Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 44 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 12
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    उद॒भ्राणी॑व स्त॒नय॑न्निय॒र्तीन्द्रो॒ राधां॒स्यश्व्या॑नि॒ गव्या॑। त्वम॑सि प्र॒दिवः॑ का॒रुधा॑या॒ मा त्वा॑दा॒मान॒ आ द॑भन्म॒घोनः॑ ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । अ॒भ्राणि॑ऽइव । स्त॒नय॑न् । इ॒य॒र्ति॒ । इन्द्रः॑ । राधां॑सि । अश्व्या॑नि । गव्या॑ । त्वम् । आ॒सि॒ । प्र॒ऽदिवः॑ । का॒रुऽधा॑याः । मा । त्वा॒ । अ॒दा॒मानः॑ । आ । द॒भ॒न् । म॒घोनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदभ्राणीव स्तनयन्नियर्तीन्द्रो राधांस्यश्व्यानि गव्या। त्वमसि प्रदिवः कारुधाया मा त्वादामान आ दभन्मघोनः ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। अभ्राणिऽइव। स्तनयन्। इयर्ति। इन्द्रः। राधांसि। अश्व्यानि। गव्या। त्वम्। असि। प्रऽदिवः। कारुऽधायाः। मा। त्वा। अदामानः। आ। दभन्। मघोनः ॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 12
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा किंवत्किं कुर्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यतः स्तनयन् कारुधाया इन्द्रोऽभ्राणीवाश्व्यानि गव्या राधांस्युदियर्त्ति प्रदिवो मघोनः स ग्रहीतास्ति यथाऽदामानस्त्वा मा आ दभन्मघोनो मा आदभंस्तथा त्वं यदि कृतवानसि तर्हि त्वयि को नतो भवति ॥१२॥

    पदार्थः

    (उद्) अपि (अभ्राणीव) वायुदलानीव (स्तनयन्) शब्दयन् (इयर्त्ति) प्राप्नोति (इन्द्रः) विद्युदिव (राधांसि) सर्वसुखकराणि धनानि (अश्व्यानि) अश्वेषु हितानि (गव्या) गोषु हितानि (त्वम्) (असि) (प्रदिवः) प्रकर्षेण कमनीयान् (कारुधायाः) विदुषां शिल्पानां धारयिता (मा) निषेधे (त्वा) त्वाम् (अदामानः) अदातारः (आ) (दभन्) हिंसेयुः (मघोनः) धनाढ्यान् ॥१२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यस्याभ्रघटावत्सेना बलवती विद्युद्वत्पराक्रमयुक्ता वर्त्तते येन सर्वे गुणिनः सङ्गृह्यन्ते स एव धनधान्यराज्यपश्वादीन् प्राप्नोति ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा किसके सदृश क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! जिससे (स्तनयन्) शब्द करता हुआ (कारुधायाः) विद्वान् शिल्पी जनों का धारण करनेवाला (इन्द्रः) बिजुली के सदृश वा (अभ्राणीव) वायु के दलों के सदृश (अश्व्यानि) घोड़ों में हितकारक (गव्या) गौओं में हितकारक (राधांसि) सम्पूर्ण सुखों के करनेवाले धनों को (उत्) भी (इयर्त्ति) प्राप्त होता है और (प्रदिवः) अत्यन्त सुन्दर (मघोनः) धन से युक्त जनों को वह ग्रहण करनेवाला है और जैसे (अदामानः) आदाता जन (त्वा) आपकी (मा) मत (आ, दभन्) हिंसा करें और धन से युक्त जनों की मत हिंसा करें, वैसे (त्वम्) आप जो कर चुके (असि) हैं तो आप में कौन नम्र होता है ॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिसकी मेघों की घटाओं के समान बलवती सेना, बिजुली के समान पराक्रमयुक्त वर्त्तमान है और जिससे सब गुणी संग्र­ह किये जाते हैं वही धन, धान्य, राज्य और पशु आदि पदार्थों को प्राप्त होता है ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः अभ्राणि इव) जिस प्रकार सूर्य या विद्युत् मेघों को गर्जता हुआ ऊपर उठाता है इसी प्रकार ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता राजा ( स्तनयन् ) गर्जता हुआ । ( अश्वानि गव्यानि राधांसि ) अश्वों, गौवों और भूमियों के धनों को ( उत् इयर्ति ) उन्नत करता है । हे राजन् ! ( त्वम् ) तू ( कारुधायाः ) विद्वानों और शिल्पियों का धारण, पोषण करने वाला ( प्र-दिवः ) सबके द्वारा कामना करने योग्य ( असि ) है । ( अदामानः ) अदानशील, बन्धनरहित, उच्छृंङ्खल पुरुष ( त्वा ) तुझे और तेरे ( मघोनः ) राज्य में ऐश्वर्यवान् पुरुषों को ( मा दभन्) विनाश न करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अकृपण धनी

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (अभ्राणि) = मेघों को (स्तनयन् इव) = गर्जना कराते हुए की तरह (अश्व्यानि) = कर्मों में व्याप्त होनेवाली कर्मेन्द्रियों से सम्बद्ध तथा (गव्या) = अर्थों की गमक ज्ञानेन्द्रियों से सम्बद्ध (राधांसि) = सिद्धियों को (उदियर्ति) = उत्कर्षेण प्रेरित करते हैं। वे प्रभु अन्तरिक्ष में जैसे बादलों की गर्जना होती है, उसी प्रकार हमारे हृदयान्तरिक्ष में प्रेरणा को देते हुए हमें उत्तम कर्मेन्द्रियाँ व उत्तम ज्ञानेन्द्रियाँ प्राप्त कराते हैं । हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (प्रदिवः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले व (कारुधायाः) = क्रियाशील स्तोताओं के धारण करनेवाले प्रेरक (असि) = हो (त्वा) = आपको (मघोनः) = धनवान्, पर (अदामान:) = अदानशील- कृपण वृत्तिवाले (दभन्) = मत हिंसित करें। अर्थात् हमारे में से कोई धनी होता हुआ कृपण न हो और इस प्रकार आपको भूल न जाऊँ धन हमें आपको भुलानेवाला न हो। ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु प्रेरणा देते हैं, उत्तम कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों प्राप्त कराते हैं। स्तोताओं का वे धारण करनेवाले हैं। हम धनी होकर कृपण न हो जाएँ। प्रभु हमें विस्मरण न हो जाये, हम धन में ही न उलझ जाएँ ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. मेघवायुदलाप्रमाणे ज्याची सेना बलवान व विद्युतप्रमाणे पराक्रमी असते, जो गुणवान लोकांना जवळ करतो त्यालाच धन, धान्य, राज्य व पशू इत्यादी पदार्थ प्राप्त होतात. ॥ १२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And like thundering clouds, Indra moves and declares the gifts of success and munificence, horses and fast accomplishment, cows and abundant food and drink. O lord, you are the patron sustainer of brilliant artists, inventive scientists and expert technologists. Let the miserly non-giver never deceive you or injure you, and never let him deceive the generous and prosperous people.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a king do like and for whom-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the lightning impels the rain-clouds, so the good king, uttering good words and upholding learned artists and artisans send riches, which bestow happiness that are beneficial to the horses and cattle. He is the supporter or lover of the wealthy persons, intensely desiring the welfare of all. Let not the miserly fellows harm you. Let them not give trouble to the rich. If you behave in this manner, who is it that will not bow before you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is simile used in the mantra. He alone can acquire wealth, foods—grains, kingdom and animals, whose army is strong like the band of the clouds, forceful like electricity and, who gathers all virtuous persons.

    Foot Notes

    (राधाँसि) सर्वसुखकराणि धनामि । राध इति धननाम (NG 2,10 ) राध संसिद्धी (स्वा.) । सर्वेषां सुखसाधकम् इत्यार्थ:। = Riches which bestow happiness on all. (कारुधायाः) विदुषां शिल्पीन धारयिता । कारः-कुन् करणे कृवापाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य उण् (उर्णा) 1,1 ) इत्युण शिल्पकारः । = Upholder of the learned artists and artisans (अदामान:) अदातारः (इ) धारणापोषणयो: (जुहा.): । Miserly, Nygard.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top