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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 5/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वं वि॒क्षु प्र॒दिवः॑ सीद आ॒सु क्रत्वा॑ र॒थीर॑भवो॒ वार्या॑णाम्। अत॑ इनोषि विध॒ते चि॑कित्वो॒ व्या॑नु॒षग्जा॑तवेदो॒ वसू॑नि ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । वि॒क्षु । प्र॒ऽदिवः॑ । सी॒द॒ । आ॒सु । क्रत्वा॑ । र॒थीः । अ॒भ॒वः॒ । वार्या॑णाम् । अतः॑ । इ॒नो॒षि॒ । वि॒ध॒ते । चि॒कि॒त्वः॒ । वि । आ॒नु॒षक् । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । वसू॑नि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं विक्षु प्रदिवः सीद आसु क्रत्वा रथीरभवो वार्याणाम्। अत इनोषि विधते चिकित्वो व्यानुषग्जातवेदो वसूनि ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। विक्षु। प्रऽदिवः। सीद। आसु। क्रत्वा। रथीः। अभवः। वार्याणाम्। अतः। इनोषि। विधते। चिकित्वः। वि। आनुषक्। जातऽवेदः। वसूनि ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे चिकित्वो जातवेदो राजन् ! यतस्त्वमानुषक् सन् वसूनि विधते वीनोषि। आसु विक्षु क्रत्वा वार्य्याणां रथीरभवोऽतः प्रदिवस्सीदः ॥३॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (विक्षु) प्रजासु (प्रदिवः) प्रकृष्टस्य प्रकाशस्य मध्ये (सीदः) सीद (आसु) (क्रत्वा) प्रज्ञया (रथीः) बहुरथवान् (अभवः) भवसि (वार्य्याणाम्) स्वीकर्त्तुमर्हाणाम् (अतः) अस्मात् (इनोषि) प्रेरयसि (विधते) सत्कर्त्रे (चिकित्वः) शुद्धबहुप्रज्ञायुक्त (वि) (आनुषक्) योऽनुसजति (जातवेदः) उत्पन्नविज्ञान (वसूनि) धनानि ॥३॥

    भावार्थः

    स एव राजा भवितुमर्हेद्यो राजविद्यां यथावद्विजानीयात् ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (चिकित्वः) शुद्ध बहुत बुद्धि से युक्त और (जातवेदः) उत्पन्न हुआ विज्ञान जिनको ऐसे हे राजन् ! जिस कारण (त्वम्) आप (आनुषक्) सङ्ग करनेवाले होते हुए (वसूनि) धनों की (विधते) सत्कार करनेवाले के लिये (वि, इनोषि) प्रेरणा करते हो और (आसु) इन (विक्षु) प्रजाओं में (क्रत्वा) बुद्धि से (वार्य्याणाम्) स्वीकार करने योग्यों के (रथीः) बहुत रथोंवाले (अभवः) होते हो (अतः) इस कारण से (प्रदिवः) उत्तम प्रकाश के मध्य में (सीदः) स्थित होइये ॥३॥

    भावार्थ

    वही राजा होने के योग्य होवे, जो राजविद्या को अच्छे प्रकार जाने ॥३॥

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    विषय

    उत्तम राजा का वर्णन । उसके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( जातवेदः ) समस्त ऐश्वर्यों के स्वामिन् ! ( त्वं ) तू ( आसु विक्षु ) इन प्रजाओं के बीच में ( क्रत्वा ) अपने ज्ञान और कर्म सामर्थ्य से ( प्रदिवः ) उत्तम २ कामनाओं को (सीद ) प्राप्त कर, उत्तम २ ज्ञानवान् पुरुषों के ऊपर शासक रूप से विराजमान हो । और ( वार्याणाम् ) वरण करने योग्य श्रेष्ठ धनों का ( रथी: ) प्राप्त करने वाला और (वार्याणाम् ) पदाधिकारों के निमित्त चुनने योग्य उत्तम नायकों के बीच में तू ही ( रथीः अभवः ) महारथी के समान उत्तम सेनापति हो । हे ( चिकित्वः ) विद्वन् ! तू (विधते ) सेवा करने वाले भृत्यजन को ( वसूनि ) नाना ऐश्वर्य, (आनुषक्) निरन्तर (वि इनोषि) विविध रूपों से दिया कर । ( अतः ) इसी कारण तू राजा बन ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ४ त्रिष्टुप् । २, ५, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पंक्ति: ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    वसुओं के प्रापक प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (प्रदिवः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले हैं। (आसु विक्षु) = इन प्रजाओं में (सीद) = आप आसीन होते हैं और (क्रत्वा) = यज्ञ के हेतु से (वार्याणाम्) = वरणीय धनों के (रथी: अभवः) = [रंर्हयता] प्रापयिता होने हैं। आप सब प्रजाओं को यज्ञों के हेतु धनों को प्राप्त कराते हैं । [२] (अतः) = इस यज्ञ के हेतु ही, हे (चिकित्व:) = सर्वज्ञ (जातवेदः) = सब धनों [वेद: =धन] के देनेवाले प्रभो! आप (विधते) = पूजा करनेवाले के लिये यज्ञों के द्वारा आप के उपासक के लिये (व्यानुषक्) = निरन्तर (वसूनि) = धनों को (वि इनोषि) = विशेषरूप से प्रेरित करते हैं। यज्ञों के द्वारा उपासकों को यज्ञों के लिये धनों के देनेवाले आप ही हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- यज्ञशील पुरुषों में प्रभु का वास होता है। प्रभु ही इन यज्ञों के लिये धनों को प्राप्त कराते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो राजविद्या चांगल्या प्रकारे जाणतो तोच राजा होण्यायोग्य असतो. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Come you, leading light wrapped in the light of divinity, sit and abide among these people with your knowledge and yajnic action. Be like a chariot harbinger of choice gifts of life. You are wise and you command universal awareness. You know all that is born in existence and, integrated with life and society, you inspire and promote the wealths of the world for the dedicated celebrant.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The aim of achievement by knowledge is described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! endowed with abundant wisdom and knowledge as being agreeable, you convey wealth to a noble person who is engaged in doing good deeds and is respecter of the enlightened men; and you are the master of chariots and sender of desirable objects among these people by your intellect (one who establishes supply line. Ed.). So be always seated in the middle of good light (of knowledge).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    He alone can become a ruler, who knows politics well.

    Foot Notes

    (विधते ) सत्कर्ते । विधेम परिचरणकर्मा (NG 3, 5)। = Respecter of good men and doer of good deeds. (प्रदिव:) प्रकृष्टस्य प्रकाशस्य मध्ये । प्र-दिवुधातोत्यर्थंमादाय प्रकाशस्येति व्याख्या । द्युतिः-प्रकाश: । द्युत-दीप्तौ। = In the middle of the exalted light (of knowledge).

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