ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 53/ मन्त्र 2
य आ॒युं कुत्स॑मतिथि॒ग्वमर्द॑यो वावृधा॒नो दि॒वेदि॑वे । तं त्वा॑ व॒यं हर्य॑श्वं श॒तक्र॑तुं वाज॒यन्तो॑ हवामहे ॥
स्वर सहित पद पाठयः । आ॒युम् । कुत्स॑म् । अ॒ति॒थि॒ऽग्वम् । अर्द॑यः । व॒वृ॒धा॒नः । दि॒वेऽदि॑वे । तम् । त्वा॒ । व॒यम् । हरि॑ऽअश्वम् । श॒तऽक्र॑तुम् । वा॒ज॒ऽयन्तः॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
य आयुं कुत्समतिथिग्वमर्दयो वावृधानो दिवेदिवे । तं त्वा वयं हर्यश्वं शतक्रतुं वाजयन्तो हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठयः । आयुम् । कुत्सम् । अतिथिऽग्वम् । अर्दयः । ववृधानः । दिवेऽदिवे । तम् । त्वा । वयम् । हरिऽअश्वम् । शतऽक्रतुम् । वाजऽयन्तः । हवामहे ॥ ८.५३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 53; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Seekers of food and energy, honour and excellence, and advancement and success in life, we pray to you, lord of a hundred great acts of holiness, commander of the dynamic forces of achievement, you who give life, thunderbolt of power and justice, and the spirit of hospitality to people while you lead them on the path of progress day by day.
मराठी (1)
भावार्थ
जगातील सर्व पदार्थ अन्न-ज्ञान-विभिन्न साधन परम प्रभूची देणगी आहे. तेच माणसाला सुमार्ग दाखवितात. त्या प्रभूला प्राप्त करण्यासाठी त्याच्या गुणांचे वारंवार स्मरण व उच्चारण आवश्यक आहे. ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दिवेदिवे) निशिदिन (वावृधानः) बढ़ाते हुए (यः) जो प्रभु (आयुम्) प्राप्तव्य अन्न-ज्ञान आदि को, (कुत्सम्) शत्रुओं व शत्रुभावनाओं को तिरस्कृत करने के साधन वज्र इत्यादि को तथा (अतिथिग्वम्) अतिथिवद् पूज्यों का संगम कराने वाले साधनों को (अर्दयः) दिलाते हैं (तम्) उन, (हर्यश्वम्) मनुष्यों को सुपथ पर शीघ्र चलाने वाले, (शतक्रतुम्) सैकड़ों प्रज्ञा व कर्मशील, आपको (वाजयन्तः) प्राप्त करना चाहते हुए हम (हवामहे) आपकी वन्दना करते हैं॥२॥
भावार्थ
सकल सांसारिक पदार्थ, अन्न-ज्ञान-विभिन्न साधन, परमपिता परमात्मा की ही देन है; वही मानव को सुमार्ग दिखाते हैं; उन परमात्मा को प्राप्त करने हेतु उनके गुणों का बार-बार स्मरण व उच्चारण अनिवार्य है॥२॥
विषय
missing
भावार्थ
( यः ) जो ( दिवे-दिवे ) दिनोदिन ( वावृधानः ) निरन्तर बढ़ता हुआ ( आयुम् ) शरण में आने वाले ( कुत्सम् ) स्तुति करने वाले और ( अतिथिग्वम् ) अतिथिवत् परमेश्वर के प्रति उत्तम स्तुति वाणी का प्रयोग करने वाले पुरुष को ( अर्दयः ) प्राप्त होता वा सन्मार्ग में चलाता है ( तं हर्यश्वं ) उस तुझ मनुष्यों को अश्वों के तुल्य सन्मार्ग में संचालन करने वाले ( शत-क्रतुं त्वां ) सैकड़ों कर्म और प्रज्ञाओं वाले तुझ प्रभु वा विद्वान् से ( वाजयन्तः ) बल, ज्ञान, ऐश्वर्य की कामना करते हुए हम ( हवामहे ) याचना किया करें।
टिप्पणी
अर्दयः– अर्द गतौ याचने च। भ्वादिः। स्वार्थे णिच्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यः काण्व ऋषिः॥ छन्दः—१, ५, ७ विराड बृहती। ३ आर्ची स्वराड् बृहती। २, ४, ६ निचृत् पंक्ति:। ८ विराट् पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
'आयु-कुत्स-अतिथिग्व-हर्यश्व व शतक्रतु'
पदार्थ
[१] (यः) = जो प्रभु (आयुं) = गतिशील पुरुष को, (कुत्सं) = वासनाओं का संहार करनेवाले को, (अतिथिग्वं) = उस महान् अतिथि प्रभु की ओर जानेवाले को (अर्दयः) = प्राप्त होते हैं [अर्द गतौ ], जो (दिवे-दिवे) = प्रतिदिन (वावृधान:) = हमारा खूब ही वर्धन करनेवाले हैं, (तं त्वा) = उन आपको (वयं) = हम (हवामहे) = पुकारते हैं। आपके अनुग्रह से ही तो हम 'आयु, कुत्स व अतिथिग्व' बन पाते हैं। [२] हम (वाजयन्तः) = शक्ति को प्राप्त करने की कामनावाले होते हुए (हर्यश्व्वं) = तेजस्वी इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले, (शतक्रतुं) = अनन्त प्रज्ञान व शक्तिवाले प्रभु को पुकारते हैं। प्रभु के अनुग्रह से हम 'हर्यश्व व शतक्रतु' बन पाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का आराधन करते हुए हम 'आयु, कुत्स, अतिथिग्व, हर्यश्व व शतक्रतु' बनें।
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