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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 45/ मन्त्र 3
स घा॑ नो दे॒वः स॑वि॒ता स॒हावा सा॑विष॒द्वसु॑पति॒र्वसू॑नि। वि॒श्रय॑माणो अ॒मति॑मुरू॒चीं म॑र्त॒भोज॑न॒मध॑ रासते नः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठसः । घ॒ । नः॒ । दे॒वः । स॒वि॒ता । स॒हऽवा॑ । आ । सा॒वि॒ष॒त् । वसु॑ऽपतिः । वसू॑नि । वि॒ऽश्रय॑माणः । अ॒मति॑म् । उ॒रू॒चीम् । म॒र्त॒ऽभोज॑नम् । अध॑ । रा॒स॒ते॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स घा नो देवः सविता सहावा साविषद्वसुपतिर्वसूनि। विश्रयमाणो अमतिमुरूचीं मर्तभोजनमध रासते नः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठसः। घ। नः। देवः। सविता। सहऽवा। आ। साविषत्। वसुऽपतिः। वसूनि। विऽश्रयमाणः। अमतिम्। उरूचीम्। मर्तऽभोजनम्। अध। रासते। नः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 45; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
यो वसुपतिरुरूचीममतिं विश्रयमाणो नो मर्तभोजनं रासते स घाश्च सविता सहावा देवो नो वसून्या साविषत् ॥३॥
पदार्थः
(सः) (घा) एव। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (नः) अस्मान् (देवः) कमनीयः (सविता) ऐश्वर्यवान् सूर्यवत्प्रकाशमानः (सहावा) यः सहैव वनति संभजति (आ) समन्तात् (साविषत्) सुवेत् (वसुपतिः) धनपालकः (वसूनि) धनानि (विश्रयमाणः) (अमतिम्) सुन्दरं रूपम्। अमतिरिति रूपनाम। (निघं०३.७)। (उरूचीम्) उरूणि बहूनि वस्तून्यञ्चन्तीम् (मर्तभोजनम्) मर्त्येभ्यो भोजनं मर्तभोजनम् मनुष्याणां पालनं वा (अध) अथ (रासते) ददाति (नः) अस्मभ्यम् ॥३॥
भावार्थः
ये मनुष्याः सूर्यवत्सर्वेषां धनानि वर्धयित्वा सुपात्रेभ्यः प्रयच्छन्ति ते धनपतयो भवन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (वसुपतिः) धनों की पालना करनेवाला (उरूचीम्) बहुतों वस्तुओं को प्राप्त होता और (अमतिम्) सुन्दररूप को (विश्रयमाणः) विशेष सेवन करता हुआ (नः) हम लोगों को (मर्तभोजनम्) मनुष्यों का हितकारक भोजन व मनुष्यों का पालन (रासते) देता है (स, घा, अध) वही पीछे (सविता) ऐश्वर्य्यवान् सूर्य के समान प्रकाशमान (सहावा) साथ सेवनेवाला (देवः) मनोहर विद्वान् (नः) हमको (वसूनि) धन (आ, साविषत्) प्राप्त करे ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य सूर्य के समान सब के धनों को बढ़ा कर सुपात्रों के लिये देते हैं, वे धनपति होते हैं ॥३॥
विषय
उससे भोग्य और रक्षा की प्रार्थना।
भावार्थ
( सः देवः सविता ) यह सर्वसुखदाता शासक, ऐश्वर्यवान् राजा ( सहावा ) बलवान् ( वसु-मतिः ) धनों का स्वामी होकर ( वसूनि ) नाना धनों को ( साविषत् ) उत्पन्न करे । ( उरूचीं ) बहुत पदार्थों को प्राप्त करने वाली ( अमतिम् ) उत्तम रूप की नीति को ( वि-श्रयमाणः ) विशेष रूप से आश्रय लेता हुआ (नः ) हमें ( मर्त्त-भोजनं ) मनुष्यों से भोगने योग्य ऐश्वर्यं और मनुष्यों का पालन, शासन, न्याय ( रासते ) प्रदान करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ सविता देवता॥ छन्दः – १ विराट् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३, ४ निचृत्त्रिष्टुप्॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
विषय
प्रजा पालन
पदार्थ
पदार्थ- (सः देवः सविता) = वह सर्वसुखदाता ऐश्वर्यवान् राजा (सहावा) = बलवान् (वसुपतिः) = धनों का स्वामी होकर (वसूनि) = धनों को (साविषत्) = पैदा करे। (उरूचीं) = बहुत पदार्थों को प्राप्त करनेवाली (अमतिम्) = नीति को (वि-श्रयमाण:) = विशेषतः आश्रय लेता हुआ (नः) = हमें (मर्त्तभोजनं) = मनुष्यों से भोगने योग्य भोग (रासते) = दे।
भावार्थ
भावार्थ- राजा राष्ट्र को समृद्ध करने की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं का आश्रय लेकर मनुष्यों के भोगने योग्य ऐश्वर्य, मनुष्यों का पालन, शासन और न्याय प्रदान कर प्रजा का प्रिय बने।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे सूर्याप्रमाणे सर्वांचे धन वाढवून सुपात्रांना देतात ती धनपती बनतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May that refulgent creator and inspirer Savita, mighty and friendly, lord and master of wealth, radiating his wide expansive glory, provide vital food and energy for the mortals.
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