ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 13
ऋषिः - पर्वतः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडार्ष्युष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
यं विप्रा॑ उ॒क्थवा॑हसोऽभिप्रम॒न्दुरा॒यव॑: । घृ॒तं न पि॑प्य आ॒सन्यृ॒तस्य॒ यत् ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । विप्राः॑ । उ॒क्थऽवा॑हसः । अ॒भि॒ऽप्र॒म॒न्दुः । आ॒यवः॑ । घृ॒तम् । न । पि॒प्ये॒ । आ॒सनि॑ । ऋ॒तस्य॑ । यत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं विप्रा उक्थवाहसोऽभिप्रमन्दुरायव: । घृतं न पिप्य आसन्यृतस्य यत् ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । विप्राः । उक्थऽवाहसः । अभिऽप्रमन्दुः । आयवः । घृतम् । न । पिप्ये । आसनि । ऋतस्य । यत् ॥ ८.१२.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(यं) यं परमात्मानम् (उक्थवाहसः) स्तोत्रिणः (विप्राः, आयवः) विद्वज्जनाः (अभिप्रमन्दुः) सर्वतः प्रसादयन्ति (यत्) यतः (ऋतस्य, आसन्) यज्ञस्य मुखेऽग्नौ (घृतं, न) घृतं मुक्त्वेव (पिप्ये) प्याययन्ति ॥१३॥
विषयः
तस्य महिमानं गायति ।
पदार्थः
विप्राः=मेधाविनः । उक्थवाहसः=उक्थवाहाः=उक्थानां स्तोत्राणां वोढारः । आयवाः=मनुष्याः । यम्=इन्द्रम् । अभिप्रमन्दुः=अभि= सर्वभावेन प्रमन्दयन्ति=स्वव्यापारेण शुभकर्मणा च प्रसादयन्ति । तस्यैव । ऋतस्य=सत्यस्येन्द्रस्य । आसनि=आस्ये मुखे मुखसमाने अग्निकुण्डे यत् पवित्रं घृतमस्ति । न सम्प्रत्यर्थः । न=सम्प्रति । तद् घृतम् । पिप्ये=वर्द्धये जुहोमीत्यर्थः ॥१३ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यं) जिस परमात्मा को (उक्थवाहसः) श्रोत्रिय (विप्राः, आयवः) मेधावी जन (अभिप्रमन्दुः) सर्वत्र सन्तुष्ट करते हैं (यत्) क्योंकि (ऋतस्य, आसन्) यज्ञमुख अग्नि में (घृतम्, न) जिस प्रकार घृतसिञ्चन कर अग्नि को प्रवृद्ध करते हैं, इसी प्रकार उसको स्तुतियों से प्रकाशित करते हैं ॥१३॥
भावार्थ
जिस प्रकार याज्ञिक लोग घृतद्वारा अग्नि को प्रज्वलित करते=बढ़ाते हैं, इसी प्रकार मेधावी पुरुष स्तुतियों द्वारा परमात्मा के महत्त्व को सर्वत्र प्रजाजनों में विस्तृत करते हैं, ताकि प्रजाजन उसकी महिमा को भले प्रकार जानकर उसी की उपासना में प्रवृत्त रहें ॥१३॥
विषय
उसकी महिमा गाते हैं ।
पदार्थ
विविध प्रकारों से परमात्मा की उपासना विद्वद्गण करते हैं । अन्य पुरुषों को भी उनका अनुकरण करना उचित है, यह शिक्षा इस ऋचा से देते हैं । यथा−(विप्राः) मेधावी विद्वान् (उक्थवाहसः) विविध स्तुति प्रार्थना करनेवाले (आयवाः) मनुष्य (यम्) जिस इन्द्र नामधारी परमात्मा की (अभि) सर्वभाव से (प्रमन्दुः) अपने व्यापार से और शुभकर्मों के द्वारा प्रसन्न करते हैं, उसी (ऋतस्य) सत्यस्वरूप इन्द्र के (आसनि) मुखसमान अग्निकुण्ड में मैं उपासक (न) इस समय (यत्) जो पवित्र (घृतम्) शाकल्य है, उसको (पिप्ये) होमता हूँ अर्थात् उसको कोई स्तुतियों से और कोई आहुतियों से प्रसन्न करता है ॥१३ ॥
भावार्थ
ईश्वर की दैनिक स्तुति और प्रार्थनारूप यज्ञ सबसे बढ़कर है ॥१३ ॥
विषय
राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
( यं ) जिस परमेश्वर को ( उक्थ-वाहसः ) वेद मन्त्रों को धारण करने वाले ( विप्राः ) विद्वान् ( आयवः ) पुरुष ( अभि प्रमन्दुः ) साक्षात् कर प्रसन्न होते, आनन्द लाभ करते हैं उसी प्रकार ( यत् ) जो ( ऋतस्य ) सत्य स्वरूप, परम कारण परमेश्वर सत्य ज्ञान वेद के ( घृतं ) प्रकाशवत् दीप्ति से युक्त है उसको अपने ( आसनि ) मुख में ( घृतम् इव ) पुष्टि दायक घृत के समान ही ( पिप्ये ) पान करूं । अर्थात् मुख से सत्य ज्ञान वेद का अभ्यास, आवर्त्तन मनन आदि अन्न घृतादि आहार के ग्रहण चर्वण आदि के समान ही शनै: २ करना और उसे मनन द्वारा पचाना चाहिये ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
विप्र उक्थवाहस्-आयु
पदार्थ
[१] (यम्) = जिस ज्ञान को (विप्राः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले, (उक्थवाहसः) = स्तोत्रों का धारण करनेवाले (आयवः) = गतिशील मनुष्य (अभिप्रमन्दुः) = प्रशंसित करते हैं, जिस ज्ञान की महिमा का प्रतिपादन ये 'विप्र-उक्थवाहस्- आयु' करते हैं, मैं उस (घृतं न) = घृत के समान 'मलक्षरण व दीप्ति' को प्राप्त करानेवाले ज्ञान को (आसनि) = अपने मुख में (पिप्ये) = आप्यायित करता हूँ। उस ज्ञान को अपने में आप्यायित करता हूँ, (यत्) = जो (ऋतस्य) = सत्य का है। [२] प्रभु से दिया गया वेदज्ञान 'सत्य ज्ञान' है, इसे मैं अपने अन्दर बढ़ाने का प्रयत्न करता हूँ। बढ़ा तभी पाता हूँ जब मैं 'विप्र उक्थवाहस् व आयु' बनता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे में अपना पूरण करने की वृत्ति हो, स्तुति को हम करनेवाले बनें, गतिशील हों। ऐसा होने पर हम सत्य ज्ञान को देनेवाली वेदवाणी को धारण करेंगे। यह हमारे मलों का क्षरण करती हुई हमें दीप्त जीवनवाला बनायेगी।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra is the lord whom vibrant sages and people in general all adore and exalt, singing hymns of worship in his honour, and I too offer songs of adoration while I offer oblations of ghrta into the vedi of yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराची दैनिक स्तुती व प्रार्थनारूपी यज्ञ सर्वात श्रेष्ठ आहे. ॥१३॥
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