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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 63/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अरं॑ मे गन्तं॒ हव॑नाया॒स्मै गृ॑णा॒ना यथा॒ पिबा॑थो॒ अन्धः॑। परि॑ ह॒ त्यद्व॒र्तिर्या॑थो रि॒षो न यत्परो॒ नान्त॑रस्तुतु॒र्यात् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अर॑म् । मे॒ । गन्त॑म् । हव॑नाय । अ॒स्मै । गृ॒णा॒ना । यथा॑ । पिबा॑थः । अन्धः॑ । परि॑ । ह॒ । त्यत् । व॒र्तिः । या॒थः॒ । रि॒षः । न । यत् । परः॑ । न । अन्त॑रः । तु॒तु॒र्यात् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरं मे गन्तं हवनायास्मै गृणाना यथा पिबाथो अन्धः। परि ह त्यद्वर्तिर्याथो रिषो न यत्परो नान्तरस्तुतुर्यात् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरम्। मे। गन्तम्। हवनाय। अस्मै। गृणाना। यथा। पिबाथः। अन्धः। परि। ह। त्यत्। वर्तिः। याथः। रिषः। न। यत्। परः। न। अन्तरः। तुतुर्यात् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 63; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ किं कुर्य्यातामित्याह ॥

    अन्वयः

    हे सभासेनेशौ ! युवां त्यद्वर्त्तिः परि याथो यद्यत्र ह परोऽन्तरो रिषो न कंचिन्न तुतुर्याद्यथा मेऽस्मै हवनायाऽरं गन्तं तथा गृणाना सन्तावन्धः पिबाथः ॥२॥

    पदार्थः

    (अरम्) अलम् (मे) मम (गन्तम्) गच्छतम् (हवनाय) आदानाय (अस्मै) (गृणाना) स्तुवन्तौ (यथा) (पिबाथः) पिबतम् (अन्धः) रसम् (परि) (ह) प्रसिद्धम् (त्यत्) तम् (वर्तिः) मार्गम् (याथः) (रिषः) हिंसकाः (न) इव (यत्) यत्र (परः) शत्रुः (न) निषेधे (अन्तरः) भिन्नः (तुतुर्यात्) हिंस्यात् ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। राजजनैस्तथा प्रबन्धः क्रियेत यथा मार्गेषु कश्चिदपि चोरः शत्रुश्च कञ्चिदपि न पीडयेत् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे सभासेनाधीशो ! तुम (त्यत्) उस (वर्त्तिः) मार्ग को (परि, याथः) सब ओर से जाते हो (यत्, ह) जिसमें (परः) शत्रुजन (अन्तरः) भिन्न (रिषः) हिंसकों के (न) समान किसी को (न)(तुतुर्यात्) मारे (यथा) जैसे (मे) मेरे (अस्मै) इस (हवनाय) ग्रहण के लिये (अरम्) पूर्णतया (गन्तम्) जाओ, वैसे (गृणाना) स्तुति करनेवाले होते हुए (अन्धः) रस को (पिबाथः) पिओ ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजजनों से वैसा प्रबन्ध किया जाये, जैसे मार्गों में कोई भी चोर और शत्रु किसी को पीड़ा न दे ॥२॥

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    विषय

    स्त्री पुरुषों के सत् कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! ( मे अस्मै ) इस मुझ जन के उपकार के लिये आप दोनों (मे हवनाय) मेरे आह्वान या मेरे किये सत्कार को स्वीकार करने के लिये ( गृणाना ) उत्तम वचन कहते हुए ( यथा ) जब भी ( अरं गन्तम् ) अच्छी प्रकार आइये तो ( अन्धः पिबाथः ) अन्न का अवश्य भोजन करिये और आप दोनों (त्यद् वर्त्तिः परियाथः) उस उत्तम मार्ग में सदा गमन करें (यत् परः न ) जिससे जाने से न दूसरा शत्रुजन और (न अन्तरः) न अपना अन्तरंग, समीपवर्त्ती जन भी ( तुतुर्यात् ) अपने पर प्रहार करें। अथवा (वर्त्तिः परियाथः) आप लोग ऐसे व्यवहार करें वा ऐसे गृह में जावें या रहा करें जिससे अपना, पराया भी हानि न पहुंचा सके ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १ स्वराड्बृहती । २, ४, ६, ७ पंक्ति:॥ ३, १० भुरिक पंक्ति ८ स्वराट् पंक्तिः। ११ आसुरी पंक्तिः॥ ५, ९ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'न परः न आन्तर: ' रिष: [तुतुर्यात्]

    पदार्थ

    [१] हे अश्विनी देवो, प्राणापानो! (मे) = मेरे (अस्मै) = इस (हवनाय) = पुकार के लिये (अरंगन्तम्) = पर्याप्तरूप से प्राप्त होवो । इस प्रकार प्राप्त होवो, (यथा) = जैसे (गृणाना) = स्तुति किये जाते हुये आप (अन्धः पिबाथः) = सोमरूप अन्न का पान करते हो। हम प्राणसाधना करते हैं, तो शरीर में सोम की ऊर्ध्वगति होती है। यही इनका सोमपान है । [२] इस प्रकार सोम-रक्षण करते हुए आप (ह) = निश्चय से (त्यद् वर्तिः) = उस शरीरगृह को (परियाथः) = चारों ओर से प्राप्त होते हो। चारों ओर से आप इसका रक्षण करते हो। इस लिये प्राप्त होते हो (यत्) = कि (न परः रिषः) = न तो बाह्य शत्रु [रिष्+क, रेषति इति] (न आन्तरः) = और नां ही अन्दर का शत्रु (तुतुर्यात्) = इसे हिंसित करे । यह रोगों व वासनाओं का शिकार न हो जाये।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्राणसाधना सोमरक्षण के द्वारा रोगों वासनाओं के आक्रमण से इस शरीर को बचाती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजजनांनी अशी व्यवस्था केली पाहिजे की, वाटेत जाताना चोर व शत्रूंचा त्रास होऊ नये. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Come well and happy in response to this invitation of mine and, revered and adored, drink the nectar sweets offered. Pray come by the path and to the home where no adversary far or near within may hurt us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should they do is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Council of Ministers and Commander-in-Chief of the army! you tread upon that path where neither a violent enemy nor any one else can cause trouble (to travelers). As you come here accepting my invitation, so glorifying God, drink the juice of invigorating plants and herbs etc.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The officers of the State should make such arrangements that no thief or enemy may cause trouble to any one on the way to their destination.

    Foot Notes

    (अन्ध:) रसम् । अन्धः इत्यन्ननाम (NG 2, 7) अन्नान्नसम्बन्धेन रसस्य गृहणम् अंधत इत्यन्नम् । अन्धसस्यत इति सोमस्य यत इत्येतत् (रसः सोम: S. Br. 7, 3, 1, 3; S. Br. 9, 1, 1, 24 ) Juice. (रिषः) हिंसका । रिण-हिन्सायाम्। = Violent person. (तुतुर्यात्) हिन्स्यात्। तूरी-गतित्वद हिन्सनयो: (दिवः) अत्र हिन्सन्तर्थः = May cause trouble, may slay.

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