ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 82/ मन्त्र 6
इन्द्र॑ श्रु॒धि सु मे॒ हव॑म॒स्मे सु॒तस्य॒ गोम॑तः । वि पी॒तिं तृ॒प्तिम॑श्नुहि ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । श्रु॒धि । सु । मे॒ । हव॑म् । अ॒स्मे इति॑ । सु॒तस्य॑ । गोऽम॑तः । वि । पी॒तिम् । तृ॒प्तिम् । अ॒श्नु॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र श्रुधि सु मे हवमस्मे सुतस्य गोमतः । वि पीतिं तृप्तिमश्नुहि ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । श्रुधि । सु । मे । हवम् । अस्मे इति । सुतस्य । गोऽमतः । वि । पीतिम् । तृप्तिम् । अश्नुहि ॥ ८.८२.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 82; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, listen to my call, come and have a drink of our distilled soma seasoned with milk and ecstatic power to your total fulfilment of the heart and soul.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रभुनिर्मित सृष्टीचे पदार्थ ऐश्वर्याचे साधक आहेत. विद्वान त्यांचे ज्ञान साररूपात प्राप्त करतात. साधकाने विद्वानांद्वारे सम्यकपणे उपस्थापित ज्ञान विज्ञान आत्मसात करावे व तृप्तीचा अनुभव घ्यावा. ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्य की साधना करने वाले! (मे) मेरी (हवम्) पुकार को (सु, श्रुधि) भलीभाँति सुन। (अस्मे) हम में से विद्वानों के द्वारा (सुतस्य) सार रूप में निचोड़े हुए, (गोमतः) ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित, प्रभु रचित ऐश्वर्यप्रद पदार्थों के सारभूत विज्ञान की (पीति) पान क्रिया को (वि, अश्नुहि) भाँति-भाँति से व्याप्त कर; उसको विविधरूप से आत्मसात् कर और (तृप्तिम्) तृप्ति पा॥६॥
भावार्थ
प्रभु द्वारा रचित सृष्टि के पदार्थ ऐश्वर्यसाधक हैं और उनका ज्ञान साररूप में विद्वान् पाते हैं। साधक को चाहिये कि विद्वानों के द्वारा सम्यक् रूप से उपस्थापित ज्ञान-विज्ञान को आत्मसात् करें और इस तरह तृप्ति अनुभव करें॥६॥
विषय
ऐश्वर्य आदि का पात्र राजा।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( मे हवम् ) मेरी प्रार्थना वा उपदेश को भली प्रकार (सु श्रुधि) श्रवण कर। तू ( अस्मे ) हमारे ( गोमतः सुतस्य ) गो-रस दुग्धादि से मिश्रित अन्न तथा भूमि सहित उत्पन्न ऐश्वर्य का ( पीतिम् ) पान, उपभोग आदि तथा ( तृप्तिम् ) तृप्ति को भी ( वि अश्नुहि ) विविध प्रकार से प्राप्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुसीदी काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, ६ निचृद् गायत्री। २, ५, ६, ८ गायत्री। ३, ४ विराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
सोम की पीति व तृप्ति
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (मे हवम्) = मेरी प्रार्थना को (सु श्रुधि) = सम्यक् सुनिये। आप (अस्मे) = हमारे हित के लिये (सुतस्य) = उत्पन्न किये गये (गोमतः) = प्रशस्त ज्ञान की वाणियोंवाले सोम के (प्रीतिम्) = पान को व (तृप्तिम्) = तृप्ति को (वि अश्नुहि) = व्याप्त करिये। [२] आपकी कृपा से सोम मेरे अन्दर सुरक्षित हो। यह सोम मुझे तृप्ति का अनुभव कराये।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का आराधन करते हुए सोम को शरीर में सुरक्षित कर सकें और तृप्ति का अनुभव करें।
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