ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 64/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - उषाः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
भ॒द्रा द॑दृक्ष उर्वि॒या वि भा॒स्युत्ते॑ शो॒चिर्भा॒नवो॒ द्याम॑पप्तन्। आ॒विर्वक्षः॑ कृणुषे शु॒म्भमा॒नोषो॑ देवि॒ रोच॑माना॒ महो॑भिः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठभ॒द्रा । द॒दृ॒क्षे॒ । उ॒र्वि॒या । वि । भा॒सि॒ । उत् । ते॒ । शो॒चिः । भा॒नवः॑ । द्याम् । अ॒प॒प्त॒न् । आ॒विः । वक्षः॑ । कृ॒णु॒षे॒ । शु॒म्भमा॑ना । उषः॑ । दे॒वि॒ । रोच॑माना । महः॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
भद्रा ददृक्ष उर्विया वि भास्युत्ते शोचिर्भानवो द्यामपप्तन्। आविर्वक्षः कृणुषे शुम्भमानोषो देवि रोचमाना महोभिः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठभद्रा। ददृक्षे। उर्विया। वि। भासि। उत्। ते। शोचिः। भानवः। द्याम्। अपप्तन्। आविः। वक्षः। कृणुषे। शुम्भमाना। उषः। देवि। रोचमाना। महःऽभिः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 64; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सा कीदृशी भवेदित्याह ॥
अन्वयः
हे उषर्वद्वर्त्तमाने देवि ! यतस्त्वं भद्रा दृदृक्ष उर्विया सती गृहकृत्यान्युद्वि भासि यस्यास्ते शोचिर्भानवो द्यामपप्तन्निव वक्ष आविष्कृणुषे महोभिः शुम्भमाना रोचमाना सती सुखं प्रयच्छसि तस्मात् संपूज्यासि ॥२॥
पदार्थः
(भद्रा) कल्याणकारिणी (ददृक्षे) दृश्यते (उर्विया) बहुरूपा (वि) (भासि) (उत्) (ते) तव (शोचिः) (भानवः) किरणाः (द्याम्) अन्तरिक्षम् (अपप्तन्) पतन्ति गच्छन्ति (आविः) प्राकट्ये (वक्षः) वक्षःस्थलम् (कृणुषे) (शुम्भमाना) सुशोभायुक्ता (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (देवि) विदुषि (रोचमाना) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमाना (महोभिः) महद्भिः शुभैर्गुणकर्मस्वभावैः ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे स्त्रियो ! यूयं चातुर्येण सर्वान् पत्यादीन् सन्तोष्य गृहकृत्यानि यथावदनुष्ठायातिविषयासक्तिं विहाय सुशोभा भूत्वा सदैव पुरुषार्थेन धर्मकृत्यानि सूर्य्यवत्प्रकाशयत ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसी हो, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (उषः) प्रभातवेला के समान वर्त्तमान (देवि) विदुषी ! जिससे तू (भद्रा) कल्याणकारिणी (ददृक्षे) देखी जाती है तथा (उर्विया) बहुरूप हुई घर के कामों को (उत्, वि, भासि) विशेषकर उत्तम प्रकाश करती है जिस (ते) तेरी (शोचिः) उत्तम नीति का प्रकाश (भानवः) किरणें जैसे (द्याम्) अन्तरिक्ष को (अपप्तन्) जातीं प्राप्त होतीं, वैसे (वक्षः) छाती का (आविः, कृणुषे) प्रकाश करती है वा (महोभिः) महान् शुभ गुणकर्म स्वभावों से (शुम्भमाना) सुन्दर शोभायुक्त और (रोचमाना) विद्या और विनय से प्रकाशित होती हुई सुख देती है, इससे अच्छे प्रकार सत्कार करने योग्य है ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे स्त्रियो ! तुम चतुरता से सब पति आदि को सन्तोष देकर, घर के कामों को यथावत् अनुष्ठान कर, अतिविषयासक्ति को छोड़ और सुन्दर शोभायुक्त होकर सदैव पुरुषार्थ से धर्मयुक्त कामों को सूर्य के समान प्रकाशित करो ॥२॥
विषय
उषा के दृष्टान्त से वरवर्णिनी वधू और विदुषी स्त्री के कर्त्तव्य
भावार्थ
हे ( उष: देवि ) प्रभात वेला वा उषा के समान कान्तिमति देवि ! पति की कामना करने हारी विदुषि! तू ( भद्रा ) कल्याणकारिणी सोम्य वंश वा स्वभाव वाली ( ददृशे ) दीखा कर, वेश और आकार प्रकार से उत्तम, स्वरूप दिखाई दे । ( उर्विया ) बहुत महत्वयुक्त, उत्तम गुणों से प्रकाशित हो, और बहुत से गुणों को प्रकाशित कर ( ते ) तेरी (शोचिः) शुद्ध ( भानवः ) कान्तियोंवत् कामनाएं ( द्याम् ) तेरी कामना करने वाले तेजस्वी पुरुष को ( उत् अपप्तन् ) उत्तम रीति से प्राप्त हों । तू ( शुम्भमाना ) सुशोभित होकर ( वक्षः ) अपना स्वरूप और उत्तम वचन एवं गृहस्थ के बहुत सामर्थ्य को (आविः कृणुपे ) प्रकट कर । हे ( देवि ) विदुषि ! तू ( महोभिः ) बड़े उत्तम २ गुणों से (रोचमाना) सबको प्रिय लगती हुई विराज ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः – १, २, ६ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ४ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ पंक्ति: ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
विषय
रोचमाना-महोभिः शुम्भमाना
पदार्थ
[१] हे उषे! तू (भद्रा) = कल्याण करनेवाली (ददृक्षे) = दिखती है। (उर्विया विभासि) = खूब विस्तीर्ण हुई हुई चमकती है । (ते) = तेरी (शोचिः) = दीप्ति व (भानवः) = दीप्यमान रश्मियाँ (द्यां उद् अपप्तन्) = सम्पूर्ण अन्तरिक्ष में गतिवाली होती हैं । [२] हे (उषः देवि) = प्रकाशमति उषे! तू (महोभिः रोचमाना) = तेजों से दीप्त होती हुई व (शुम्भमाना) = शोभा को प्राप्त होती हुई (वक्षः) = अपने दीप्त रूप को (आविः कृणुषे) = प्रकट करती है ।
भावार्थ
भावार्थ- उषा कल्याणमयी विस्तृत दीप्त व शोभमान होती हुई अपने दिव्य रूप को प्रकट करती है ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे स्त्रियांनो ! तुम्ही चतुरतेने पती इत्यादींना संतुष्ट करून गृहकृत्ये व्यवस्थित करा. अति विषयासक्तीचा त्याग करा. सुंदर व शोभिवंत बनून सदैव पुरुषार्थाने धर्मयुक्त कार्यात सूर्याप्रमाणे प्रकाशित व्हा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Excellent and blissful you look and shine along the wide earth, the pure bright rays of light rising to heaven. O refulgent lady of morning divinity, graceful with the beauty and dignity of holiness, you reveal the heart and love of your bosom by the light apparel you wear.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Of what kind should a woman be- is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned lady! you who are like the dawn, you are worthy of veneration as you are auspicious and very good. You illumine all domestic duties, being of various forms. Far shines your luster. Like the rays of the sun going to the heaven, your luster goes up. You manifest your bosom, shining in majesty with knowledge and humility. You bestow happiness upon us shining by your great and noble virtues, actions and temperament.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O women! you should keep your husbands and others satisfied with cleverness, discharging your domestic duties properly, giving up attachment to passions, being graceful illuminate like the sun the duties regarding your homes with diligence.
Foot Notes
(रोचमाना) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमाना |= Shining with knowledge and humility (महोभि:) महदिभः शुभैगुंणकर्म स्वभावः। = with great and good virtues, actions, and temperament.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal