ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 59/ मन्त्र 6
आ च॑ नो ब॒र्हिः सद॑तावि॒ता च॑ नः स्पा॒र्हाणि॒ दात॑वे॒ वसु॑। अस्रे॑धन्तो मरुतः सो॒म्ये मधौ॒ स्वाहे॒ह मा॑दयाध्वै ॥६॥
स्वर सहित पद पाठआ । चः॒ । नः॒ । ब॒र्हिः । सद॑त । अ॒वि॒त । च॒ । नः॒ । स्पा॒र्हाणि॑ । दात॑वे । वसु॑ । अस्रे॑धन्तः । म॒रु॒तः॒ । सो॒म्ये । मधौ॑ । स्वाहा॑ । इ॒ह । मा॒द॒या॒ध्वै॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ च नो बर्हिः सदताविता च नः स्पार्हाणि दातवे वसु। अस्रेधन्तो मरुतः सोम्ये मधौ स्वाहेह मादयाध्वै ॥६॥
स्वर रहित पद पाठआ। चः। नः। बर्हिः। सदत। अवित। च। नः। स्पार्हाणि। दातवे। वसु। अस्रेधन्तः। मरुतः। सोम्ये। मधौ। स्वाहा। इह। मादयाध्वै ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 59; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 29; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्भिः किं कर्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे वस्वस्रेधन्तो मरुतो ! यूयं नो स्पार्हाणि च दातवेऽस्माकं बर्हिरा सदत नोऽस्माँश्चावितेह स्वाहा सोम्ये मधौ मादयाध्वै ॥६॥
पदार्थः
(आ) (च) अथार्थे (नः) अस्माकम् (बर्हिः) उत्तमं बृहद्गृहम् (सदत) उपविशत (अविता) प्रविशत रक्षत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (च) (नः) अस्मभ्यम् (स्पार्हाणि) स्पृहणीयानि कमनीयानि (दातवे) दातुं (वसु) द्रव्यम् (अस्रेधन्तः) अहिंसन्तः (मरुतः) मनुष्याः (सोम्ये) सोम इवानन्दकरे (मधौ) मधुरे (स्वाहा) सत्यया क्रियया (इह) अस्मिन् लोके (मादयाध्वै) ॥६॥
भावार्थः
हे विद्वांसो ! यूयं सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यो विद्यां दातुं प्रवर्त्तध्वं विद्ययैवैषां रक्षां विधत्तैश्वर्यं सर्वार्थं वर्धयत ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (वसु) द्रव्य का (अस्रेधन्तः) नहीं नाश करते हुए (मरुतः) मनुष्यो ! आप लोग (नः) हम लोगों के (स्पार्हाणि) कामना करने योग्य पदार्थों को (च) निश्चित (दातवे) देने के लिये हम लोगों के (बर्हिः) उत्तम बड़े गृह में (आ, सदत) बैठिये (नः, च) और हम लोगों की (अवित) रक्षा कीजिये (इह) इस लोक में (स्वाहा) सत्य क्रिया से (सोम्ये) सोमलता के सदृश आनन्द करनेवाले (मधौ) मधुर रस में (मादयाध्वै) आनन्द कीजिये ॥६॥
भावार्थ
हे विद्वानो ! आप लोग सब मनुष्यों के लिये विद्या देने को प्रवृत्त हूजिये, विद्या ही से इनकी रक्षा कीजिये और ऐश्वर्य्य सब के लिये बढ़ाइये ॥६॥
विषय
मधुवत् करसंग्रह, भिक्षासंग्रह का उपदेश । न्यायोपार्जित धन ग्रहण का उपदेश ।
भावार्थ
हे ( मरुतः ) विद्वान्, वीर, प्रजाजनो ! ( नः बर्हिः आसदत च) आप लोग हमारे वृद्धियुक्त गृह, आसन और यज्ञ आदि को प्राप्त होओ और उत्तमासन पर विराजो ( नः ) हमें (स्पार्हाणि) चाहने योग्य, उत्तम, ( वसु ) धनों को ( दातवे ) देने के लिये (नः) हमें (अविता च) प्राप्त हों हमारी रक्षा करें । आप लोग ( अस्त्रेधन्तः ) प्रजा का नाश न करते हुए, अहिंसक रहकर ( सौम्ये मधौ ) सोम, आदि औषधिरस से युक्त मधु के समान विद्वानों के योग्य आनन्ददायक इस राष्ट्र में और उत्तम बलदायक अन्नादि के ऊपर ( इह ) इस गृहादि में ( स्वाहा ) उत्तम सत्कार, सुवचन और सुखपूर्वक अभ्यवहार एवं अपने न्यायोचित उपार्जित धन द्वारा ( मादयाध्वै ) आनन्द लाभ करिये।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १-११ मरुतः। १२ रुद्रो देवता, मृत्युविमोचनी॥ छन्दः १ निचृद् बृहती। ३ बृहती। ६ स्वराड् बृहती। २ पंक्ति:। ४ निचृत्पंक्तिः। ५, १२ अनुष्टुप्। ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्। ९,१० गायत्री। ११ निचृद्गायत्री॥
विषय
राष्ट्र रक्षक बनो
पदार्थ
पदार्थ - हे (मरुतः) = विद्वान्, प्रजाजनो ! (नः बर्हिः आसदत च) = आप हमारे वृद्धियुक्त गृह आदि को प्राप्त होओ (नः) = हमें (स्पर्हाणि) = चाहने योग्य, (वसु) = धनों को (दातवे) = देने के लिये (अविता च) = प्राप्त हों। आप (अस्त्रेधन्तः) = प्रजा का नाश न करते हुए, (सोम्ये मधौ) = सोम आदि ओषधिरस से युक्त मधु समान विद्वानों के योग्य आनन्ददायक इस राष्ट्र में और अन्नादि के ऊपर (इह) = इस गृहादि में (स्वाहा) = उत्तम सत्कार, सुखपूर्वक अभ्यवहार द्वारा (मादयाध्वै) = आनन्द लाभ करिये।
भावार्थ
भावार्थ- प्रजाजन अपने घरों में विद्वान् लोगों को बुलाकर उनका सम्मान करके उनसे मार्गदर्शन लिया करें जिससे अपने स्वास्थ्य को ठीक रखते हुए पुरुषार्थ पूर्वक अन्न-धन कमाकर समृद्ध होवें तथा अपनी सन्तानों को संस्कार प्रदान कर आनन्द प्राप्त करें तथा राष्ट्र को उन्नत बनावें।
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वानांनो! तुम्ही लोक सर्व माणसांना विद्या देण्यास प्रवृत्त व्हा. विद्येने त्यांचे रक्षण करा व सर्वांसाठी ऐश्वर्य वाढवा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Maruts, leading lights of the nation, come and sit on the holy seats of our house to protect us and, without hurting and destroying anything, to give us the wealth and honours we love and desire. Come and enjoy the honey sweets of the most soothing soma of life offered with sincerest word and deed.
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