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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 63/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अधि॑ श्रि॒ये दु॑हि॒ता सूर्य॑स्य॒ रथं॑ तस्थौ पुरुभुजा श॒तोति॑म्। प्र मा॒याभि॑र्मायिना भूत॒मत्र॒ नरा॑ नृतू॒ जनि॑मन्य॒ज्ञिया॑नाम् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अधि॑ । श्रि॒ये । दु॒हि॒ता । सूर्य॑स्य । रथ॑म् । त॒स्थौ॒ । पु॒रु॒ऽभु॒जा॒ । श॒तऽऊ॑तिम् । प्र । मा॒याभिः॑ । मा॒यि॒ना॒ । भू॒त॒म् । अत्र॑ । नरा॑ । नृ॒तू॒ इति॑ । जनि॑मन् । य॒ज्ञिया॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधि श्रिये दुहिता सूर्यस्य रथं तस्थौ पुरुभुजा शतोतिम्। प्र मायाभिर्मायिना भूतमत्र नरा नृतू जनिमन्यज्ञियानाम् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अधि। श्रिये। दुहिता। सूर्यस्य। रथम्। तस्थौ। पुरुऽभुजा। शतऽऊतिम्। प्र। मायाभिः। मायिना। भूतम्। अत्र। नरा। नृतू इति। जनिमन्। यज्ञियानाम् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 63; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ किंवत्कीदृशौ भवेतामित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मायिना पुरुभुजा नृतू नरा राजसभासेनेशौ ! युवां मायाभिरत्र यज्ञियानां जनिमन् यथा सूर्य्यस्य दुहिता शतोतिं रथमधि तस्थौ तथा श्रिये प्र भूतम् ॥५॥

    पदार्थः

    (अधि) उपरि (श्रिये) शोभायै लक्ष्म्यै वा (दुहिता) दुहिते वोषा (सूर्य्यस्य) (रथम्) रमणीयं किरणम् (तस्थौ) तिष्ठति। (पुरुभुजा) बहूनां पालकौ (शतोतिम्) शतान्यूतयो येन तम् (प्र) (मायाभिः) प्रज्ञाभिः (मायिना) प्राज्ञौ (भूतम्) भवेतम् (अत्र) अस्मिन् (नरा) नायकौ (नृतू) नेतारौ (जनिमन्) जन्मनि (यज्ञियानाम्) सत्सङ्गतिमर्हाणाम् ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। य उषर्वद् यानादिसाधनै राज्यश्रीप्राप्तये विदुषां विद्याजन्मानि कारयन्ति तेऽसङ्ख्यां रक्षां प्राप्यात्र जगत्यधिष्ठातारो जायन्ते ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे किसके समान कैसे हों, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मायिना) प्राज्ञ (पुरुभुजा) बहुतों की पालना करनेवाले (नृतू) अग्रगन्ता (नरा) नायक राजसभा-सेनाधीशो ! तुम (मायाभिः) बुद्धियों से (अत्र) इस (यज्ञियानाम्) सत्सङ्गति के योग्य मनुष्यों के (जनिमन्) जन्म में जैसे (सूर्य्यस्य) सूर्य की (दुहिता) पुत्री के समान उषा (शतोतिम्) जिससे सैकड़ों रक्षायें होती उस (रथम्) रमणीय किरण के (अधि, तस्थौ) ऊपर स्थित होती, वैसे (श्रिये) शोभा वा लक्ष्मी के लिये (प्र, भूतम्) समर्थ होओ ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो उषा के समान यानादि साधनों से राज्यश्री की प्राप्ति के लिये विद्वानों के विद्याजन्म को कराते हैं, वे असङ्ख्य रक्षा को प्राप्त होके इस जगत् में अधिष्ठाता होते हैं ॥५॥

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    विषय

    उषावत् कन्या का वर्णन।

    भावार्थ

    ( सूर्यस्य दुहिता) सूर्य की पुत्री, उषा वा प्रभातवेला, जिस प्रकार सूर्य के ( रथं ) रमणीय या वेगयुक्त ( शत-ऊतिम् ) सैकड़ों दीप्तियुक्त विम्ब पर ( श्रिये ) शोभा वृद्धि के लिये विराजती है उसी प्रकार ( सूर्यस्य ) उत्तम विद्वान् तेजस्वी पिता की ( दुहिता ) दूर देश में जाकर विवाह करने वाली कन्या ( शत-ऊतिम् ) सैकड़ों दीप्तियों अस्त्र शस्त्र रक्षा साधनों तथा ( शत-ऊतिम्) सैकड़ों उत्तम भोगों से युक्त ( रथं ) सुन्दर रमण योग्य, सुखप्रद आश्रय पर शोभा वृद्धि के लिये रथवत् ही ( अधि तस्थौ ) विराजे। इसी प्रकार वह कन्या ( शत-ऊतिम् ) सैकड़ों रक्षा साधनों से सम्पन्न ( रथं ) रमण करने योग्य पुरुष को ( श्रिये अधि तस्थौ ) प्राप्त कर उसके आश्रय या सेवा करने के निमित्त, निर्भय होकर रहे । हे ( पुरु-भुजा ) बहुत से भोग और प्रजापालनादि कुशल तुम दोनों ! ( अत्र ) इस लोक वा आश्रम में ही आप दोनों ( माया भिः ) नाना बुद्धियों से सम्पन्न होकर ( मायिना भूतम् ) उत्तम बुद्धिमान् हो जाओ ! आप दोनों (नरा ) उत्तम नायक, ( यज्ञियानां ) यज्ञयोग्य, सत्कारपात्र पुरुषों के बीच में (जनिमन् ) इस नवीन जन्म ग्रहण के अवसर पर ( नृतू भूतम् ) अति हर्ष युक्त, सदा आनन्द, सुप्रसन्न रहो । इति तृतीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १ स्वराड्बृहती । २, ४, ६, ७ पंक्ति:॥ ३, १० भुरिक पंक्ति ८ स्वराट् पंक्तिः। ११ आसुरी पंक्तिः॥ ५, ९ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    पुरुभुजा-नरा-नृतू

    पदार्थ

    [१] हे (पुरुभुजा) = खूब ही पालन करनेवाले प्राणापानो! आपके इस (शतोतिम्) = शतवर्ष तक सुरक्षित रहनेवाले (रथम्) = शरीर-रथ को (सूर्यस्य दुहिता) = सूर्य की पुत्री, ज्ञानसूर्य का हमारे में पूरण करनेवाली यह वेदवाणी (श्रिये) = शोभा के लिये (अधितस्थौ) = अधिष्ठित करती है। प्राणसाधना से शरीर सौ वर्ष तक ठीक चलता है और यह ज्ञान के प्रकाश से युक्त होता है। [२] हे प्राणापानो ! आप (अत्र) = इस शरीर-रथ में (मायाभिः) = प्रज्ञाओं से (मायिना) = प्रकृष्ट प्रज्ञानवाले (भूतम्) = होइये । हे (नृतू) = इस जीवन नृत्य को करानेवाले प्राणापानो! आप (यज्ञियानाम्) = सब संगतिकरण योग्य दिव्य भावनाओं के (जनिमन्) = प्रादुर्भाव के निमित्त (नरा) = हमें आगे ले चलनेवाले होवो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना के होने पर [क] शरीर सौ वर्ष तक सुरक्षित रहता है, [ख] यह वेदवाणी का अधिष्ठान बनता है, [ग] बुद्धि तीव्र होती है, [घ] दिव्य भावों का विकास होता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे तेजस्वी उषेप्रमाणे यान इत्यादी साधनांनी राज्यश्रीच्या प्राप्तीसाठी विद्वानांकडून विद्याजन्म प्राप्त करून घेतात त्यांचे अखंड रक्षण होते व ते या जगाचे अधिष्ठाते बनतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as the dawn, off spring of the sun, rides the radiant chariot of light with a hundred gifts of beauty and grace, similarly, O twin divines of nature, leaders of humanity, sustainers of many, lords of vision and power, come hither with all your gifts of light and graces and be inspirers of humanity in the life of revered performers of sacred acts of yajnic creation.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should they be and like whom is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Council of Ministers and the Commander-in-Chief of the army! you who are wise, nourishers of many and great leaders, as Usha (Dawn) the daughter of the sun mounts on the charming ray of the sun in the same manner, which has hundreds of protecting powers in the birth (in knowledge) of the persons, who are worthy of association be helpers by your wise acts for the beauty or wealth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those, who, like the dawn, help in the manifestation of the scholars in the divine birth in wisdom, for the attainment of the regal wealth and beauty by various useful vehicles, become masters in the world having obtained unlimited protection.

    Translator's Notes

    It is very wrong and even mischievous on the part of Griffith to translate मायितोभिः as magicians and मायाभिः as magic arts. Prof Wilson's translation as leaders and guides' is better. माया does not mean magic arts but wisdom as the Vedic lexicon Nighantu expressly states मायेति प्रज्ञानम (NG 3, 9)। Rishi Dayananda Saraswat's interpretation of मायिन्ना as प्राज्ञै (wise) and मायाभि: as प्रज्ञाभि: or actions of wisdom is quite appropriate and in accordance with the Vedic lexicon. It is regrettable that some of the western scholars have been obsessed with the idea of finding polytheism and magic in the Vedas.

    Foot Notes

    (पुरुभुजा) बहूनां पालकौ । भुज-पालनाभ्यवहारयोः (रु.) अत्र पालनार्थ: = Nourishers of many. (मायिना) प्राज्ञौ । मायेति प्रज्ञानाम (NG 3, 9 ) = Wise. (रथम्) रमणीय किरणम् । रथे रहतेगंति कर्मणः रममाणो ऽस्मिं स्तिष्ठतीति वा (NICT 9, 2, 11 ) = Charming ray. (दुहिता) दुहिते वोषा । = Dawn like the daughter of the sun.

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