ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 94/ मन्त्र 10
ऋषिः - बिन्दुः पूतदक्षो वा
देवता - मरूतः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्यान्नु पू॒तद॑क्षसो दि॒वो वो॑ मरुतो हुवे । अ॒स्य सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्यान् । नु । पू॒तऽद॑क्षसः । दि॒वः । वः॒ । म॒रु॒तः॒ । हु॒वे॒ । अ॒स्य । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्यान्नु पूतदक्षसो दिवो वो मरुतो हुवे । अस्य सोमस्य पीतये ॥
स्वर रहित पद पाठत्यान् । नु । पूतऽदक्षसः । दिवः । वः । मरुतः । हुवे । अस्य । सोमस्य । पीतये ॥ ८.९४.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 94; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Those, O Maruts, heroes of power and purity, I call from your regions of light to come and to enjoy, protect and promote this delight and beauty of the world of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
पदार्थांच्या व्यवहाराचा बोध पदार्थ पसरवून, विश्लेषण करून, प्रकट करून, प्रदर्शन करून, वृद्धी करून केला जातो. जी माणसे आपल्या निर्दोष सामर्थ्याने ज्ञान प्राप्त करतात. त्यांच्याकडूनच दुसऱ्यांनी ते ज्ञान प्राप्त केले पाहिजे. ॥९,१०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ये) जिन (मरुतः) बलिष्ठ मनुष्यों ने (सोमपीतये) सृष्ट पदार्थों के समुचित व्यवहार के बोध रूप रस का पान करने हेतु (विश्वा) सभी (पार्थिवानि) भौतिक तथा (दिवः रोचना) अपनी द्युति से प्रकाशित रचनाओं को (आ, पप्रथन्) विस्तृत किया है॥९॥ (त्यान्) उन (नु) ही (पूतदक्षसः) अपनी सामर्थ्य को निर्दोष रखे हुए (वः) आप ( मरुतः) मनुष्यों को (अस्य सोमस्य पीतये) इन सोम पदार्थों के व्यवहार का बोध प्रदान करने हेतु हुए आमन्त्रण देता हूँ॥१०॥
भावार्थ
पदार्थों के व्यवहार का ज्ञान पदार्थों को फैलाकर, उनका विश्लेषण कर, उन्हें प्रकट कर, उनका प्रदर्शन करके, उनमें वृद्धि करके ही किया जाता है। जो मानव अपने सामर्थ्य को निर्दोष रख उस ज्ञान को पाते हैं, उनसे ही दूसरों को वह ज्ञान लेना चाहिये॥९, १०॥
विषय
उन के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( अस्य सोमस्य पीतये ) इस ऐश्वर्य की रक्षा के लिये मैं ( पूत-दक्षसः ) पवित्र कर्म वाले, आचारवान् ( मरुतः ) बलवान् (त्यान्) उन पुरुषों को ( दिवः ) उन की इच्छाओं के अनुसार ( हुवे ) स्वीकार करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बिन्दुः पूतदक्षो वा ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्दः—१, २, ८ विराड् गायत्री। ३, ५, ७, ९ गायत्री। ४, ६, १०—१२ निचृद् गायत्री॥
विषय
पूतदक्षसः- दिवः
पदार्थ
[१] मैं (त्यान्) = उन (मरुतः) = प्राणों को (नु) = अब (हुवे) = पुकारता हूँ जो (वः) = तुम्हारे (पूतदक्षसाः) = बल को पवित्र करनेवाले हैं और (दिवः) = ज्ञान की दीप्ति को देनेवाले हैं। [२] इन मरुतों को मैं (अस्य) = इस (सोमस्य) = सोम के (पीतये) = पान व रक्षण के लिये पुकारता हूँ। सोमरक्षण द्वारा ही ये मरुत् बल व ज्ञान का वर्धन करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से सोमरक्षण द्वारा ज्ञान तथा बल का वर्धन होता है।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal