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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 75/ मन्त्र 2
    ऋषिः - विरुपः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒त नो॑ देव दे॒वाँ अच्छा॑ वोचो वि॒दुष्ट॑रः । श्रद्विश्वा॒ वार्या॑ कृधि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नः॒ । दे॒व॒ । दे॒वान् । अच्छ॑ । वो॒चः॒ । वि॒दुःऽत॑रः । श्रत् । विश्वा॑ । वार्या॑ । कृ॒धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत नो देव देवाँ अच्छा वोचो विदुष्टरः । श्रद्विश्वा वार्या कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । नः । देव । देवान् । अच्छ । वोचः । विदुःऽतरः । श्रत् । विश्वा । वार्या । कृधि ॥ ८.७५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 75; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And O light of the world, omniscient lord, speak graciously to us, seekers of light and divinity, and reveal in truth the facts and processes cherished and valued on top of everything else for the good of life in existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    भगवान आमच्या हृदयप्रदेशात उपदेश करतो व या जगातील प्रत्येक पदार्थही माणसांना सदुपदेश देत आहे, परंतु हे तत्त्व फार थोडे लोक जाणतात. हे माणसांनो! त्याला शरण येऊन जगाचे अध्ययन करा. ॥२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अग्निनाम्नेश्वरस्य स्तुतिः ।

    पदार्थः

    उत=अपि च । हे देव ! देवान्=शोभनकर्मवतः । विदुष्टरः=अतिशयेन विदुषः । नोऽस्मान् । अच्छ=अभिमुखं यथा तथा । वोचः=उपदिश । तथा विश्वा=सर्वाणि । वार्य्या=वरणीयानि ज्ञानानि । श्रत्=सत्यानि । कृधि=विधेहि ॥२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अग्निनाम से ईश्वर की स्तुति कहते हैं ।

    पदार्थ

    (उत) और भी (देव) हे देव=ईश ! (देवान्) तेरी आज्ञा पर चलने के कारण शोभन कर्मवान् और (विदुष्टरः) जगत् के तत्त्वों को जाननेवाले (नः) हम उपासकों को (अच्छ) अभिमुख होकर (वाचः) उपदेश दे और (विश्वा) समस्त (वार्य्या) वरणीय ज्ञानों और धनों को (श्रद्+कृधि) सत्य बना ॥२ ॥

    भावार्थ

    भगवान् हमारे हृदयप्रदेश में उपदेश देता है और इस जगत् के प्रत्येक पदार्थ भी मनुष्यों को सदुपदेश दे रहे हैं, परन्तु इस तत्त्व को विरले ही विद्वान् समझते हैं । हे मनुष्यों ! इसकी शरण में आकर इस जगत् का अध्ययन करो ॥२ ॥

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    विषय

    प्रधान शासक के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( देव ) ज्ञानदातः ! दानशील ! हे तेजस्विन् ! तू ( विदुस्तरः ) सब से उत्तम विद्वान् होकर ( देवान् नः ) विद्या की कामना करने वाले हम लोगों को ( अच्छ वोचः ) अभिमुख उपदेश कर। (उत) और ( विश्वा वार्या श्रुत् कृधि ) समस्त वरण करने योग्य उत्तम ज्ञानों को सत्य रूप में प्रकट कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप ऋषि:॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ४, ५, ७,९,११ निचृद् गायत्री। २, ३, १५ विराड् गायत्री । ८ आर्ची स्वराड् गायत्री। षोडशर्चं सूक्तम॥

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    विषय

    विदुष्टरः

    पदार्थ

    हे (देव) = ज्ञानी ! तू (विदुस्तरः) = श्रेष्ठ विद्वान् होकर (देवान्) = ज्ञानेच्छुक (नः) = हमको (अच्छ वोचः) = उपदेश कर, (उत) = तथा (विश्वा) = सम्पूर्ण वार्यावरणीय ज्ञानों को (श्रत्) = सत्य ही (कृधि) = प्रकट कर।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञानी पुरुष श्रेष्ठ ज्ञान को प्रकट करे छिपाये नहीं।

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