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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 64/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - उषाः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    सा व॑ह॒ योक्षभि॒रवा॒तोषो॒ वरं॒ वह॑सि॒ जोष॒मनु॑। त्वं दि॑वो दुहित॒र्या ह॑ दे॒वी पू॒र्वहू॑तौ मं॒हना॑ दर्श॒ता भूः॑ ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा । आ । व॒ह॒ । या । उ॒क्षऽभिः॑ । अवा॑ता । उषः॑ । वर॑म् । वह॑सि । जोष॑म् । अनु॑ । त्वम् । दि॒वः॒ । दु॒हि॒तः॒ । या । ह॒ । दे॒वी । पू॒र्वऽहू॑तौ । मं॒हना॑ । द॒र्श॒ता । भूः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सा वह योक्षभिरवातोषो वरं वहसि जोषमनु। त्वं दिवो दुहितर्या ह देवी पूर्वहूतौ मंहना दर्शता भूः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सा। आ। वह। या। उक्षऽभिः। अवाता। उषः। वरम्। वहसि। जोषम्। अनु। त्वम्। दिवः। दुहितः। या। ह। देवी। पूर्वऽहूतौ। मंहना। दर्शता। भूः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 64; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ स्त्रीपुरुषौ कथं वर्त्तेयातामित्याह ॥

    अन्वयः

    हे दिवो दुहितरुषर्वद्वर्त्तमाने भद्रानने ! याऽवातोक्षभिर्युक्तं वरं जोषमनु त्वं वहसि सा मां पतिमा वह या ह पूर्वहूतौ मंहना दर्शता देवी त्वं भूः सा मम प्रिया भव ॥५॥

    पदार्थः

    (सा) (आ) (वह) समन्तात्प्राप्नोतु (या) (उक्षभिः) वीर्यसेचकैः (अवाता) वायुविरहा (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (वरम्) श्रेष्ठं पतिम् (वहसि) प्राप्नोषि (जोषम्) प्रीतम् (अनु) (त्वम्) (दिवः) सूर्यस्य (दुहितः) कन्येव वर्त्तमाना (या) (ह) किल (देवी) विदुषी (पूर्वहूतौ) पूर्वेषां सत्कर्त्तव्यानां वृद्धानामाह्वाने (मंहना) पूजनीया (दर्शता) द्रष्टव्या (भूः) भवेः ॥५॥

    भावार्थः

    यथोषा रात्रिमनुवर्त्तमाना नियमेन स्वकृत्यं करोति तथैव नियता सती स्त्री स्वगृहकृत्यानि कुर्यात्। ब्रह्मचर्यानन्तरं हृद्यं पतिमूढ्वा प्रसन्ना सती पतिं सततं प्रसादयेत्। एवमेव पतिरपि तामनुव्रतां सदैवानन्दयेत् ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे स्त्री-पुरुष कैसे वर्त्ताव वर्त्तें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (दिवः) सूर्य की (दुहितः) कन्या के तुल्य तथा (उषः) उषा प्रभातवेला के समान वर्त्तमान श्रेष्ठ मुखवाली ! (या) जो (अवाता) वायुरहित (उक्षभिः) वीर्यसेचकों से युक्त (वरम्) श्रेष्ठ (जोषम्) प्रीति से चाहे हुए पति को (अनु) अनुकूलता से (त्वम्) तू (वहसि) प्राप्त होती (सा) वह मुझ पति को (आ, वह) सब ओर से प्राप्त हो (या) जो (ह) ही (पूर्वहूतौ) पूर्व सत्कार करने योग्यों के आह्वान के निमित्त (मंहना) सत्कार करने और (दर्शता) देखने योग्य (देवी) विदुषी तू (भूः) हो सो मेरी प्रिया स्त्री हो ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे उषा रात्रि के अनुकूल वर्त्तमान नियम से अपने काम को करती है, वैसे ही नियमयुक्त स्त्री अपने घर के कामों को करे तथा ब्रह्मचर्य के अनन्तर अपने मन के प्यारे पति को विवाह कर प्रसन्न होती हुई पति को निरन्तर प्रसन्न करे, ऐसे ही पति भी उस अनुकूल आचरण करनेवाली को सदैव आनन्दित करे ॥५॥

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    विषय

    उषा के दृष्टान्त से वरवर्णिनी वधू और विदुषी स्त्री के कर्त्तव्य

    भावार्थ

    हे ( उषः ) कमनीय कान्ति वाली, सुकुमारि ! तू ( या ह ) जो निश्चय से ( देवी ) पति की कामना करती हुई ( अवाता ) किसी को प्राप्त न होकर, अनन्यपूर्वा होकर (जोषम् अनु ) अपने प्रेम के अनुसार ( वरं ) अपने वरण करने योग्य वर पुरुष के साथ ( आवहसि ) विवाह करती है, और (या ह) जो तू ( देवी ) शुभ गुणों से युक्त होकर (पूर्वहूतौ) द्यथम वार के दान और प्रथमवार के स्वीकार करने के अवसर में ( मंहना ) अति पूज्य एवं आदरणीय और ( दर्शता ) दर्शनीय (भू:) होती है । ( त्वं ) तू हे (दिवः दुहितः) सूर्य की कन्या या पति की कामना पूर्ण करने हारी विदुषि ! (सा) वह तू ( उक्षभिः आ वह ) सेचन समर्थ दृढ अंगों से, बैलों से शकटवत् गृहस्थ भार को धारण कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः – १, २, ६ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ४ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ पंक्ति: ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    'मंहना दर्शता' उषा

    पदार्थ

    [१] हे (उषः) = उषा देवि ! (सा) = वह तू (आवह) = हमें प्राप्त हो, (या) = जो तू (उक्षभिः अवाता) = इन्द्रियाश्वों से गतिवाली न होती हुई, अर्थात् स्थिर इन्द्रियोंवाली होती हुई (जोषं अनु) = प्रीतिपूर्वक प्रभु की उपासना के अनुसार (वरं वहसि) = उत्कृष्ट धन को प्राप्त कराती है। हम प्रातः उठें। उठते ही हमारे ये इन्द्रिय रूप बैल [व अश्व] इधर-उधर भटकने न लगें। स्थिर इन्द्रियोंवाले होकर हम प्रभु उपासना में प्रवृत्त हों। यही उत्कृष्ट ऐश्वर्य को प्राप्त करने का मार्ग है। [२] हे (दिवः दुहित:) = ज्ञान का पूरण करनेवाली उषे! (या त्वम्) = जो तू (ह) = निश्चय से (पूर्वहूतौ) = प्रातः कालीन प्रार्थना में (देवी) = प्रकाशमयी होती है, वह तू (मंहना) = उत्कृष्ट ऐश्वर्यों को देनेवाली व (दर्शता) = दर्शनीय (भू:) = होती है। हम प्रातः उठकर प्रभु का पूजन करें। यही जीवन को ऐश्वर्यमय व सुन्दर बनाने का मार्ग है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रातः काल उठते ही इन्द्रियों को विषय प्रवृत्त होने से रोकें। प्रभु-पूजन करते हुए उत्कृष्ट ऐश्वर्यों को प्राप्त करें व सुन्दर जीवनवाले बनें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी उषा रात्रीच्या अनुकूल नियमानुसार आपले कार्य करते तसेच स्त्रीने नियमानुसार आपली गृहकृत्ये करावीत. ब्रह्मचर्यानंतर हृद्य पती स्वीकारून त्याच्याशी विवाह करावा. तसेच पतीनेही आपले अनुकूल आचरण करणाऱ्या स्त्रीला सदैव आनंदी ठेवावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O dawn, you who rise with the love and excellence of your heart’s desire freely without the obstruction of even a whiff of air, come and bless us with the virilities and fertilities of the world. You, O child of heavenly light, brilliant and generous, be comely and gracious with all your glory at the first invocation of the day’s opening yajna.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should husbands and wives deal with one another-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O woman! you who are like the dawn- daughter of the sun, you being free from unsteadiness like the wind, marry a good husband who is full of virile virtues, so lovingly approach him and lead him to happiness. Be always his beloved you who on the call of the elderly venerable persons are worthy of respect and worth seeing.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the dawn coming after night does discharge God ordained duties, so a woman being-self controlled regular and punctual should discharge her domestic duties well. Marrying after the completion of Brahmacharya (abstinence). Let her please her husband constantly, being always cheerful, in the same manner, the husband should always please her, who is chaste and follows him in the performance of sacred duties.

    Translator's Notes

    अवात has been interpreted in translation as वायुरहित as an epithet for a wife, which is not clear. In our opinion, it means free from the un-steadiness of the wind. It may also mean free from the diseases of the wind.

    Foot Notes

    (उक्षभिः) वीर्यसेचकैः । उक्ष-सेचने । (भ्वा.) = In virile virtues. (पूर्वहूतौ)पूर्वेषां सत्कर्त्तव्यानां वृद्धानामाह्वाने।ह्वेम् स्पद्वाषां (भ्वा) = On the call of the elderly venerable persons.

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