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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 75/ मन्त्र 10
    ऋषिः - विरुपः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    नम॑स्ते अग्न॒ ओज॑से गृ॒णन्ति॑ देव कृ॒ष्टय॑: । अमै॑र॒मित्र॑मर्दय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नमः॑ । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । ओज॑से । गृ॒णन्ति॑ । दे॒व॒ । कृ॒ष्टयः॑ । अमैः॑ । अ॒मित्र॑म् । अ॒र्द॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमस्ते अग्न ओजसे गृणन्ति देव कृष्टय: । अमैरमित्रमर्दय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नमः । ते । अग्ने । ओजसे । गृणन्ति । देव । कृष्टयः । अमैः । अमित्रम् । अर्दय ॥ ८.७५.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 75; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Salutations to you, Agni, refulgent lord of generosity. The people too adore and exalt you. Pray ward off and throw out the enemies and unfriendly forces by your laws and powers.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रत्येक माणसाने परस्पर द्रोहापासून लांब राहावे. तेव्हाच जगाचा शत्रूसमूह नष्ट होऊ शकतो. ॥१०॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    अग्ने=सर्वाधार ! हे देव=दिव्यगुणसम्पन्न ! कृष्टयः=प्रजाः । ओजसे=बलाय । ते=तुभ्यम् । नमः+गृणन्ति=नमः शब्दमुच्चारयन्ति । स त्वम् । अमैः=स्वनियमैः । अमित्रं= संसारशत्रुम् । अर्दय=विनाशय ॥१० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वाधार (देव) दिव्यगुणसम्पन्न ईश ! (कृष्टयः) प्रजागण (ओजसे) बलप्राप्ति करने के लिये (ते) तुमको (नमः+गृणन्ति) नमस्कार करते हैं । वह तू (अमैः) अपने नियमों से (अमित्रम्) जगत् के शत्रुओं को (अर्दय) दूर कर ॥१० ॥

    भावार्थ

    प्रत्येक आदमी को उचित है कि वह परस्पर द्रोह की चिन्ता से अलग रहे, तब ही जगत् के शत्रुसमूह चूर्ण हो सकते हैं ॥१० ॥

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    विषय

    राजा को शत्रुपीड़न का उपदेश।

    भावार्थ

    हे ( देव ) दानशील ! हे तेजस्विन् ! ( अग्ने ) अग्निवत् शत्रु-संतापक ! तू ( ते ओजसे ) तेरे पराक्रम के लिये ( कृष्टयः ) सब प्रजा के मनुष्य ( नमः गृणन्ति ) विनय युक्त वचन कहते हैं। तू (अमैः) सहायकों, बलों वा सैन्यों और दुःखदायी रोगों वा भटों से ( अमित्रम् अर्दय ) शत्रु को पीड़ित कर। इति पञ्चविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप ऋषि:॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ५, ७,९,११ निचृद् गायत्री। २, ३, १५ विराड् गायत्री । ८ आर्ची स्वराड् गायत्री। षोडशर्चं सूक्तम॥

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    विषय

    अमित्र-अर्दन

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = सब दोषों को दग्ध करनेवाले प्रभो! हे (देव) = सब शत्रुओं को जीतने की कामना करनेवाले प्रभो! (कृष्टयः) = श्रमशील व्यक्ति ही वस्तुतः (गृणन्ति) = आपका स्तवन करते हैं। स्तुति हमें पुरुषार्थवाला बनाती है। हम स्तुत्य के गुणों को धारण करने के लिए यत्नशील होते हैं। [२] हे प्रभो ! (अमैः) = बलों के द्वारा (अमित्रम्) = हमारे शत्रुभूत काम-क्रोध आदि को (अर्दय) = आप पीड़ित करके हमारे से दूर करिये। हमें शक्ति दीजिए कि हम काम-क्रोध आदि से ऊपर उठ पायें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के प्रति नमन व स्तवन से ओज को प्राप्त करके हम काम आदि शत्रुओं का संहार करें।

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