ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 82/ मन्त्र 1
आ प्र द्र॑व परा॒वतो॑ऽर्वा॒वत॑श्च वृत्रहन् । मध्व॒: प्रति॒ प्रभ॑र्मणि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । प्र । द्र॒व॒ । प॒रा॒ऽवतः॑ । अ॒र्वा॒ऽवतः॑ । च॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । मध्वः॑ । प्रति॑ । प्रऽभ॑र्मणि ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ प्र द्रव परावतोऽर्वावतश्च वृत्रहन् । मध्व: प्रति प्रभर्मणि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । प्र । द्रव । पराऽवतः । अर्वाऽवतः । च । वृत्रऽहन् । मध्वः । प्रति । प्रऽभर्मणि ॥ ८.८२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 82; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O destroyer of darkness, evil and ignorance, come rushing without delay, whether you are far or near, and join us in this vibrant yajnic economy of the divine order. (O man in search of the soul, rush in from roaming around and join the living systemic world within at the vibrant centre.)
मराठी (1)
भावार्थ
जीवनात सर्व प्रकारच्या ऐश्वर्याच्या प्राप्तीसाठी हे आवश्यक आहे, की साधकाने आपल्या आत्म्याला एक क्षणही विसरू नये. आत्मतत्त्वाला त्याच्या यथार्थ स्वरूपामध्ये जाणावे व या साधनेच्या बाधक कारणांना सदैव नष्ट करावे. ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वृत्रहन्) कार्यसिद्धि में आने वाले विघ्नों के विध्वंसक उपासक! (प्रभर्मणि) पुष्टि व सहायता अनुकूलता--अनुग्रह आदि के लिये (परावतः) दूर से (च) और (अर्वावतः) समीप से भी (मध्वः प्रति) आत्मा की ओर, अपने आत्मतत्त्व की ओर (आ प्र द्रव) दौड़ आ॥१॥ (आत्मा वै पुरुषस्य मधु-तै० सं० २-३-२-९)
भावार्थ
जीवन में सब भाँति ऐश्वर्य प्राप्ति हेतु आवश्यक है कि साधक अपनी आत्मा को एक क्षणभर के लिये न भूले; आत्मतत्त्व को उसके यथार्थस्वरूप में जाने। इस साधना के बाधक कारणों को सदा नष्ट करे॥१॥
विषय
धनसम्पन्न व्यापारी वर्ग के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( वृत्रहन् ) दुष्टों के नाश करने हारे ! तू ( प्र-भर्मणि ) उत्तम ऐश्वर्य संग्रह करने वालों से युक्त इस राष्ट्र में या उत्तम २ पदार्थों को संग्रह करने के कार्य के निमित्त ( मध्वः प्रति ) मधुर, सुखकारी अन्नों को प्राप्त करने के लिये ( परावतः अर्वावतः च ) दूर और समीप के देशों से वा उन देशों को ( आ द्रव प्र द्रव ) आया और जाया कर। व्यापार से सब सुखकारी पदार्थों का आयात निर्यात किया कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुसीदी काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७, ६ निचृद् गायत्री। २, ५, ६, ८ गायत्री। ३, ४ विराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
परावतः+अर्वावतः
पदार्थ
[१] हे (वृत्रहन्) = वासनाओं को विनष्ट करनेवाले प्रभो! आप (परावतः) = सुदूर फल के हेतु से, अर्थात् परलोक में निःश्रेयस की प्राप्ति के हेतु से (त्र) = तथा (अर्वावतः) = समीप फल के हेतु से, अर्थात् इहलोक में अभ्युदय की प्राप्ति के हेतु से (आ प्रद्रव) = हमें सर्वतः प्राप्त होइये। आपने ही हमें अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त कराना है। [२] हे प्रभो ! (मध्वः) = सब ओषधियों के सारभूत व जीवन को मधुर बनानेवाले सोम के (प्रति प्रभर्मणि) = प्रतिदिन धारण के निमित्त आप हमें प्राप्त होइये। आपकी उपासना ही हमें वासनाओं से बचाकर इस सोम के रक्षण के योग्य बनायेगी।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुस्तवन हमें वासनाओं से बचाकर अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त कराता है तथा सोम के रक्षण के योग्य करता है।
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