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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    धे॒नुष्ट॑ इन्द्र सू॒नृता॒ यज॑मानाय सुन्व॒ते । गामश्वं॑ पि॒प्युषी॑ दुहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धे॒नुः । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । सू॒नृता॑ । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते । गाम् । अश्व॑म् । पि॒प्युषी॑ । दु॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धेनुष्ट इन्द्र सूनृता यजमानाय सुन्वते । गामश्वं पिप्युषी दुहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धेनुः । ते । इन्द्र । सूनृता । यजमानाय । सुन्वते । गाम् । अश्वम् । पिप्युषी । दुहे ॥ ८.१४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे योद्धः ! (ते, सूनृता) तव सत्यप्रियवाक् (धेनुः) गौरिव (सुन्वते, यजमानाय) कर्म कुर्वते यजमानाय (पिप्युषी) प्रसृता सती (गाम्) ज्ञानम् (अश्वम्) व्यापकं कर्म च (दुहे) दुग्धे ॥३॥

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    विषयः

    वाणी सत्या कर्त्तव्येति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! ते=तवोद्देशेन प्रयुक्ता अस्माकं वाणी । यदि । सूनृता=सत्या सुमधुरा च भवेत् । तर्हि सैव । पिप्युषी=वर्धयित्री=पोषयित्री । धेनुः=धेनुवद्भूत्वा । सुन्वते=शुभानि कर्माणि कुर्वते । यजमानाय । गामश्वञ्च । दुहे=दुग्धे । ददातीत्यर्थः । अन्य धनस्य किं प्रयोजनमित्यर्थः । यद्वा । धेनुरिति वाङ्नाम यदि तवोद्देशेन प्रयुक्ता । धेनुर्वाग् सूनृतास्यां तर्हि सैवेत्यादि पूर्ववत् ॥३ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे योद्धा ! (ते, सूनृता) आपकी सत्य प्रियवाक् (धेनुः) गौ के समान (सुन्वते, यजमानाय) कर्मचारी जन के लिये (पिप्युषी) फैलती हुई (गाम्) ज्ञान को (अश्वम्) और कर्म को (दुहे) दुहती है ॥३॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार गौएँ वृद्धि को प्राप्त हुईं चारों ओर फैल कर अपने दुग्धपान द्वारा सब ज्ञानयोगियों तथा कर्मयोगियों के ज्ञान और बल को बढ़ाकर सब कार्यों को उत्साहसहित तथा नियमपूर्वक कराती हैं, उसी प्रकार सम्राट् की सत्य तथा प्रिय वाणियाँ प्रजावर्ग में फैलकर सब कर्मचारियों को उत्साहसम्पन्न करती हुई ज्ञान-कर्म को समुन्नत करती हैं अर्थात् सत्यवादी तथा विश्वासपात्र राजा से सम्पूर्ण प्रजा तथा उसके कर्मचारीगण प्रसन्न हुए सर्व प्रकार से राष्ट्र की उन्नति में यत्नवान् होते हैं और जो राजा विश्वासपात्र नहीं है, वह शीघ्र ही राष्ट्र से च्युत होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है ॥३॥

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    विषय

    वाणी सत्या बनानी चाहिये, यह दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! (ते) तेरे उद्देश से प्रयुक्त हम लोगों की वाणी यदि (सूनृता) सत्य और सुमधुरा है, तो वही वाणी (पिप्युषी) सदा बढ़ानेवाली (धेनुः) गोसमान होकर (सुन्वते+यजमानाय) शुभ कर्म करनेवाले यजमान को (गाम्) दूध देने के लिये गाएँ और चढ़ने के लिये (अश्वम्) घोड़े (दुहे) सदा देती है । यद्वा (ते) तेरे उद्देश से प्रयुक्त (धेनुः) हम लोगों की वाणी यदि (सूनृता) सत्य और सुमधुर हो, तो वही वाणी इत्यादि पूर्ववत् । धेनु नाम वाणी का भी है, निघण्टु देखो । अर्थात् स्वकीय वाणी को पवित्र और सुसंस्कृत करनी चाहिये और उसको ईश्वर में लगावे, इसी से सर्वसुख आदमी प्राप्त कर सकता है ॥३ ॥

    भावार्थ

    हे इन्द्र ! जो मैं तुझसे सदा धन माँगता रहता हूँ, वह भी अनुचित ही है, क्योंकि त्वत्प्रदत्त वाणी ही मुझको सब देती है । अन्य कोई भी यदि स्वकीया वाणी को भी सुमधुरा और सुसंस्कृता बनावेगा, तब वह उसी से पूर्ण मनोरथ होगा । अतः सर्वदा ईश्वर के समीप धनयाचना न करनी चाहिये, किन्तु तत्प्रदत्त साधनों से उद्योगी होना चाहिये, यह शिक्षा इस ऋचा से देते हैं ॥३ ॥

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    विषय

    सर्व सम्पदा के दाता प्रभु।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! ज्ञानप्रद ! तेजस्विन् ! ज्ञानप्रकाशक ! प्रभो ! गुरो ! विद्वन् ! ( सुन्वते ) शुभकर्म करने वाले, ज्ञान-स्नान करने वाले ( यजमानाय ) देवपूजा, सत्संग शील के लिये ( सूनृता ) उत्तम सत्य, न्याययुक्त ( ते धेनुः ) तेरी वाणी ( पिप्युषी ) उसे बढ़ाती हुई ( गाम् अश्वं दुहे ) गौ अश्वादि सम्पदा भी प्रदान करती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ ऋषी॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ११ विराड् गायत्री। २, ४, ५, ७, १५ निचृद्गायत्री। ३, ६, ८—१०, १२—१४ गायत्री॥ पञ्चदशं सूक्तम्॥

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    विषय

    वेद-धेनु

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ते धेनुः) = आपकी यह वेदवाणीरूपी गौ (सूनृता) = [सु ऊन् ऋत] उत्तम दुःख का परिहाण करनेवाले सत्य ज्ञान-दुग्ध को देनेवाली है । सब सत्य ज्ञानों का यह कोश है। [२] यह (पिप्युषी) = अपने ज्ञान-दुग्ध द्वारा आप्यायन [=वर्धन] करनेवाली वेद-धेनु (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिये तथा (सुन्वते) = अपने शरीर में सोम का अभिषव करनेवाले पुरुष के लिये (गाम्) = ज्ञानेन्द्रियों को तथा (अश्वम्) = कर्मेन्द्रियों को दुहे प्रपूरित करती है। यह वेद-धेनु अपने ज्ञानदुग्ध के द्वारा ज्ञानेन्द्रियों का पोषण करती है, तो यज्ञों की प्रेरणा देती हुई कर्मेन्द्रियों को सबल बनाती है।

    भावार्थ

    भावार्थ-वेद सब सत्य ज्ञानों को देता हुआ हमारी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों का पोषण करता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, the divine voice of your omniscience, omnipotence and bliss overflows with universal truth and rectitude of the law of existence and showers the abundance of prosperity and advancement upon the dedicated yajamana who distils and creates the soma of joy for the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे इन्द्र! मी तुला जे धन मागतो तेही अनुचित आहे, कारण तू दिलेली वाणीच मला सर्व देते. कोणी जर स्वत:च्या वाणीला सुमधुर व सुसंस्कृत बनवील तर तो त्याद्वारेच आपले मनोरथ पूर्ण करील. त्यासाठी ईश्वराजवळ नेहमी धनयाचना करता कामा नये; परंतु त्याने दिलेल्या साधनांनी उद्योगी झाले पाहिजे. ही या ऋचेपासून शिकवण मिळते ॥३॥

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