ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 8
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ऋ॒तस्य॑ प॒थि वे॒धा अ॑पायि श्रि॒ये मनां॑सि दे॒वासो॑ अक्रन्। दधा॑नो॒ नाम॑ म॒हो वचो॑भि॒र्वपु॑र्दृ॒शये॑ वे॒न्यो व्या॑वः ॥८॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तस्य॑ । प॒थि । वे॒धाः । अ॒पा॒यि॒ । श्रि॒ये । मनां॑सि । दे॒वासः॑ । अ॒क्र॒न् । दधा॑नः । नाम॑ । म॒हः । वचः॑ऽभिः । वपुः॑ । दृ॒शये॑ । वे॒न्यः । वि । आ॒व॒रित्या॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतस्य पथि वेधा अपायि श्रिये मनांसि देवासो अक्रन्। दधानो नाम महो वचोभिर्वपुर्दृशये वेन्यो व्यावः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठऋतस्य। पथि। वेधाः। अपायि। श्रिये। मनांसि। देवासः। अक्रन्। दधानः। नाम। महः। वचःऽभिः। वपुः। दृशये। वेन्यः। वि। आवरित्यावः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैः कथं वर्त्तित्वा किं प्राप्य किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा वेधा ऋतस्य पथि श्रियेऽपायि देवासो मनांस्यक्रन् वचोभिर्महो नाम दृशये वपुश्च दधानो वेन्यः सन् व्यावस्तथा यूयमपि प्रयतध्वम् ॥८॥
पदार्थः
(ऋतस्य) सत्यस्य (पथि) मार्गे (वेधाः) मेधावी (अपायि) पाति (श्रिये) (मनांसि) (देवासः) विद्वांसः (अक्रन्) कुर्वन्ति (दधानः) (नाम) प्रख्यातिम् (महः) कीर्त्तियोगान्महत् (वचोभिः) वचनैः (वपुः) सुरूपं शरीरम्। वपुरिति रूपनाम। (निघं०३.७) (दृशये) दर्शनाय (वेन्यः) कमनीयः (वि) (आवः) रक्षति ॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सर्वदा धर्मपथि गत्वा धनोन्नतये मनांसि निश्चेतव्यानि तथा धनप्राप्तेन धनेनानाथपालनं विद्याधर्मवृद्धिमौषधदानं मार्गशुद्धिं च कृत्वा प्रशंसा सर्वासु दिक्षु प्रसारणीया ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
अब मनुष्यों को कैसा वर्त्ताव करके क्या प्राप्त करके क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (वेधाः) बुद्धिमान् (ऋतस्य) सत्य के (पथि) मार्ग में (श्रिये) लक्ष्मी के लिये (अपायि) रक्षा करता है और (देवासः) विद्वान् जन (मनांसि) मनों को (अक्रन्) करते हैं और (वचोभिः) वचनों से (महः) कीर्ति के योग से बड़ी (नाम) प्रसिद्धि को (दृशये) दिखाने के लिये (वपुः) अच्छे रूपवाले शरीर को (दधानः) धारण करता (वेन्यः) सुन्दर होता और (वि, आवः) रक्षा करता है, वैसे आप लोग भी यत्न करो ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि सर्वदा धर्ममार्ग में चलकर धन की उन्नति के लिये मनों को निश्चित करें और धन से प्राप्त हुए धन से अनाथों का पालन, विद्या और धन की वृद्धि तथा औषधदान और मार्ग शुद्धि करके सब दिशाओं में प्रशंसा विस्तारें ॥८॥
विषय
उसके प्रति विद्वानों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( ऋतस्य पथि ) सत्य के मार्ग में रह कर (वेधाः) विधान करने में कुशल, विद्वान् न्यायपति (अपायि ) राष्ट्र के स्वामी के समान पालन करे । और ( देवासः ) कामनाशील सभी मनुष्य ( श्रिये ) अपनी लक्ष्मी को प्राप्त करने और बढ़ाने के लिये (मनांसि ) अपने चित्त (अक्रन्) बनाये रक्खें । वे सदा उत्तम सम्पदा पाने और बढ़ाने की इच्छा करते रहें। ( वेन्यः ) कान्तिमान् तेजस्वी, राज्य और शासन बल की कामना करने हारा विजिगीषु पुरुष सूर्य के समान ( महः वचोभिः ) बड़े, उत्तम वचनों से ( नाम दधानः ) अपनी ख्याति धारण करता हुआ, ( दृशये ) देखने योग्य अपने ( वपुः ) सुन्दर रूप को सूर्यवत ही (दि आवः ) विशेष रूप से प्रगट करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः – १, ३, ४ निचृदनुष्टुप् । २, ५ स्वराडुष्णिक् । ६ आसुरी पंक्ति: । ७ भुरिक् पंक्तिः । ८ निचृत्पंक्तिः । ९, १२, १६ पंक्तिः । १०, ११, १३, २२ विराट् त्रिष्टुप् । १४, १५, १७, १८, २०, २४ निचृत्त्रिष्टुप् । १९, २१, २३ त्रिष्टुप् ।। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
सोमपान-ज्ञान-बल प्रभु दर्शन
पदार्थ
[१] (ऋतस्य पथि) = यज्ञ के मार्ग में (वेधा:) = बुद्धि का जनक यह सोम [वेधा: = सोम] संचय किया जाता है। अर्थात् यज्ञादि कर्मों में लगे रहने से वासनाओं का आक्रमण न होने के कारण, सोम अपाय होता है। इस प्रकार (देवासः) = देववृत्ति के पुरुष (श्रिये) = शोभा के लिये (मनांसि अक्रन्) = ज्ञान का सम्पादन करते हैं। सोमरक्षण से ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और ज्ञान से पवित्रता होकर उसकी शोभा बढ़ती है । [२] (वचोभिः) = स्तुति वचनों के द्वारा नाम शत्रुओं को नमानेवाले सोम को धारण करते हुए (वेन्यः) = वे कमनीय प्रभु (वपुः) = अपने तेजोमय रूप को (दृशये) = समयक देखे जाने के लिये (व्याव:) = प्रकट करते हैं । अर्थात् यह प्रभु-स्तवन हमें शत्रुओं को नष्ट करने बल को प्राप्त कराता है तथा प्रभु दर्शन का पात्र बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में लगे रहकर, वासनाओं से बचे रहने के द्वारा, सोम का पान करें। ज्ञान को प्राप्त करें। स्तवन के द्वारा शत्रुओं के झुकानेवाले बल को प्राप्त हों तथा प्रभु दर्शन के योग्य बनें। सोमरक्षण से ज्ञान बढ़ता है। ज्ञान से शत्रुओं को झुकानेवाला व बल मिलता है। इस बल से सम्पन्न व्यक्ति प्रभु दर्शन पाता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सदैव धर्ममार्गात राहून धनवृद्धी करण्यासाठी मनाचा निश्चय करावा व धनप्राप्ती करून त्याद्वारे अनाथांचे पालन, विद्या, धनप्राप्ती, औषध दान व मार्गशुद्धी करून सर्वत्र प्रशंसित व्हावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
On the path of truth and eternal law, the man of knowledge and wisdom is protected, and the noble and the wise control and transform their minds for the beauty and grace of manners and culture. May the Great one, kind and loving, bearing the holy name, reveal his divine presence in response to our prayers and protect us through the paths of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men gain, what and how should they do-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! as a wise person protects for prosperity in the path of truth-and the enlightened men turn their minds to this object, a desirable and charming person having good and beautiful body to look at and gaining reputation by uttering good words protects all, so you should also try to do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Treading upon the path of righteousness, men should determine to increase wealth and with that wealth, they should support the orphans, advance the cause of Vidya (knowledge) and Dharma (righteousness) distribute medicines for the suffering and construct good roads and in this way, they should spread their name and fame in all directions.
Foot Notes
(वेधा:) मेधावी । वेधा इति मेधाविनाम (NG 3,15):। = A genius. (वपु:) सुन्दर शरीरम् । वपुरिति रूपनाम (NG 3, 7 ) । = Beautiful body. (वेन्यः) कमनीयः । वी-गति व्याप्ति प्रजनकान्त्यसनखादनेषु (अदा०) अत्रकान्त्यर्थभादाम व्याख्या: । = Charming.
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