ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
तमा नू॒नं वृ॒जन॑म॒न्यथा॑ चि॒च्छूरो॒ यच्छ॑क्र॒ वि दुरो॑ गृणी॒षे। मा निर॑रं शुक्र॒दुघ॑स्य धे॒नोरा॑ङ्गिर॒सान्ब्रह्म॑णा विप्र जिन्व ॥५॥
स्वर सहित पद पाठतम् । आ । नू॒नम् । वृ॒जन॑म् । अ॒न्यथा॑ । चि॒त् । शूरः॑ । यत् । श॒क्र॒ । वि । दुरः॑ । गृ॒णी॒षे । मा । निः । अ॒र॒म् । शु॒क्र॒ऽदुघ॑स्य । धे॒नोः । आ॒ङ्गि॒र॒सान् । ब्रह्म॑णा । वि॒प्र॒ । जि॒न्व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमा नूनं वृजनमन्यथा चिच्छूरो यच्छक्र वि दुरो गृणीषे। मा निररं शुक्रदुघस्य धेनोराङ्गिरसान्ब्रह्मणा विप्र जिन्व ॥५॥
स्वर रहित पद पाठतम्। आ। नूनम्। वृजनम्। अन्यथा। चित्। शूरः। यत्। शक्र। वि। दुरः। गृणीषे। मा। निः। अरम्। शुक्रऽदुघस्य। धेनोः। आङ्गिरसान्। ब्रह्मणा। विप्र। जिन्व ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 35; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे विप्रशक्रेन्द्र ! यद् वृजनं नूनमाऽऽगृणीषे तञ्चिन्निर्गृणीषे शूरस्त्वं दुरो जिन्व। शुक्रदुघस्य धेनोश्चाङ्गिरसान् ब्रह्मणाऽरं वि जिन्व। कदाचिदन्यथा मा कुर्याः ॥५॥
पदार्थः
(तम्) (आ) (नूनम्) निश्चितम् (वृजनम्) व्रजन्ति येन यस्मिन् वा (अन्यथा) (चित्) अपि (शूरः) निर्भयः शत्रुहन्ता (यत्) (शक्र) शक्तिमन् (वि) (दुरः) द्वाराणि (गृणीषे) प्रशंससि (मा) (निः) नितराम् (अरम्) अलम् (शुक्रदुघस्य) आशुपूर्तिकर्त्र्याः (धेनोः) वाचः (आङ्गिरसान्) अङ्गिरःसु प्राणेषु साधून् (ब्रह्मणा) महता धनेनान्नेन वा (विप्र) मेधाविन् (जिन्व) प्रीणीहि ॥५॥
भावार्थः
ये राजादयो जनाः प्रजाः सुखेनालङ्कृत्यान्यायादन्यथाचरणं न कुर्वन्ति ते समग्रैश्वर्येण युक्ता जायन्ते ॥५॥ अत्रेन्द्रविद्वद्राजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चत्रिंशत्तमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (विप्र) बुद्धिमान् जन (शक्र) सामर्थ्य और अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त राजन् ! (यत्) जो (वृजनम्) चलते हैं जिससे वा जिसमें उनकी (नूनम्) निश्चित (आ, गृणीषे) प्रशंसा करते हो (तम्) उसकी (चित्) भी (निः) निरन्तर प्रशंसा करते हो और (शूरः) भयरहित और शत्रुओं के मारनेवाले आप (दुरः) द्वारों को (जिन्व) पुष्ट करिये तथा (शुक्रदुघस्य) शीघ्र पूर्ण करनेवाली (धेनोः) वाणी के (आङ्गिरसान्) प्राणों में श्रेष्ठों को (ब्रह्मणा) बड़े धन वा अन्न से (अरम्) अच्छे प्रकार से (वि) प्रसन्न कीजिये और कभी (अन्यथा) अन्यथा (मा) न करिये ॥५॥
भावार्थ
जो राजा आदि जन प्रजाओं को सुख से शोभित कर अन्याय से अन्यथा आचरण नहीं करते, वे सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य से युक्त होते हैं ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान्, राजा और प्रजा के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पैंतीसवाँ सूक्त और सातवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
विद्वानों की सेवा, आदर का उपदेश ।
भावार्थ
हे ( शक्र ) शक्तिशालिन् ! तू ( यत् ) जब ( दुरः ) द्वारों तथा शत्रुवारक सेनाओं को ( वि गृणीषे ) विविध प्रकार से आज्ञाएं देवे तब ( शूरः ) शूरवीर होकर ( नूनं ) निश्चय से ( वृजनम् ) जाने के मार्ग को ( अन्यथा चित् ) विपरीत (मा आगृणीषे) कभी मत बतला । ( शुक्रः दुधस्य ) जल को दोहन करने वाले मेघ के सदृश शुक्ल या श्वेत कान्ति के धन या यश का दोहन करने वाले राजा की (धेनोः ) विद्युत् समान, वाणी, वा गौ के तुल्य भूमि से उत्पन्न ( ब्रह्मणा ) अन्न के तुल्य वृद्धिशील धन से हे ( विप्र ) विद्वन् ! तू ( अङ्गिरसान् ) अंगारे के समान तेजस्वी, देह में प्राणों के तुल्य, राष्ट्र में बसे विद्वान् शक्तिशाली पुरुषों को ( अरम् ) खूब अच्छी प्रकार से ( निर् जिन्व ) सब प्रकार से तृप्त कर, उनको बढ़ा । इति सप्तमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नर ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ विराट् त्रिष्टुप् । ३ निचृत्त्रिष्टुप् । २ पंक्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
शक्ति-सम्पन्न व ज्ञानी
पदार्थ
[१] हे (शक्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (विदुरः) = शत्रुओं का विशेषरूप से विदारण करनेवाले, (शूरः) = शूर आप (यद् गृणीषे) = जब हमारे से स्तुत किये जाते हैं तो (तं वृजनम्) = उस बाधक शत्रु को (नूनम्) = निश्चय से (अन्यथा चित्) = और ही प्रकार से युक्त करिये, अर्थात् जीवित अवस्था के विपरीत मरणावस्था को प्राप्त कराइये । [२] मैं (शुक्रदुघस्य) = दीप्त ज्ञान का दोहन करनेवाली (धेनोः) = इस वेद धेनु से (मा निररम्) = बाहर न निकल जाऊँ । सदा वेद धेनु का दोहन करनेवाला बनूँ । हे (विप्र) = विशेषरूप से हमारा पूरण करनेवाले प्रभो! (आंगिरसान्) = अंग-प्रत्यंग में रसमय शक्तिवाले हम लोगों को (ब्रह्मणा) = ज्ञान से जिन्व प्रीणित करिये। हमें शक्ति सम्पन्न व ज्ञानी बनाइये। अगले सूक्त में भी 'नर' ऋषि इन्द्र का आराधन करता है -
मराठी (1)
भावार्थ
जे राजे प्रजेला सुखात ठेवतात, अन्यायाने अयोग्य आचरण करीत नाहीत ते संपूर्ण ऐर्श्वयाने युक्त होतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, valiant ruler, lord of knowledge and power, destroyer of darkness, hate and enmity, let the paths of love and progress you approve and proclaim and the doors of new knowledge you open never be otherwise, keep them wide open onwards. O vibrant lover of knowledge and advancement, never forsake the faithful scholars of divine nature’s fertility, vitality and virility, never desert the visionaries of the divine Word of Veda, serve and advance them with means and materials for relentless pursuit of knowledge and life’s sanctity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O genius and mighty king ! you praise and praise constantly, the certain path of righteousness. You, who are fearless, destroyer of enemies, open the doors of happiness and satisfy well all, who possess good speech, that accomplish noble desires and are experts in the science of Prana (vital energy), and practisers of Pranayama, with great wealth or food. Never do anything against this injunction,
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Translator's Notes
Griffith note on this last verse of the hymn is worth quoting. He says in his foot note:-I find this stanza; hopelessly obscure, and do not attempt to translate it, giving instead of a conjectural translation a reproduction of the substance of Sayana's absolutely worthless paraphrase. Lead other wise: according to Sanayana, consign to death; to a course different from that of living being. Wilson "(The hymns of the Rigveda translated by Griffith Vol. 1 P. 596.) As a matter of fact, there is nothing hopelessly obscure in the stanza, though it is true that Sayanacharya Wilson and Griffith were not able to grasp its real inquest. Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation of the mantra as translated above is quite clear. It is strange that many of these Western Scholars undertook the translation of the Vedas without under- standing them themselves and thus misleading others.
Foot Notes
(वृजनम् ) व्रजन्ति येन यस्मिन् वा । व्रज-गतौ (भ्वा०) । = Path . (आङ्गिरसान् ) अङ्गिरःसु प्राणेषु साधून् । प्राणो वा अङ्गिरा: (मा शतपथे 6,1,2,28; 5, 2, 3, 4)। = Experts in the science of Pranas or practisers of Pranayama (control of breath).
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal