ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 94/ मन्त्र 4
ऋषिः - बिन्दुः पूतदक्षो वा
देवता - मरूतः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अस्ति॒ सोमो॑ अ॒यं सु॒तः पिब॑न्त्यस्य म॒रुत॑: । उ॒त स्व॒राजो॑ अ॒श्विना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअस्ति॑ । सोमः॑ । अ॒यम् । सु॒तः । पिब॑न्ति । अ॒स्य॒ । म॒रुतः॑ । उ॒त । स्व॒ऽराजः॑ । अ॒श्विना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्ति सोमो अयं सुतः पिबन्त्यस्य मरुत: । उत स्वराजो अश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठअस्ति । सोमः । अयम् । सुतः । पिबन्ति । अस्य । मरुतः । उत । स्वऽराजः । अश्विना ॥ ८.९४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 94; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Maruts, mighty men of honour and action, this soma of glorious life is ready, created by divinity. Lovers of life and adventure, Ashwins, live it and enjoy, those who are self-refulgent, free and self-governed, and who are ever on the move, creating, acquiring, giving, like energies of nature in the cosmic circuit.
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे परमेश्वराद्वारे रचित पदार्थांचा समुचित व्यवहार व उपयोग करतात व धर्माचरणात मन लावतात ते स्त्री-पुरुष कर्मठ व ज्ञानी या नात्याने प्रसिद्ध होतात. ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अयम्) यह (सोमः) सम्पन्नता (सुतः) उत्पादित (अस्ति) विद्यमान है। (स्वराजः) धर्माचरणों में स्वयं शासक प्रशंसित (मरुतः) मानव (अस्य) इसके (पिबन्ति) व्यवहार का ज्ञान पाते हैं। (उत) और (अश्विना) कर्मठ तथा ज्ञानी साधक भी॥४॥
भावार्थ
जो मानव प्रभु द्वारा रचित पदार्थों का समुचित व्यवहार करते हैं, वे धर्माचण में रत रहते हैं। ऐसे ही नर-नारी फिर कर्मठ तथा ज्ञानी बनते हैं॥४॥
विषय
उन के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( अयं सोमः सुतः अस्ति ) यह ऐश्वर्य उत्पन्न है, ( अस्य मरुतः पिबन्ति ) इस का बलवान् पुरुष और प्रजागण उपभोग करते हैं और (उत अस्य स्वराजः ) इस का स्वयं दीप्तियुक्त तेजस्वी लोग उपभोग करते हैं और ( अश्विना ) जितेन्द्रिय लोग इस का उपभोग करते हैं। ( २ ) यह अभिषिक्त जन पुत्रवत् सोम है इस का बलवान् तेजस्वी और माता पिता, स्त्री पुरुष आदि सब ( पिबन्ति ) पालन करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बिन्दुः पूतदक्षो वा ऋषिः॥ मरुतो देवता॥ छन्दः—१, २, ८ विराड् गायत्री। ३, ५, ७, ९ गायत्री। ४, ६, १०—१२ निचृद् गायत्री॥
विषय
मरुतः स्वराजः अश्विना
पदार्थ
[१] (अयं सोमः) = यह सोम (सुतः अस्ति) = शरीर में सम्पादित हुआ है। (अस्य) = इसका (मरुतः) = परिमित बोलनेवाले खूब क्रियाशील लोग ही (पिबन्ति) = पान करते हैं। [२] (उत) = और (स्वराजः) = आत्मशासन करनेवाले (अश्विना) = प्राणापान की साधना में प्रवृत्त पुरुष इस सोम का शरीर में रक्षण कर पाते हैं। सोमरक्षण से ही सब उन्नतियों का होना सम्भव होता है।
भावार्थ
भावार्थ- शरीर में सोम का रक्षण 'मरुत्, स्वराट् व अश्विना' करते हैं। मितरावी खूब क्रियाशील पुरुष, आत्मशासन करनेवाले, प्राणसाधक पुरुष सोम का रक्षण कर पाते हैं।
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