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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 15
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - सोमः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    त्वं न॑: सोम वि॒श्वतो॑ वयो॒धास्त्वं स्व॒र्विदा वि॑शा नृ॒चक्षा॑: । त्वं न॑ इन्द ऊ॒तिभि॑: स॒जोषा॑: पा॒हि प॒श्चाता॑दु॒त वा॑ पु॒रस्ता॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । नः॒ । सो॒म॒ । वि॒श्वतः॑ । व॒यः॒ऽधाः । त्वम् । स्वः॒ऽवित् । आ । वि॒श॒ । नृ॒ऽचक्षाः॑ । त्वम् । नः॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । स॒ऽजोषाः॑ । पा॒हि । प॒श्चाता॑त् । उ॒त । वा॒ । पु॒रस्ता॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं न: सोम विश्वतो वयोधास्त्वं स्वर्विदा विशा नृचक्षा: । त्वं न इन्द ऊतिभि: सजोषा: पाहि पश्चातादुत वा पुरस्तात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । नः । सोम । विश्वतः । वयःऽधाः । त्वम् । स्वःऽवित् । आ । विश । नृऽचक्षाः । त्वम् । नः । इन्दो इति । ऊतिऽभिः । सऽजोषाः । पाहि । पश्चातात् । उत । वा । पुरस्तात् ॥ ८.४८.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, immortal spirit of peace, power and bliss, you are the treasure giver of food, energy and life for the world. You are the treasure giver of heavenly joy and watcher and leading light of the people. O soma, fluent stream of life energy, loving and friendly, with all your powers and protections, safeguard and promote us in front, on the back and all round.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वरच सर्वांना अन्न इत्यादी प्रदान करून सुख देतो व सर्वांच्या कर्मांचा द्रष्टा असून त्यानुसार फळ देतो. ॥१५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे सोम ! त्वम् । नोऽस्माकम् । विश्वतः=सर्वतः । वयोधाः=अन्नदाता । त्वम् । स्वर्विद्=सुखप्रापकः । पुनः । नृचक्षाः=मनुष्याणां निखिलकर्मद्रष्टा । स त्वमाविश । हे इन्दो ! त्वं सजोषाः=सहप्रियभागाः सन् । ऊतिभिः=रक्षणैः सह । पश्चातात्=पश्चात् । उत वा पुरस्तात् । नोऽस्मान् पाहि ॥१५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (सोम) हे सर्वप्रिय जगद्रचयिता ईश ! (त्वम्) तू (नः) हम लोगों को (विश्वतः) सर्व प्रकार और सर्व दिशाओं से (वयोधाः) अन्न दे रहा है, (त्वम्+स्वर्विद्) तू ही सुख देनेवाला है, तू ही (नृचक्षाः) मनुष्यों के निखिल कर्मों को देखनेवाला है, वह तू (आविश) हमारे हृदय में प्रवेश कर । (इन्दो) हे जगदाह्लादक ! (त्वम्+सजोषाः) तू हम लोगों के साथ प्रसन्न होता हुआ (पश्चातात्) पीछे (उत+वा+पुरस्तात्) या आगे (ऊतिभिः) रक्षाओं और साहाय्यों से (नः+पाहि) हमारी रक्षा कर ॥१५ ॥

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    विषय

    विद्वानों से प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (सोम) विद्वन् ! वीर्यवत् पालक पोषक ! ( त्वं नः विश्वतः वयोधाः ) तू हमें सब प्रकार से ज्ञान, बल, आयु धारण कराने वाला, तू ( स्वर्विद् ) सुखदाता, ज्ञानप्रकाशक, सर्वज्ञ, तू ( नृ-चक्षाः ) सबका द्रष्टा होकर ( नः आविश ) हमें प्राप्त हो। हे ( इन्दो ) ऐश्वर्यवन् ! ( त्वं ) तू ( नः ) हमें ( सजोषाः ) सप्रेम (ऊतिभिः पाहि) रक्षा साधनों से सदा पालन कर। और तू ( पश्चातात् उत वा पुरस्तात् ) हमारी पीछे और आगे से भी रक्षा कर। इति त्रयोदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ सोमो देवता॥ छन्द:—१, २, १३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। १२, १५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३, ७—९ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ६, १०, ११, १४ त्रिष्टुप्। ५ विराड् जगती॥ पञ्चदशचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वयोधाः स्वर्वित्

    पदार्थ

    [१] हे (सोम) = वीर्य ! (त्वं) = तू (नः) = हमारे लिए (विश्वतः) सब दृष्टिकोणों से (वयोधाः) = उत्कृष्ट जीवन को धारण करनेवाला है। (त्वं) = तू ही (स्ववित्) = प्रकाश को प्राप्त करानेवाला है। (नृचक्षाः) = मनुष्यों का ध्यान करनेवाला तू (आविश) = शरीर में सब अंगों में प्रवेशवाला हो। [२] हे (इन्दो) = सोम ! (त्वं) = तू (नः) = हमारे लिए (ऊतिभिः) = [ऊतयः - महतः प्राणाः] प्राणों के साथ (सजोषाः) = संगत हुआ-हुआ उनके साथ (प्रीयमाण) = होता हुआ (पश्चातात्) = पीछे से (उत वा) = अथवा (पुरस्तात्) = आगे से (पाहि) = रक्षित करनेवाला हो।

    भावार्थ

    भावार्थ:- सुरक्षित सोम उत्कृष्ट जीवन को व प्रकाश को प्राप्त कराता है। यह प्राणों के साथ हमारा सर्वतः रक्षण करता है। सोमरक्षण के उद्देश्य से ही अगले सूक्त में 'इन्द्र' का उपासन है। इस उपासन को करनेवाला मेधावी 'प्रस्कण्व काण्व' सूक्त का ऋषि है-

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    मन्त्रार्थ

    (सोम) हे सोम (त्वं नः-विश्वतः-वयोधाः) तू सब ओर से-सब प्रकार से सब अङ्गों में आस्था-स्थिति शक्ति आयु का धारण कराने वाला है (त्वं स्ववित्) तू सुख का अनुभव या प्राप्त कराने वाला (नृचक्षाः) मनुष्यों को ज्ञानशक्ति देनेवाला है (विश) मेरे अन्दर प्रविष्ट हो (इन्दो) हे सोम! (त्वं सजोषः) तू सेवन के साथ ही (ऊतिभिः) रक्षणधाराओं के द्वारा (पश्चातात्-पुरस्तात्-वा) पश्चिम से और पूर्व से सूर्य के से लेकर अस्त होने तक अस्त होने से उदय होने तक अर्थात् दिनरात (नः पाहि) हमारी रक्षा कर ॥१५॥

    विशेष

    ऋषिः– प्रगाथः काणव: (कण्व-मेधावी का शिष्य "कण्वो मेधावी" [ निघ० ३।१५] प्रकृष्ट गाथा-वाक्-स्तुति, जिसमें है "गाथा वाक्" [निघ० १।११] ऐसा भद्र जन) देवता - सोमः आनन्द धारा में प्राप्त परमात्मा “सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः। जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः” (ऋ० ९।९६।५) तथा पीने योग्य ओषधि "सोमं मन्यते पपिवान् यत् सम्पिषंम्त्योषधिम् ।” (ऋ० १०।८५।३)

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