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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 48/ मन्त्र 14
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - मरुतो लिङ्गोक्ता वा छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    तं व॒ इन्द्रं॒ न सु॒क्रतुं॒ वरु॑णमिव मा॒यिन॑म्। अ॒र्य॒मणं॒ न म॒न्द्रं सृ॒प्रभो॑जसं॒ विष्णुं॒ न स्तु॑ष आ॒दिशे॑ ॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । वः॒ । इन्द्र॑म् । न । सु॒ऽक्रतु॑म् । वरु॑णम्ऽइव । मा॒यिन॑म् । अ॒र्य॒मण॑म् । न । म॒न्द्रम् । सृ॒प्रऽभो॑जसम् । विष्णु॑म् । न । स्तु॒षे॒ । आ॒ऽदिशे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं व इन्द्रं न सुक्रतुं वरुणमिव मायिनम्। अर्यमणं न मन्द्रं सृप्रभोजसं विष्णुं न स्तुष आदिशे ॥१४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। वः। इन्द्रम्। न। सुऽक्रतुम्। वरुणम्ऽइव। मायिनम्। अर्यमणम्। न। मन्द्रम्। सृप्रऽभोजसम्। विष्णुम्। न। स्तुषे। आऽदिशे ॥१४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 48; मन्त्र » 14
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कं प्रशंसेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वंस्त्वं यमिममिन्द्रं न सुक्रतुं वरुणमिव मायिनमर्यमणं न मन्द्रं विष्णुं सृप्रभोजसं स्तुषे तं व आदिशेऽहं प्रशंसामि ॥१४॥

    पदार्थः

    (तम्) विद्वांसम् (वः) युष्मदर्थम् (इन्द्रम्) विद्युद्वत्तीव्रबुद्धिम् (न) इव (सुक्रतुम्) उत्तमप्रज्ञम् (वरुणमिव) पाशैर्बन्धकं व्याधमिव (मायिनम्) कुत्सितप्रज्ञम् (अर्यमणम्) न्यायेशम् (न) इव (मन्द्रम्) आनन्दप्रदम् (सृप्रभोजसम्) प्राप्तानां पालकं (विष्णुम्) व्यापकं जगदीश्वरम् (न) इव (स्तुषे) प्रशंससि (आदिशे) आज्ञापालनाय ॥१४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सूर्यवद्विद्याप्रकाशकं व्याधवद् दुष्टहिंसकमाप्तवन्न्यायकारिणमीश्वरवत्सर्वपालकं सत्योपदेष्टारं धर्मकारिणं नरं प्रशंसन्ति त एवाऽत्र परीक्षकाः सन्ति ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य किसकी प्रशंसा करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! आप जिस इस (इन्द्रम्) बिजुली के समान तीव्रबुद्धि के (न) समान (सुक्रतुम्) उत्तम बुद्धिवाले (वरुणस्य) वरुण के समान (मायिनम्) कुत्सित बुद्धिवाले वा (अर्यमणम्) न्यायाधिपति के (न) समान (मन्द्रम्) आनन्द देनेवाले (विष्णुम्) व्यापक जगदीश्वर के (न) समान (सृप्रभोजसम्) प्राप्त हुए पदार्थों के पालने की (स्तुषे) प्रशंसा करते हैं (तम्) उसको (वः) तुम लोगों के लिये (आदिशे) आज्ञा पालन के अर्थ मैं उसकी प्रशंसा करता हूँ ॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य्य के समान विद्याप्रकाशक, व्याध के समान दुष्टों के मारनेवाले, आप्त विद्वान् के समान न्याय के करनेवाले, ईश्वर के समान सर्व के पालनेवाले, सत्य के उपदेश करनेवाले तथा धर्म करनेवाले मनुष्य की प्रशंसा करते हैं, वे ही इस संसार में परीक्षा करनेवाले होते हैं ॥१४॥

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    विषय

    इन्द्र का वरुण, विष्णु रूप ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! मैं ( आदिशे) शासन-कार्य करने के लिये (इदं न) विद्युत् के समान (सु-क्रतुं) उत्तम कर्मकुशल, ( वरुणम्) इन सबको आवरण करने में समर्थ जालिया के तुल्य हिंसक के नाशक ( मायिनम्) प्रज्ञावान्, बुद्धिचतुर ( अर्यमणं न ) शत्रुओं को वा मनुष्यों को नियम में बांधने वाले न्यायकारी पुरुष के समान ( मन्द्रं ) अति स्तुत्य, और ( विष्णुं न ) व्यापक सामर्थ्य वाले प्रभु के समान ( सृप्र-भोजसं ) प्राप्त हुए शरणागत की रक्षा करने वाले ( तं ) उस पुरुष की (स्तुपे ) मैं स्तुति करता हूं। ऐसे पुरुष को ही राजपद ग्रहण करने का प्रस्ताव करूं । परमेश्वर पक्ष में–'न' 'च' के अर्थ में है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः। तृणपाणिकं पृश्निसूक्तं ॥ १–१० अग्निः। ११, १२, २०, २१ मरुतः । १३ – १५ मरुतो लिंगोत्का देवता वा । १६ – १९ पूषा । २२ पृश्निर्धावाभूमी वा देवताः ॥ छन्दः – १, ४, ४, १४ बृहती । ३,१९ विराड्बृहती । १०, १२, १७ भुरिग्बृहती । २ आर्ची जगती। १५ निचृदतिजगती । ६, २१ त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६ भुरिग् नुष्टुप् । २० स्वरराडनुष्टुप् । २२ अनुष्टुप् । ११, १६ उष्णिक् । १३, १८ निचृदुष्णिक् ।। द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्राणों की महिमा

    पदार्थ

    [१] (तम्) = उस (वः) = [त्वाम्] तुझ मरुद्गण को (आदिशे) = [अतिसर्जनाय-प्रदानाय] धनों के, ऐश्वर्यों के प्रदान के लिये (स्तुषे) = स्तुत करता हूँ। जो मरुद्गण (न) = जैसे (इन्द्रम्) = सर्वशक्तिमान् है, उसी प्रकार (सुक्रतुम्) = शोभन कर्मोंवाला है। (इव) = जिस प्रकार (वरुणम्) = निद्वेषतावाला है, पापों का निवारण करनेवाला है, उसी प्रकार (मायिनम्) = प्रज्ञावाला है। [२] यह मरुद्गण (अर्यमणं न) = जिस प्रकार काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नियमन करनेवाला है [ऋरीन् यच्छति], उसी प्रकार (मन्द्रम्) = आनन्द को देनेवाला है। यह मरुद्गण (विष्णुं न) = विष्णु के समान है [विष् व्याप्तौ] सारे शरीर में व्याप्त होकर धारण करनेवाला है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से सशक्त बनकर हम उत्तम कर्मोंवाले होते हैं। पापों का निवारण करते हुए प्रज्ञावाले बनते हैं। काम-क्रोध आदि का नियमन करके आनन्द का अनुभव करते हैं। ये प्राण विष्णु के समान धारक हैं। इन्हें धनों के प्रदान के लिये आराधित करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्याप्रमाणे विद्येचा प्रकाश करणारी, व्याधाप्रमाणे दुष्टांना मारणारी, विद्वानांप्रमाणे न्याय करणारी, ईश्वराप्रमाणे सर्वांचे पालन करणारी, सत्याचा उपदेश करणारी, तसेच धार्मिक माणसांची प्रशंसा करणारी असतात तीच या जगात परीक्षा करणारी असतात. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O lovers of knowledge and fast action, for the sake of your guidance and enlightenment, I admire and pay homage to the divine teacher who is the hero of instant good action like Indra, cosmic electric energy, who is versatile and resourceful like Varuna, universal power of judgement and discrimination, who is happy and rejoicing like Aryaman, universal guide, and who provides universal food of delicate flavour like Vishnu, all pervasive preserver and sustainer of the universe.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Whom should men praise-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned men! I also praise that person whom you praise, who is of sharp intellect-like electricity, wise-like the most acceptable best man, giver of joy-like the administrators of justice and nourisher of those, who approach him like the Omnipresent God. I admire such a man to obey him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men who praise a person that is illuminator of knowledge like the sun, just like an absolutely truthful enlightened man and nourisher of all like God, preacher of truth and observer of righteousness, are regarded as true examiners.

    Foot Notes

    (इन्द्रम्) विद्युद्वसीवबुद्धिम् । यद् शनिरिन्द्र स्तेन (कौषीतकी ब्राह्मणे 6-9 )। = Endowed with sharp intellect like electricity. (सुप्रभोजसम् ) प्राप्तानां पालकम् । सृ-गतौ । अत्र गतेस्त्रिष्वर्थेषु प्राप्त्यर्थं ग्रहणाम् । भुज-पालनाभ्यवहारयोः (रु.) अत्र पालनार्थ:। = Nourisher of those who approach him. (आदिशे) आज्ञापालनाय । वृञ-वरणे (स्व.) वरुणाः वरणीय श्रेष्ठ विद्वान् उत्तमो विद्वान् इति दयानन्दर्षि RiG. 1, 25, 10 भाष्ये | = For obeying his commandments or instructions.

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