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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 59/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    न॒हि व॑ ऊ॒तिः पृत॑नासु॒ मर्ध॑ति॒ यस्मा॒ अरा॑ध्वं नरः। अ॒भि व॒ आव॑र्त्सुम॒तिर्नवी॑यसी॒ तूयं॑ यात पिपीषवः ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । वः॒ । ऊ॒तिः । पृत॑नासु । मर्ध॑ति । यस्मै॑ । अरा॑ध्वम् । न॒रः॒ । अ॒भि । वः॒ । आ । अ॒वा॒र्त् । सु॒ऽम॒तिः । नवी॑यसी । तूय॑म् । या॒त॒ । पि॒पी॒ष॒वः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि व ऊतिः पृतनासु मर्धति यस्मा अराध्वं नरः। अभि व आवर्त्सुमतिर्नवीयसी तूयं यात पिपीषवः ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि। वः। ऊतिः। पृतनासु। मर्धति। यस्मै। अराध्वम्। नरः। अभि। वः। आ। अवर्त्। सुऽमतिः। नवीयसी। तूयम्। यात। पिपीषवः ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 59; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे पिपीषवो नरो ! येषां व ऊतिः पूतनासु नहि मर्धति यस्मै यूयमराध्वं स वोऽभ्यावर्त् येषां नवीयसी सुमतिरस्ति ते यूयं विद्यां तूयं यात ॥४॥

    पदार्थः

    (नहि) निषेधे (वः) युष्माकम् (ऊतिः) रक्षाद्या क्रिया (पृतनासु) मनुष्यसेनासु (मर्धति) हिंसति (यस्मै) (अराध्वम्) स्मर्धयन्ति (नरः) नायकाः (अभि) (वः) युष्माकम् (आ) (अवर्त्) आवर्तते (सुमतिः) शोभना प्रज्ञा (नवीयसी) अतिशयेन नवीना (तूयम्) तूर्णम्। तूयमिति क्षिप्रनाम। (निघं०२.१५)(यात) प्राप्नुत (पिपीषवः) पातुमिच्छवः ॥४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः ! भवन्त एवं प्रयतन्तां येन युष्माकं न्यायेन रक्षा सेनाः समृद्धिरुत्तमा प्रज्ञा कदाचिन्न ह्रस्येत ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (पिपीषवः) पान करने की इच्छा करनेवाले (नरः) अग्रणी जनो ! जिन (वः) आप लोगों की (ऊतिः) रक्षा आदि क्रिया (पृतनासु) मनुष्यों की सेनाओं में (नहि) नहीं (मर्धति) हिंसा करती है और (यस्मै) जिस के लिये आप लोग (अराध्वम्) आराधना करते हैं वह (वः) आप लोगों के (अभि, आ, अवर्त्) समीप सब प्रकार से वर्त्तमान होता है और जिनकी (नवीयसी) अतिशय नवीन (सुमतिः) उत्तम बुद्धि है वे आप लोग विद्या को (तूयम्) शीघ्र (यात) प्राप्त हूजिये ॥४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग इस प्रकार से प्रयत्न करिये, जिससे आप लोगों की न्याय से रक्षा सेना की बढ़ती और उत्तम बुद्धि कभी न न्यून हो ॥४॥

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    विषय

    विद्वानों वीरों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( नरः ) मनुष्यो ! आप लोग (यस्मै अराध्वम् ) जिसको सुखादि प्रदान करते हों ( वः ऊतिः ) आप लोगों की रक्षाकारिणी सेनादि ( पृतनासु ) मनुष्यों और संग्रामों के बीच में भी ( नहि मर्धति ) उसको नाश नहीं करती । ( वः सुमतिः नवीयसी) आप लोगों की उत्तम से उत्तम शुभमति ( अभि आवत् ) प्राप्त हो । आप लोग ( पिपीषवः ) प्रजा के पालन करने की इच्छा से युक्त होकर ( तूयं ) शीघ्र ही ( यात ) प्रयाण करो और ( आयात ) आओ जाओ ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ १-११ मरुतः। १२ रुद्रो देवता, मृत्युविमोचनी॥ छन्दः १ निचृद् बृहती। ३ बृहती। ६ स्वराड् बृहती। २ पंक्ति:। ४ निचृत्पंक्तिः। ५, १२ अनुष्टुप्। ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्। ९,१० गायत्री। ११ निचृद्गायत्री॥

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    विषय

    सेना प्रजा की रक्षा करनेवाली हो

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (नरः) = मनुष्यो! आप (यस्मै अराध्वम्) = जिसको सुखादि देते हो (वः ऊतिः) = आपकी रक्षाकारिणी सेना (पृतनासु) = संग्रामों में (नहि मर्धति) = उसका नाश नहीं करती। उसे (वः नवीयसी सुमतिः) = आप की सुमति (अभि आवत्) = प्राप्त हो। आप (पिपीषवः) = प्रजा-पालन की इच्छा से (तूयं) = शीघ्र (यात) = प्रयाण करो और (आयात) = आओ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सेना प्रजाओं की रक्षा के लिए राष्ट्र की सीमाओं तथा बस्तियों में जागरूक रहकर चक्कर लगावे। संग्रामों में भी प्रजाजनों की हानि न होने देकर प्रजा के हितैषियों की भी रक्षा करती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! तुम्ही असा प्रयत्न करा की, ज्यामुळे तुमच्या न्यायामुळे, रक्षण, सेनेची वाढ व उत्तम बुद्धी कधी न्यून होता कामा नये. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Never does your protection and patronage in the battles of life forsake the man whom you, O leading lights of humanity, favour, mature and protect. Let the latest and most developed vision and noble policy of yours be on the move constantly while, O leaders, thirsting for defence, protection and progress, you hasten to wherever the nation calls upon you.

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