ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 53/ मन्त्र 4
विश्वा॒ द्वेषां॑सि ज॒हि चाव॒ चा कृ॑धि॒ विश्वे॑ सन्व॒न्त्वा वसु॑ । शीष्टे॑षु चित्ते मदि॒रासो॑ अं॒शवो॒ यत्रा॒ सोम॑स्य तृ॒म्पसि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वा॑ । द्वेषां॑सि । ज॒हि । च॒ । अव॑ च॒ । आ । कृ॒धि॒ । विश्वे॑ । स॒न्व॒न्तु॒ । आ । वसु॑ । शीष्टे॑षु । चि॒त् । ते॒ । म॒दि॒रासः॑ । अं॒शवः॑ । यत्र॑ । सोम॑स्य । तृ॒म्पसि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वा द्वेषांसि जहि चाव चा कृधि विश्वे सन्वन्त्वा वसु । शीष्टेषु चित्ते मदिरासो अंशवो यत्रा सोमस्य तृम्पसि ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वा । द्वेषांसि । जहि । च । अव च । आ । कृधि । विश्वे । सन्वन्तु । आ । वसु । शीष्टेषु । चित् । ते । मदिरासः । अंशवः । यत्र । सोमस्य । तृम्पसि ॥ ८.५३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 53; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, divine soul, destroy all hate and enmities, protect the yajamana and others, do good, let all create all wealth and joys of the world in the heart of the educated and cultured where you drink and enjoy the exhilarating draughts of soma.
मराठी (1)
भावार्थ
भगवद्भक्तीच्या परमसुखाने आप्लावित चित्त काही विशेष नियमात आबद्ध होऊन हर्षित होते. अशा चित्तातून द्वेष भावना दूर होतात व साधक सर्व प्रकारे समृद्ध होतो. ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्र) जब (शीष्टेषु) प्रशिक्षित, (चित्ते) अन्तःकरण (सोमस्य) सम्पादयितव्य सुख के (मदिरासः) मादक (अंशवः) कणों से (तृम्पसि) तृप्त हो जाते हैं, तब (विश्वाः) सारी (द्वेषांसि) द्वेष भावनाएं (जहि) दूर हो जाती हैं (च) और [साधक] सब द्वेषभावनाओं को (अवकृधि) त्याग देता है। उस स्थिति में (विश्वे) सारे (वसु) वासक ऐश्वर्य (सन्वन्तु) साधक की सेवा करते हैं॥४॥
भावार्थ
प्रभु की भक्ति के परमसुख से भरा चित्त कुछ विशेष नियमों में आबद्ध हो हर्षित हो जाता है; ऐसे चित्त में द्वेष की भावनाओं को स्थान नहीं रहता और साधक सब भाँति समृद्ध हो जाता है॥४॥
विषय
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भावार्थ
( यत्र ) जिस दशा में तू ( सोमस्य तृम्पसि ) ऐश्वर्य से तृप्त होता है, उसी दशा में तू (विश्वा द्वेषांसि ) समस्त प्रकार के द्वेषों को और द्वेष करने वाले जनों को ( जहि ) विनष्ट कर और ( अव कृधि च ) नीचा कर। ( चित्त मदिरासः ) चित्त में सुप्रसन्न ( अंशवः ) व्याप्त विद्यावान् ( विश्वे ) समस्त जन ( शिष्टेषु ) शिष्टों, विद्वानों के बीच में ( त्वा वसु सन्वन्तु ) तुझे समस्त ऐश्वर्य प्रदान करें। इति द्वाविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेध्यः काण्व ऋषिः॥ छन्दः—१, ५, ७ विराड बृहती। ३ आर्ची स्वराड् बृहती। २, ४, ६ निचृत् पंक्ति:। ८ विराट् पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
निर्देषता व उल्लास
पदार्थ
[१] हे इन्द्र ! (यत्रा) = जहाँ (सोमस्य तृम्पसि) = तू सोम से तृप्ति का अनुभव करता है, वहाँ (विश्वा) = सब (द्वेषांसि) = द्वेषो को जहि विनष्ट कर, (च) = और (अवकृधि) = सब द्वेषों को हमारे से दूर कर । सोमरक्षण से द्वेषादि की वृत्तियाँ उत्पन्न ही नहीं होती। [२] इस सोमरक्षण से (विश्वे) = सब (वसु) = धन (आ सन्वन्तु) = तुझे प्राप्त हों। ये (अंशवः) = सोमकण (शीष्टेषु) = शिष्ट पुरुषों में (चित्ते मदिरासः) = हृदय में उल्लास को पैदा करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से निर्देषता प्राप्त होती है और हृदयों में उल्लास होता है।
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