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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 33
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - बृबुस्तक्षा छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    तत्सु नो॒ विश्वे॑ अ॒र्य आ सदा॑ गृणन्ति का॒रवः॑। बृ॒बुं स॑हस्र॒दात॑मं सू॒रिं स॑हस्र॒सात॑मम् ॥३३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । सु । नः॒ । विश्वे॑ । अ॒र्यः । आ । सदा॑ । गृ॒ण॒न्ति॒ । का॒रवः॑ । बृ॒बुम् । स॒ह॒स्र॒ऽदात॑मम् । सू॒रिम् । स॒ह॒स्र॒ऽसात॑मम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्सु नो विश्वे अर्य आ सदा गृणन्ति कारवः। बृबुं सहस्रदातमं सूरिं सहस्रसातमम् ॥३३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। सु। नः। विश्वे। अर्यः। आ। सदा। गृणन्ति। कारवः। बृबुम्। सहस्रऽदातमम्। सूरिम्। सहस्रऽसातमम् ॥३३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 33
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    ये नो विश्वे कारवस्सहस्रदातमं बृबुं सहस्रसातमं सूरिं स्वा गृणन्ति ते तदतुल्यमैश्वर्य्यं सदा प्राप्नुवन्ति य एषामर्यो भवेत्स एतान् सत्कृत्य संरक्षेत् ॥३३॥

    पदार्थः

    (तत्) (सु) (नः) अस्माकम् (विश्वे) सर्वे (अर्यः) स्वामी वैश्यो वा (आ) समन्तात् (सदा) (गृणन्ति) (कारवः) शिल्पिनः (बृबुम्) मुख्यं शिल्पिनम् (सहस्रदातमम्) अतिशयेनासङ्ख्यदातारम् (सूरिम्) विद्वांसम् (सहस्रसातमम्) असङ्ख्यानां पदार्थानामतिशयेन विभक्तारम् ॥३३॥

    भावार्थः

    ये क्रियाकुशलान् विदुषः शिल्पिनः प्रशंसन्ति तेऽसङ्ख्यं धनं प्राप्यासङ्ख्यं धनं दातुमर्हन्तीति ॥३३॥ अत्र राजनीतिधनजेतृमित्रत्ववेदविदिन्द्रदातृशिल्पिकारुस्वामिकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चचत्वारिंशत्तमं सूक्तं षड्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (नः) हम लोगों के (विश्वे) सब (कारवः) कारीगर जन (सहस्रदातमम्) अतिशय असङ्ख्य देनेवाले (बृबुम्) मुख्य शिल्पी (सहस्रसातमम्) अतिशय असङ्ख्य पदार्थ बाँटनेवाले (सूरिम्) विद्वान् को (सु) उत्तमता से (आ) सब प्रकार (गृणन्ति) स्वीकार करते हैं, वे (तत्) उस अतुल ऐश्वर्य्य को (सदा) सर्वकाल में प्राप्त होते हैं और जो इन में (अर्यः) स्वामी वा वैश्य होवे, वह इन का उत्तम प्रकार सत्कार कर रक्षा करे ॥३३॥

    भावार्थ

    जो जन क्रिया में निपुण विद्वानों और कारीगरों की प्रशंसा करते हैं, वे असङ्ख्य धन को प्राप्त होकर असङ्ख्य धन देने योग्य होते हैं ॥३३॥ इस सूक्त में राजनीति, धन के जीतनेवाले, मित्रपन, वेद के जाननेवाले, ऐश्वर्य्य से युक्त, दाता, कारीगर और स्वामी के कृत्य का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पैंतालीसवाँ सूक्त और छब्बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    ( तत् वः ) वह ही हमारा ( आर्यः ) उत्तम स्वामी होने योग्य है जिस ( बृबुं ) शत्रुनाशक, संशय, संकट काटने वाले ( सहस्रदातमं ) हजारों के देने वाले और ( सहस्र-सातमं ) सहस्रों के विभाग करने वाले को ( विश्वे कारवः सदा आगृणन्ति ) समस्त विद्वान् जन नित्य आदर से स्तुति करते हैं । इति षड्विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ १-३० इन्द्रः । ३१-३३ बृबुस्तक्षा देवता ।। छन्दः—१, २, ३, ८, १४, २०, २१, २२, २३, २४, २८, ३०, ३२ गायत्री । ४, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १६, १७, १८, १९, २५, २६, २९ निचृद् गायत्री । ५, ६, २७ विराड् गायत्री । ३१ आर्च्यु-ष्णिक । ३३ अनुष्टुप् ॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सहस्त्रदातमं सहस्त्रासातमम्

    पदार्थ

    [१] (नः) = हमारे (विश्वे) = सब (अर्यः) = स्तुतियों के प्रेरक [ईरयितारः] (कारवः) = कुशलता से कार्यों को करनेवाले लोग (सु) = अच्छी प्रकार (सदा) = सदा (तद्-आगृणन्ति) = उस प्रभु का ही स्तवन करते हैं। प्रभु स्तवन ही उन्हें कार्यदक्षता प्राप्त कराता है । [२] उस प्रभु को ये स्तुत करते हैं जो (बृबुम्) = सब अशुभ-वृत्तियों के उच्छेदक हैं। (सहस्त्रदातमम्) = अतिशयेन धनों के देनेवाले हैं। (सूरिम्) = ज्ञानी हैं और (सहस्त्रासातमम्) = हजारों ऐश्वर्यों के प्राप्त करानेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ– कर्त्तव्य कर्मों को करते हुए हम प्रभु का ही स्तवन करें। प्रभु हमारे शत्रुओं के उच्छेदक हैं व शतशः धनों के देनेवाले हैं । अगले सूक्त में भी शंयु ही इन्द्र का स्तवन करते हैं -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक क्रिया कुशल विद्वानांची व कारागिरांची प्रशंसा करतात ते विपुल धन प्राप्त करून असंख्य धन दान देऊ शकतात. ॥ ३३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    All our artists and artisans always appreciate and admire the chief architect, learned, wise and brave, giver of a thousand gifts and sharer of a thousand things with thousands of people. He indeed is the head of our business world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of good education-is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    All those artisans, who praise well from all sides, the Chief artist or artisan, who is giver of thousands of articles and a scholar, who is proper distributor of thousands of articles, always acquire unparalleled wealth. He, who is the master of these artisans and artists should keep them with honor.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those, who admire the learned artists and artisans, who are experts in various activities, attain infinite wealth and are able to give in charity unmeasured wealth.

    Foot Notes

    (कारव:) शिल्पिनः । (कारवः) डुकृञ्-करणे (तना.) अन्न शिल्पकर्त्तारः । = Artists and artisans (बुबुम्) मुख्य शिल्पिनम् । = Chief artist. (सहस्रसातमम्) असंख्यानां पदार्थनामतिशयेन विभक्तारम् । षण-संभक्तौ (भ्वा.) । = Distributor of innumerable articles.

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