Bhaksha, adorable lord of primal food, energy and ecstasy of life, give me good cows for milk. O people, O lord of power and glory, Indra, I love and love to have all that is cows, i.e., mothers of food and energy, sources of sweetness, light and culture, masters of knowledge and wisdom, honour and excellence. I love that all with my heart and mind, the beauty, the glory, the ecstasy!

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Man must have the desire of acquiring true knowledge—is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned renowned persons! as the cows feed their calves with milk, enjoying the first soma (wealth of herbs and grass etc.) in the same manner let the cows, noble speeches and good men who are devoted to God give me desirable things. Let a man endowed with knowledge and wealth, who is the master of these pure speeches give me knowledge. I desire to have the knowledge of God who is the lord of the world and an enlightened person with all my heart and mind or knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who desire to acquire knowledge with their soul and heart, enjoy all happiness.

    Foot Notes

    (भगः) ऐश्वर्यमिच्छुः । भज सेवायाम् (भ्वा०) सेवनीयम् ऐश्वर्यधर्मज्ञान कीर्त्यदिकम् । = Desirous of acquiring wealth or prosperity. (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य । षु-प्रसर्वश्वर्ययो (स्वा०) अत्र ऐश्वर्यार्थः । = of prosperous.

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