ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 93/ मन्त्र 8
ए॒ता अ॑ग्न आशुषा॒णास॑ इ॒ष्टीर्यु॒वोः सचा॒भ्य॑श्याम॒ वाजा॑न् । मेन्द्रो॑ नो॒ विष्णु॑र्म॒रुत॒: परि॑ ख्यन्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ताः । अ॒ग्ने॒ । आ॒शु॒षा॒णासः॑ । इ॒ष्टीः । यु॒वोः । सचा॑ । अ॒भि । अ॒श्या॒म॒ । वाजा॑न् । मा । इन्द्रः॑ । नः॒ । विष्णुः॑ । म॒रुतः॑ । परि॑ । ख्यन् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एता अग्न आशुषाणास इष्टीर्युवोः सचाभ्यश्याम वाजान् । मेन्द्रो नो विष्णुर्मरुत: परि ख्यन्यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥
स्वर रहित पद पाठएताः । अग्ने । आशुषाणासः । इष्टीः । युवोः । सचा । अभि । अश्याम । वाजान् । मा । इन्द्रः । नः । विष्णुः । मरुतः । परि । ख्यन् । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.९३.८
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 93; मन्त्र » 8
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रः) सर्वशक्तिमान् परमात्मा (विष्णुः) सर्वव्यापकः (एताः, मरुतः) सर्वरक्षकः (नः) अस्मान् (मा) न (परिख्यन्) त्यजेत् (अग्ने) हे कर्मयोगिन् विद्वन् ! (आशुषाणासः) भवता सहचारेण (युवोः) भवतः (इष्टीः) ज्ञानयज्ञं भवतः सहचारित्वं च (सचाभ्यश्याम) कदापि नो जह्याम (वाजान्) भवतो बलप्रदोपदेशान् कदापि न त्यजेम (यूयम्) भवन्तः (स्वस्तिभिः) कल्याणवाग्भिः (सदा) निरन्तरं (नः) अस्मान् (पात) रक्षन्तु ॥८॥ इति त्रिनवतितमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रः) सर्वशक्तिमान् (विष्णुः) सर्वव्यापक (एताः, मरुतः) सर्वरक्षक परमात्मा (नः) हमको (मा) मत (परिख्यन्) छोड़े, (अग्ने) हे कर्म्मयोगिन् तथा ज्ञानयोगिन् विद्वन् ! (आशुषाणासः) आपकी सङ्गति में रहते हुए हमको (युवोः) आपकी (इष्टीः) यह ज्ञानयज्ञ और आपकी सङ्गति को हम लोग (सचाभ्यश्याम) कभी न छोड़ें तथा (वाजान्) आपके बलप्रद उपदेशों का हम कदापि त्याग न करें और ईश्वर की कृपा से (यूयं) आप लोग (स्वस्तिभिः) स्वस्तिवचनों से (नः) हमको (सदा) सदैव (पात) पवित्र करें ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में इस बात की शिक्षा है कि पुरुष को चाहिये कि वह सत्पुरुषों की सङ्गति से बाहर कदापि न रहे और परमात्मा के आगे हृदय खोल कर निष्पाप होने की सदैव प्रार्थना किया करे, इसी से मनुष्य का कल्याण होता है। केवल अपने उद्योग के भरोसे पर ईश्वर और विद्वान् पुरुषों की (उपेक्षा) अर्थात् उनमें उदासीन दृष्टि कदापि न करे ॥८॥ यह ९३वाँ सूक्त १६वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
शासकों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्रणी जन ! हम लोग ( एताः ) इन ( इष्टी: ) देने योग्य करादि अंशों को ( आशुषाणासः ) अति शीघ्र देते हुए, (युवोः) तुम दोनों के ( वाजान् ) बलों, ऐश्वर्यों को ( सचा अभि अश्याम ) एक साथ मिलकर भोग करें । ( इन्द्रः विष्णुः ) ऐश्वर्यवान् जन और व्यापक अधिकार वाले शासक तथा ( मरुतः ) बलवान् शत्रुनाशक वीर पुरुष और विद्वान् जन (नः परिख्यन् ) हमें कभी उपेक्षा न करें । हमारी कभी निन्दा वा त्याग न करें । ( यूयं नः स्वस्तिभिः सदा पात ) आप लोग हमारी सदा उत्तम २ उपायों से रक्षा करें । इति षोडशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
विषय
समय पर कर दान करें
पदार्थ
पदार्थ- हे (अग्ने) = अग्रणी जन! हम लोग (एताः) = इन (इष्टी:) -= दातव्य करादि अंशों को (आशुषाणासः) = शीघ्र देते हुए, (युवो:) = तुम दोनों के (वाजान्) = ऐश्वर्यों को (सचा अभि अश्याम) = एक साथ भोग करें। (इन्द्रः विष्णुः) = ऐश्वर्यवान् जन और व्यापक अधिकारवाले शासक तथा (मरुतः) = बलवान् वीर पुरुष (नः परिख्यन्) = हमारी निन्दा न करें। (यूयं नः स्वस्तिभिः सदा पात) = आप लोग सदा ही उत्तम साधनों से हमारी रक्षा करें।
भावार्थ
भावार्थ- राष्ट्र में जो लोग कर देने के पात्र हैं वे कर दान समय पर किया करें। इस कर दान से ही राष्ट्र की प्रगति की समस्त कार्य योजनाएँ चलती हैं। प्रशासन को कठोरता वर्तने के लिए बाध्य न होना पड़े इसका ध्यान प्रजा जनों को रखना चाहिए। आगामी सूक्त का ऋषि वसिष्ठ व देवता इन्द्राग्री है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of light and knowledge, we, your devotees, reaching you in earnest with ardent desire, pray that we may have the favour of fulfilment with knowledge and power and win strength and success in our battles of life, and may Indra, lord omnipotent, Vishnu, lord omnipresent, and Maruts, energies and inspirations of all moving Vayu, never forsake us. O lords of light, power and inspiration, O saints and scholars, pray you all protect and promote us with all means and modes of well being and fulfilment all ways all time.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात या गोष्टीची शिकवण आहे, की पुरुषांना सत्पुरुषांच्या संगतीपासून दूर राहता कामा नये, ईश्वरासमोर हृदयापासून निष्पाप होण्याची सदैव प्रार्थना करावी. त्यानेच माणसाचे कल्याण होते. केवळ आपल्या उद्योगाच्या विश्वासावर ईश्वर व विद्वान पुरुषांची उपेक्षा अर्थात, त्यांच्यावर उदासीन दृष्टी कधीही करू नये. ॥८॥
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