ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यो नः॒ सनु॑त्यो अभि॒दास॑दग्ने॒ यो अन्त॑रो मित्रमहो वनु॒ष्यात्। तम॒जरे॑भि॒र्वृष॑भि॒स्तव॒ स्वैस्तपा॑ तपिष्ठ॒ तप॑सा॒ तप॑स्वान् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठयः । नः॒ । सनु॑त्यः । अ॒भि॒ऽदास॑त् । अ॒ग्ने॒ । यः । अन्त॑रः । मि॒त्र॒ऽम॒हः॒ । व॒नु॒ष्यात् । तम् । अ॒जरे॑भिः । वृष॑ऽभिः । तव॑ । स्वैः । तप॑ । त॒पि॒ष्ठ॒ । तप॑सा । तप॑स्वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नः सनुत्यो अभिदासदग्ने यो अन्तरो मित्रमहो वनुष्यात्। तमजरेभिर्वृषभिस्तव स्वैस्तपा तपिष्ठ तपसा तपस्वान् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठयः। नः। सनुत्यः। अभिऽदासत्। अग्ने। यः। अन्तरः। मित्रऽमहः। वनुष्यात्। तम्। अजरेभिः। वृषऽभिः। तव। स्वैः। तप। तपिष्ठ। तपसा। तपस्वान् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्म्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे तपिष्ठ मित्रमहोऽग्ने ! यः सनुत्यो नोऽभिदासद्योऽन्तरो नो वनुष्यात् तमजरेभिर्वृषभिस्तव स्वैः सह तपा तपसा तपस्वान् ॥४॥
पदार्थः
(यः) (न) अस्मान् (सनुत्यः) निर्णितान्तर्हितेषु सिद्धान्तेषु भवः साधुर्वा। सनुतरिति निर्णितान्तर्हितनाम। (निघं०३.२५) (अभिदासत्) अभिक्षियति (अग्ने) विद्वन् (यः) (अन्तरः) भिन्नः (मित्रमहः) महान्ति मित्राणि यस्य तत्सम्बुद्धौ (वनुष्यात्) याचेत (तम्) (अजरेभिः) जरारहितैः (वृषभिः) बलिष्ठैर्युवभिः (तव) (स्वैः) स्वकीयैः (तपा) तापय तपस्वी भव वा (तपिष्ठ) अतिशयेन तप्त (तपसा) ब्रह्मचर्य्यप्राणायामादिकर्म्मणा (तपस्वान्) बहुतपोयुक्तः ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यो युष्मान् याचेत तस्मै सुपात्राय यथाशक्ति देयम्। यश्च पीडयेत्तं पीडयत तपस्विनो भूत्वा धर्म्ममेवाचरत ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (तपिष्ठ) अत्यन्त तप करनेवाले और (मित्रमहः) बड़े मित्रों से युक्त (अग्ने) विद्वन् ! (यः) जो (सनुत्यः) निश्चित अन्तर्हित अर्थात् मध्य के सिद्धान्तों में प्रकट हुआ अथवा श्रेष्ठ (नः) हम लोगों का (अभिदासत्) चारों ओर से नाश करता है और (यः) जो (अन्तरः) भिन्न हम लोगों से (वनुष्यात्) याचना करे (तम्) उसको (अजरेभिः) वृद्धावस्था से रहित (वृषभिः) बलिष्ठ युवा (तव) आपके (स्वैः) अपने जनों के साथ (तपा) तपयुक्त करो वा तपस्वी होओ। और (तपसा) ब्रह्मचर्य और प्राणायामादि कर्म्म से (तपस्वान्) बहुत तपयुक्त हूजिये ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो आप लोगों से याचना करे, उस सुपात्र के लिये यथाशक्ति दान करिये और जो पीड़ा देवे, उसको पीड़ित करो और तपस्वी होकर धर्म का ही आचरण करो ॥४॥
विषय
उत्तम राजा का वर्णन । उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! विद्वन् ! ( यः ) जो ( सनुत्यः ) निश्चित रूप से छुप कर ( नः अभिदासत्) हमारा नाश करे, और ( अन्तरः ) भीतर आकर ( वनुष्यात् ) मारे, (तम् ) उसको ( अजरेभिः ) बलवान् (तव स्वेभिः) तू अपने ही निज् पुरुषों और (अजरेभिः) वृद्धावस्था से रहित (वृषभिः) प्रबन्धक, बलवान् पुरुषों द्वारा (तपसा) अपने सन्तापक सामर्थ्य और तप से ( तप) तपा, सन्तप्त कर और शुद्ध कर । हे ( मित्रमहः ) मित्रों से पूज्य ! मित्रों के पूजक ! बड़े मित्रों वाले ! तू ( तपसा ) तपःसामर्थ्य से स्वयं भी ( तपस्वान् ) तपस्वी होकर ( तप ) तपस्या कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ४ त्रिष्टुप् । २, ५, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पंक्ति: ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
तपस्वान् प्रभु से शत्रु का सन्तप्त [दहन]
पदार्थ
[१] 'काम-वासना' को 'मनसिज' कहते हैं, यह अन्दर ही अन्दर उत्पन्न हो जाती है, छिपकर हमारे अन्दर रह रही है। (यः) = जो (सनुत्यः) = अन्तर्हितरूपेण हमारे अन्दर निवास करती हुई यह वासना (नः) = हमें (अभिदासत्) = उपक्षीण करती है, हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (यः) = जो (अन्तरः) = हमारे अन्दर होती हुई (मित्रमहः) = [प्रमीतेः त्रायते] मृत्यु से बचनेवाले तेज को (वनुष्यात्) = नष्ट करती है। (तम्) = उस वासना को, (तपिष्ठ) = हे शत्रुओं को अतिशयेन सन्तप्त करनेवाले प्रभो ! (तपा) = सन्तप्त करिये। आप (तपसा) = तप से (तपस्वान्) = प्रशस्त दीप्तिवाले हैं। (तव) = आपके (स्वैः) = अपने (अजरेभिः) = न जीर्ण होनेवाले (वृषभिः) = बलों से उस 'सनुत्य - अन्तर' शत्रु को दग्ध करिये ।
भावार्थ
भावार्थ– 'काम' हमारा अन्तः शत्रु है, यह हमारी प्राणशक्ति को विनष्ट करता है। प्रभु अपने तप से इसका दहन करें। हम प्रभु का स्मरण करते हैं, प्रभु हमारे इन शत्रुओं का दहन करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जो तुमची याचना करतो त्या सुपात्रासाठी यथाशक्ती दान द्या व जो त्रास देतो त्याला त्रास द्या. तपस्वी बनून धर्माचे आचरण करा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, O dearest and greatest friend, tempered in the crucibles of austere discipline to the highest degree of intensity, whatever the force or power internal or external, close around or far off which might weaken, attack, injure or destroy us, pray bum up and eliminate by your own essential, unaging, generous and most youthful power of discipline and fire.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O hero of great enduring power ! ○ man of great friends! O highly learned leader! he who attacks or enslaves us secretly pretending to be a good man, burn him with your undecaying sharp and powerful weapons or purify (amend. Ed.) him, so that he may repent for his evil actions. Who ever being an outsider asks for help, give it to a deserved one. You who have led a life of austerity with the observance of Brahmacharya and practice of Pranayama, observe Tapas (penance. Ed.) and go on doing good deeds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! if a man asks you for help, you should render that help to him, in case he deserves it. If a man harms yon, punish him duly. Being ascetics, observe always rules of Dharma or righteousness.
Translator's Notes
In the Bhagavad Gita also Yogi Raj Shrikrishna has enumerated Brahmacharya as शारीरतप् Physical Tapas (austerity) - देवद्विजगुरुप्राज्ञः पूजनं शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ गीता १७. Pranayama comes under mental Tapas आत्मविनिग्रह: - Self-control for which Pranayama is a great help.
Foot Notes
(सनुत्य:) निर्र्णीतान्तर्हितेषु सिद्धान्तेषु भवः साधुर्वा। = Pretending to be a good man and knower of principles. (अभिदासात् ) अभिक्षियति । अभि + दसु — उपक्षये (दिवा० ) | = Harms, attacks, enslaves. (वनुष्यात्) याचेत । वनु + याचने (तभा) । = May beg or ask for a help. (तपसा ) ब्रह्मचर्यं प्राणायामादिकर्मणा । = With the observance of Brahmacharya and practice of Pranayama etc.
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