ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 12/ मन्त्र 27
य॒दा ते॒ विष्णु॒रोज॑सा॒ त्रीणि॑ प॒दा वि॑चक्र॒मे । आदित्ते॑ हर्य॒ता हरी॑ ववक्षतुः ॥
स्वर सहित पद पाठय॒दा । ते॒ । विष्णुः॑ । ओज॑सा । त्रीणि॑ । प॒दा । वि॒ऽच॒क्र॒मे । आत् । इत् । ते॒ । ह॒र्य॒ता । हरी॒ इति॑ । व॒व॒क्ष॒तुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदा ते विष्णुरोजसा त्रीणि पदा विचक्रमे । आदित्ते हर्यता हरी ववक्षतुः ॥
स्वर रहित पद पाठयदा । ते । विष्णुः । ओजसा । त्रीणि । पदा । विऽचक्रमे । आत् । इत् । ते । हर्यता । हरी इति । ववक्षतुः ॥ ८.१२.२७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 12; मन्त्र » 27
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(विष्णुः) सूर्यः (यदा) यस्मिन् काले (ते, ओजसा) तव बलेन (त्रीणि, पदा) त्रीणि पदानि (विचक्रमे) विक्रामति (आदित्) अनन्तरमेव (ते) तव (हर्यता) कमनीये (हरी) शैत्यनाशनाकर्षणशक्ती (ववक्षतुः) धारयतः ॥२७॥
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! यदा=यस्मिन् समये=प्रातःकाले । ते=तवोत्पादितो विष्णुः=सूर्य्यः । ओजसा=प्रतापेन सह । त्रीणि पदा=पदानि । त्रिषु लोकेषु । विचक्रमे=विक्राम्यति=निदधाति । आद्+इत्= तदन्तरमेव । ते=तव सम्बन्धिनौ । हर्य्यता=हर्य्यतौ सर्वैः कमनीयैः । हरी=परस्परहरणस्वभावौ स्थावरजङ्गमौ संसारौ । त्वाम् । ववक्षतुः=वहतः=प्राणिनां सन्निधौ त्वां प्रकाशयतः । तव स्वरूपं प्रकृतौ दृश्यत इत्यर्थः ॥२७ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(विष्णुः) सूर्य (यदा) जब (ते, ओजसा) आपके पराक्रम से (त्रीणि, पदा) पृथिव्यादि तीनों लोकों में किरणों को (विचक्रमे) फैलाता है (आदित्) तभी (ते) आपकी (हर्यता) कमनीय (हरी) शीतनाशक रसविकर्षकरूप दो शक्तियें (ववक्षतुः) लोक को धारण करती हैं ॥२७॥
भावार्थ
हे सर्वशक्तिसम्पन्न परमेश्वर ! आपसे प्रेरित हुआ सूर्य्य जब अपनी किरणों को प्रसारित करता है, तभी शीत की निवृत्ति होती और सब पदार्थों में रसों का आधान होता है अर्थात् शीतनाशक तथा रसविकर्षकरूप दो शक्तियें भी आप ही के अधीन हैं ॥२७॥
विषय
पुनः उसी अर्थ को कहते हैं ।
पदार्थ
हे इन्द्र परमदेव ! (यदा) जिस समय=प्रातःकाल (ते) तुझसे उत्पादित (विष्णुः) व्यापनशील सूर्य (ओजसा) स्वप्रताप के साथ (त्रीणि+पदा) तीन पैर को तीनों लोक में (विचक्रमे) रखता है अर्थात् जब उदय होता है (आद्+इत्) तदन्तर ही (ते) तेरे (हर्य्यता) सर्वकमनीय (हरी) परस्पर हरणशील स्थावर और जङ्गम द्विविध संसार तुझको (ववक्षतुः) प्रकाशित करते हैं अर्थात् इस सृष्टि में तेरी विभूति दीखने लगती है ॥२७ ॥
भावार्थ
यह सूर्य्य भी इसके महान् यश को प्रकाशित करता है । इस दिवाकर को देख उसका महत्त्व प्रतीत होता है ॥२७ ॥
विषय
राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे प्रभो ! ( यदा ) जब ( ते ) तेरे ( ओजसा ) दिये सामर्थ्य, बल से ( विष्णुः ) देह में प्रविष्ट आत्मा ( त्रीणि ) तीनों ( पढ़ा ) ज्ञातव्य और प्राप्तव्य लोकों को ( विचक्रमे ) पार कर लेता है ( आत् इत् ) अनन्तर ( हर्यता हरी ) कान्तियुक्त हरणशील आत्मा और मन दोनों ( ते ) तुझ तक ( ववक्षतुः ) पहुंचाते हैं । अथवा विष्णु, सूर्य जब तीनों लोकों में व्यापता है तब ( हर्यता हरी ) कान्तियुक्त दोनों लोक तेरा ही बल प्रकाश धारण करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पर्वतः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ८, ९, १५, १६, २०, २१, २५, ३१, ३२ निचृदुष्णिक्। ३—६, १०—१२, १४, १७, १८, २२—२४, २६—३० उष्णिक्। ७, १३, १९ आर्षीविराडुष्णिक्। ३३ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
विष्णु के तीन कदम
पदार्थ
[१] (यदा) = जब (विष्णुः) = यह उदारवृत्ति का पुरुष [विषु व्याप्तौ ] (ते ओजसा) = हे प्रभो ! आप के ओज से, बल से (त्रीणि पदा विचक्रमे) = तीन पदों को रखता है। अर्थात् आपकी उपासना से आपके सम्पर्क में आता हुआ शक्तिशाली बनकर शरीर में तेजस्वी, मन में सब के प्रति हित की भावनावाला व मस्तिष्क में प्राज्ञ बनता है (आत् इत्) = तब शीघ्र ही (हर्यता हरी) = ये गतिशील इन्द्रियाश्व (ते ववक्षतुः) = आपके समीप हमें प्राप्त कराते हैं। [२] प्रभु की उपासना से पूर्व जीव उन्नति न कर सकने के कारण 'वामन' [बौना] -सा होता है। प्रभु की उपासना उसे 'विष्णु' [ व्यापक] बनाती है। यह शरीर में तैजस, मन में वैश्वानर व मस्तिष्क में प्राज्ञ बनता है। यही इसके तीन पद हैं। यह पुरुष अपनी इन्द्रियों से सत्कर्मों को करता हुआ प्रभु के समीप प्राप्त होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम उदारवृत्ति के बनते हुए जीवन में तीन पदों को रखें । तैजस, वैश्वानर व प्राज्ञ बनें। इन्द्रियों से सन्मार्ग का आक्रमण करते हुए प्रभु के समीप प्राप्त हों।
इंग्लिश (1)
Meaning
Since the sun, by virtue of your might and refulgence reaches and illuminates the three worlds of existence, we pray, your radiations of light reveal your presence and illuminate our soul.
मराठी (1)
भावार्थ
हा सूर्यही त्याच्या महान यशाला प्रकाशित करतो. या दिवाकराला पाहून त्याचे महत्त्व प्रतीत होते. ॥२७॥
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