ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 77/ मन्त्र 6
यां त्वा॑ दिवो दुहितर्व॒र्धय॒न्त्युष॑: सुजाते म॒तिभि॒र्वसि॑ष्ठाः । सास्मासु॑ धा र॒यिमृ॒ष्वं बृ॒हन्तं॑ यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठयान् । त्वा॒ । दि॒वः॒ । दु॒हि॒तः॒ । व॒र्धय॑न्ति । उषः॑ । सु॒ऽजा॒ते॒ । म॒तिऽभिः । वसि॑ष्ठाः । सा । अ॒स्मासु॑ । धाः॒ । र॒यिम् । ऋ॒ष्वम् । बृ॒हन्त॑म् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यां त्वा दिवो दुहितर्वर्धयन्त्युष: सुजाते मतिभिर्वसिष्ठाः । सास्मासु धा रयिमृष्वं बृहन्तं यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥
स्वर रहित पद पाठयान् । त्वा । दिवः । दुहितः । वर्धयन्ति । उषः । सुऽजाते । मतिऽभिः । वसिष्ठाः । सा । अस्मासु । धाः । रयिम् । ऋष्वम् । बृहन्तम् । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.७७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 77; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
सम्प्रति विद्वद्भिर्ऋषिभिः प्रार्थना वर्ण्यते।
पदार्थः
(दिवः दुहितः) द्युलोकस्य दुहितुः (उषः) उषसः (वर्धयन्ति) उदयेऽथवा वृद्धौ समर्द्धयन्ति (मतिभिः वसिष्ठाः) बुद्धिमन्त ऋषयः (सुजाते) सुजन्मवतीम् उषसमभिलक्ष्य सम्यक् परमात्मानं ज्ञानविषयीकृत्य (याम् त्वा) यं त्वां ध्यायन्ति सा त्वम् (अस्मासु) अस्मान् (ऋष्वम्) ऐश्वर्ययुक्तान् कुरु (बृहन्तम् रयिम्) महद्धनं (धाः) धारय तथा च (नः) अस्मान् (यूयम्) भवन्तः (स्वस्तिभिः) श्रेयस्करैर्वचोभिः (सदा) शश्वत् (पात) पावयन्तु ॥६॥ इति सप्तसप्ततितमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब वेदवेत्ता ऋषियों द्वारा प्रार्थना कथन करते हैं।
पदार्थ
(दिवः दुहितः) द्युलोक की दुहिता (उषः) उषा के (वर्धयन्ति) उदय होने पर अथवा बढ़ने पर (मतिभिः वसिष्ठाः) बुद्धिमान् ऋषि लोग (सुजाते) सुजन्मवाली उषा को लक्ष्य रखकर भले प्रकार परमात्मा को ज्ञानगोचर करके (यां त्वा) जिस आपका ध्यान करते हैं, (सा) वह आप (अस्मासु) हम लोगों को (ऋष्वं) ऐश्वर्य्ययुक्त करें, (बृहन्तं रयिं) सब से बड़े धन को (धाः) धारण करावें और (नः) हमको (यूयं) आप (स्वस्तिभिः) कल्याणयुक्त वाणियों से (सदा) सदा (पात) पवित्र करें ॥६॥
भावार्थ
हे परमात्मा ! उषःकाल में विज्ञानी ऋषि महात्मा अपनी ब्रह्मविषयणी बुद्धि द्वारा आपको ज्ञानगोचर करते हुए आपका ध्यान करते हैं, वह आप हमारे पूजनीय पिता हमें धनसम्पन्न तथा ऐश्वर्य्ययुक्त करते हुए सब प्रकार से हमारा कल्याण करें ॥ तात्पर्य यह है कि मन्त्रों द्वारा संस्कृत की हुई बुद्धि द्वारा जब ऋषि महात्मा परमात्मा का ध्यान करते हैं, तब उसका साक्षात्कार करके उसी को अपना एकमात्र लक्ष्य बनाते हैं, जैसा कि “दृश्यते त्वग्रया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः”=इत्यादि उपनिषद्वाक्यों में वर्णन किया है कि परमात्मा का दर्शन=साक्षात्कार सूक्ष्मबुद्धि द्वारा सूक्ष्मदर्शी ऋषियों को होता है। अधिक क्या, परमात्मा का ध्यान करने के लिए श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन ये तीन मुख्य साधन हैं अर्थात् प्रथम वेदमन्त्रों द्वारा परमात्मा का श्रवण करना, पुनः श्रवण किये हुए परमात्मस्वरूप का युक्तियों द्वारा मनन करना और तीसरे साधन से उसके स्वरूप का निदिध्यासन=ध्यान करना, इसी का नाम ब्रह्मोपासना है। जब पुरुष इस उपासना के तृतीय स्थान तक पहुँच जाता है, तब उसको ध्यान करने में कठिनता नहीं होती ॥ और जो कई एक लोग यह कहते हैं कि निराकार पदार्थ ध्यानगोचर नहीं हो सकता, उनसे यह प्रष्टव्य है कि अपना स्वरूप भी तो निराकार है, वह ध्यान में कैसे आ जाता है और सुख-दुःख भी तो निराकार है, उनका अनुभव क्यों होता है ? जिस प्रकार जीव का स्वरूप और सुखादिकों का अनुभव होता है, इसी प्रकार परमात्मा के निराकार स्वरूप का अनुभव होने में कोई बाधा नहीं ॥ निराकार परमात्मस्वरूप के अनुभव करने का प्रकार यह है कि पुरुष जपयज्ञ, ज्ञानयज्ञ तथा ध्यान द्वारा मन को स्थिर करके तदनन्तर उस आनन्दस्वरूप निराकार परमात्मा के स्वरूप में लगावे, तब वह स्थिरता को प्राप्त हुआ मन परमात्मा के स्वरूप को इस प्रकार अनुभव करता है, जिस प्रकार जीवात्मा अपने निराकार आनन्द को अनुभव कर लेता है और जैसे आनन्द के अनुभव करने में उसको कोई सन्देह शेष नहीं रहता, इसी प्रकार स्थिर मनवाले पुरुष को आनन्दस्वरूप परमात्मा के अनुभव करने में कोई शङ्का नहीं रहती, क्योंकि परमात्मा सर्वव्यापक है, उसके स्वरूप का आनन्द उसी प्रकार उसके जीवात्मा में व्यापक है, जैसा कि जीव का स्वरूपभूत आनन्द उसका है, सो जिस प्रकार जीवात्मा अपने स्वरूपभूत आनन्द को अनुभव करता है, इसी प्रकार अत्यन्त सन्निहित होने से परमात्मा का निराकार स्वरूप जीव के अनुभव का विषय होता है। इसका विशेष विवरण दशम मण्डल के ईश्वरस्वरूप- निरूपण में प्रतिपादन करेगें, विशेषाभिलाषी वहाँ देखें ॥६॥ यह ७७वाँ सूक्त और २४वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
गृहपत्नी के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( उषः ) प्रभात वेला, उषा के समान कान्तिमति ! हे ( सुजाते ) शुभ गुणों सहित, उत्तम जन्म वाली ! हे ( दिवः दुहितः ) तेजस्वी सूर्यवत् विद्वान् और वीर पुरुष की पुत्रि ! एवं पति की कामनाओं को पूर्ण करने हारि ! ( वसिष्ठाः ) उत्तम २ वसु, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ, पिता जन (यां त्वा वर्धयन्ति) जिस तुझ को बढ़ाते हैं, तेरी मान, आदर, प्रतिष्ठा करते हैं (सा) वह तू ( अस्मासु ) हमारे बीच (ऋष्वं) बड़े भारी ( बृहन्तं ) महान् ( रयिम् ) ऐश्वर्य को ( धाः ) धारण कर और हममें भी धारण करा । हे विद्वान् लोगो ! ( यूयम् ) तुम लोग ( नः सदा स्वस्तिभिः पात) हमारी सदा उत्तम उपायों से रक्षा करो । इति चतुर्विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ उषा देवताः॥ छन्दः—१ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ निचृत्: त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
कान्तिमति स्त्री
पदार्थ
पदार्थ- हे (उषः) = उषा के समान कान्तिमति! हे (सुजाते) = शुभ गुणों सहित, उत्तम जन्मवाली ! हे (दिवः दुहितः) = सूर्यवत् विद्वान् और वीर पुरुष की पुत्रि! एवं पति-कामनाओं को पूर्ण करने हारि! (वसिष्ठाः) = उत्तम- उत्तम वसु, ब्रह्मचारी एवं गृहस्थ, पिता जन (यां त्वा वर्धयन्ति) = जिस तुझको बढ़ाते हैं, (सा) = वह तू (अस्मासु) = हमारे बीच (ऋष्वं) = बड़े भारी (बृहन्तं) = महान् (रयिम्) = ऐश्वर्य को (धाः) = धारण कर और हममें भी धारण करा। हे विद्वान् लोगो! (यूयम् नः सदा स्वस्तिभिः पात) = हमारा सदा उत्तम साधनों से पालन करो।
भावार्थ
भावार्थ- विद्वान् वीर पिता की पुत्री गृहस्थी जनों के ज्ञान, अनुभव एवं धन के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होकर बड़ी प्रतिष्ठा एवं ऐश्वर्य को धारण करे। अगले सूक्त का भी ऋषि वसिष्ठ तथा देवता उषा है।
इंग्लिश (1)
Meaning
O dawn, nobly bom of the sun, child of Divinity, brilliant sages, poets and scholars adore and glorify you with holy words, thoughts and actions. O light divine, bear and bring to bless us excellent wealth, honour and glory rising and ever rising. O saints, sages and heroes of humanity, protect and promote us with peace, progress and all round well being all time.
मराठी (1)
भावार्थ
हे परमात्मा! उष:काळी विज्ञानी ऋषी, महात्मा आपल्या ब्रह्मविषयक बुद्धीद्वारे तुला ज्ञानगोचर करतात, तुझे ध्यान करतात. तू आमचा पूजनीय पिता असून, आम्हाला धनसंपन्न व ऐश्वर्ययुक्त करून सर्व प्रकारचे कल्याण कर.
टिप्पणी
तात्पर्य हे, की मंत्रांद्वारे परिष्कृत केलेल्या बुद्धीद्वारे जेव्हा ऋषी महात्मा परमेश्वराचे ध्यान करतात त्याचा साक्षात्कार करून त्यालाच एकमेव लक्ष्य बनवितात. $ जसे ‘दृश्यते त्वग्रया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:’ इत्यादी उपनिषद वाक्यांमध्ये वर्णन केलेले आहे, की परमेश्वराचे दर्शन=साक्षात्कार सूक्ष्मबुद्धीद्वारे सूक्ष्मदर्शी ऋषींना होतो. परमेश्वराचे ध्यान करण्यासाठी श्रवण, मनन व निदिध्यासन ही तीन मुख्य साधने आहेत. प्रथम वेदमंत्रांद्वारे परमेश्वराचे श्रवण करणे, पुन्हा श्रवण केलेल्या परमात्म स्वरूपाचे युक्तीद्वारे मनन करणे व तिसऱ्या साधनाने त्याच्या स्वरूपाचे निदिध्यासनाद्वारे= ध्यान करणे याचेच नाव ब्रह्मोपासना आहे. जेव्हा पुरुष या उपासनेच्या तृतीयस्थानी पोचतो तेव्हा त्याला ध्यान करणे कठिण वाटत नाही. $ कित्येक लोक म्हणतात, की निराकार पदार्थ ध्यानगोचर होऊ शकत नाहीत. त्यांना हे विचारावे लागेल. आपले स्वरूपही निराकार आहे. ते ध्यानामध्ये कसे येते? सुख-दु:खही निराकार आहेत. त्यांचा अनुभव कसा येतो? का येतो? ज्या प्रकारे जीवाचे स्वरूप व सुख इत्यादीचा अनुभव येतो त्याच प्रकारे परमात्म्याच्या निराकार स्वरूपाचा अनुभव येण्यात बाधा येत नाही. $ निराकार परमात्मस्वरूपाचा अनुभव घेण्याचा प्रकार हा आहे, की पुरुषाने जपयज्ञ, ज्ञानयज्ञ व ध्यानाद्वारे मन स्थिर करून त्या आनंदस्वरूप निराकार परमात्म्याच्या स्वरूपात लावावे तेव्हा स्थिर झालेले मन परमात्म्याच्या स्वरूपाला असा अनुभव घेते, की ज्या प्रकारे जीवात्मा आपल्या निराकार आनंदाचा अनुभव घेतो आनंदाचा अनुभव घेण्यात त्याला संशय राहत नाही, याच प्रकारे स्थिर मनाच्या पुरुषाला नसते आनंदस्वरूप परमात्म्याचा अनुभव घेण्यात कोणतीही शंका नाही. कारण परमात्मा सर्वव्यापक आहे. त्याच्या स्वरूपाचा आनंद जीवात्म्यात अशा प्रकारे व्यापक आहे, की जसा जीवात्मा आपल्या स्वरूपभूत आनंदाचा अनुभव घेतो. या प्रकारे अत्यंत सन्निहित असल्यामुळे परमात्म्याचे निराकार स्वरूप जीवाच्या अनुभवाचा विषय असते. याचे विशेष विवरण दशममंडलाच्या ईश्वरस्वरूप निरुपणात प्रतिपादन केले जाईल. तेथे पाहावे. ॥६॥
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