ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 76/ मन्त्र 5
स॒मा॒न ऊ॒र्वे अधि॒ संग॑तास॒: सं जा॑नते॒ न य॑तन्ते मि॒थस्ते । ते दे॒वानां॒ न मि॑नन्ति व्र॒तान्यम॑र्धन्तो॒ वसु॑भि॒र्याद॑मानाः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मा॒ने । ऊ॒र्वे । अधि॑ । सम्ऽग॑तासः । सम् । जा॒न॒ते॒ । न । य॒त॒न्ते॒ । मि॒थः । ते । ते । दे॒वाना॑म् । न । मि॒न॒न्ति॒ । व्र॒तानि॑ । अम॑र्धन्तः । वसु॑ऽभिः । याद॑मानाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
समान ऊर्वे अधि संगतास: सं जानते न यतन्ते मिथस्ते । ते देवानां न मिनन्ति व्रतान्यमर्धन्तो वसुभिर्यादमानाः ॥
स्वर रहित पद पाठसमाने । ऊर्वे । अधि । सम्ऽगतासः । सम् । जानते । न । यतन्ते । मिथः । ते । ते । देवानाम् । न । मिनन्ति । व्रतानि । अमर्धन्तः । वसुऽभिः । यादमानाः ॥ ७.७६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 76; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवानाम्) ये विदुषां (व्रतानि) वेदोक्तस्वाध्यायादि- नियमान् (न मिनन्ति) न लुलुम्पन्ति (ते) ते पुरुषाः (अमर्धन्तः) अहिंसका भवन्तः (वसुभिः) वेदवाग्रूपधनैः (यादमानाः) यात्रां कुर्वन्तः (मिथः) परस्परं समेत्य (यतन्ते) यत्नं कुर्वन्ति (ते) ते हि जनाः (सञ्जानते) प्रतिज्ञामेव (न) न कुर्वन्ति, किन्तु (सङ्गतासः) सङ्गता भूत्वा (अधि ऊर्वे) बलादिन्द्रियसंयमे (समाने) तुल्यभावेन यतन्ते ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवानाम्) जो विद्वानों के (व्रतानि) व्रतों को (न मिनन्ति) नहीं मेटते, (ते) वे (अमर्धन्तः) अहिंसक होकर (वसुभिः) वेदवाणीरूपी धनों से (यादमानाः) यात्रा करते हुए (मिथः) परस्पर मिलकर (यतन्ते) यत्न करते हैं, (ते) वे (संजानते) प्रतिज्ञा ही (न) नहीं करते किन्तु (संगतासः) सङ्गत होकर (अधि ऊर्वे) बलपूर्वक इन्द्रियों के संयम में (समाने) समानभाव से यत्न करते हैं ॥५॥
भावार्थ
जो पुरुष विद्वानों के नियमों का पालन करते हुए अहिंसक होकर अर्थात् अहिंसादि पाँच यमों का पालन करते हुए संसार में विचरते हैं, वे यत्नपूर्वक अपने अभीष्ट फल को प्राप्त होते हैं, या यों कहो कि वैदिक नियमों का वही पुरुष पालन करते हैं, जो अहिंसक होकर वेदवाणी का प्रचार करते और आपस में समानभाव से इन्द्रियों का संयम करते हुए औरों को ब्रह्मचर्य्यव्रत का उपदेश करते हैं। स्मरण रहे कि उपदेश उन्हीं का सफल होता है, जो अनुष्ठानी बनकर यात्रा करते हैं, अन्यों का नहीं ॥५॥
विषय
सत्पुरुष विदुषी स्त्री को उपदेश ।
भावार्थ
जो पुरुष ( समाने ) एक समान ( ऊर्वे ) समूह या वर्ग में ( अधि ) एक अध्यक्ष के अधीन ( संगतासः ) एकत्र मिलकर ( सं जानते ) सम्यक् ज्ञान और परिचय कर लेते हैं ( ते ) वे ( मिथ: ) परस्पर का हिंसन या नाश करने की (न यतन्ते) चेष्टा नहीं करते । (ते) वे ( देवानां व्रतानि ) विद्वानों के कार्यों का ( न मिनन्ति ) नाश नहीं करते । और वे ( वसुभिः ) धनों द्वारा ( यादमानाः ) यत्नवान् होते हुए ( अमर्धन्तः ) और हिंसा न करते हुए संगत होकर जीवन व्यतीत करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ छन्दः—१ त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
श्रेष्ठ जीवन
पदार्थ
पदार्थ- जो पुरुष समाने एक समान (ऊर्वे) = समूह या वर्ग में (अधि) = अध्यक्ष के अधीन (संगतासः) = मिलकर (सजानते) = सम्यक् ज्ञान और परिचय करते हैं (ते) = वे परस्पर नाश की न यतन्ते चेष्टा नहीं करते। (ते) = वे (देवानां व्रतानि) = विद्वानों के कार्यों का (न मिनन्ति) = नाश नहीं करते। वे (वसुभिः) = धनों द्वारा (यादमानाः) = यत्नवान् होते हुए (अमर्धन्तः) = हिंसा न करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- उत्तम पुरुषों को योग्य है कि वे अध्यक्ष के अधीन रहकर विद्वानों के द्वारा गई मर्यादा का उल्लंघन न करते हुए अहिंसक भाव से पुरुषार्थ करते हुए श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करते हैं ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Men of vision dedicated to common and equal programmes of vast significance join together not only in mutual covenant but also in absolute union, and together endeavour to realise their divine aim without ever contending against one another. They do not break the laws and disciplines of truth and divinities, nor do they violate the conventions and traditions of the wise and, marching forward by the light of stars and wealth of Vedic knowledge without violence to any one, they attain their aim.
मराठी (1)
भावार्थ
जे पुरुष विद्वानांच्या नियमांचे पालन करून अहिंसक बनून अहिंसा इत्यादी पाच यमांचे पालन करून जगात वावरतात ते प्रयत्नपूर्वक आपले अभीष्ट फळ प्राप्त करतात. जे अहिंसक बनून वेदवाणीचा प्रचार करतात व आपापसात समान भावनेने इंद्रियांचा संयम करून इतरांना ब्रह्मचर्यव्रताचा उपदेश करतात. तेच पुरुष वैदिक नियमांचे पालन करतात. जे अनुष्ठानी बनून प्रवास करतात त्यांचाच उपदेश सफल होतो. इतरांचा नाही, हे लक्षात ठेवले पाहिजे. ॥५॥
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