ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 98/ मन्त्र 6
त्वं हि शश्व॑तीना॒मिन्द्र॑ द॒र्ता पु॒रामसि॑ । ह॒न्ता दस्यो॒र्मनो॑र्वृ॒धः पति॑र्दि॒वः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । हि । शश्व॑तीनाम् । इन्द्र॑ । द॒र्ता । पु॒राम् । असि॑ । ह॒न्ता । दस्योः॑ । मनोः॑ । वृ॒धः । पतिः॑ । दि॒वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं हि शश्वतीनामिन्द्र दर्ता पुरामसि । हन्ता दस्योर्मनोर्वृधः पतिर्दिवः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । हि । शश्वतीनाम् । इन्द्र । दर्ता । पुराम् । असि । हन्ता । दस्योः । मनोः । वृधः । पतिः । दिवः ॥ ८.९८.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 98; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, you are catalyser, breaker and maker, of the eternal forms of existence in cosmic dynamics, destroyer of the destroyer and promoter of thoughtful people. You are the guardian of the light of life, sustainer of the heavens of joy.
मराठी (1)
भावार्थ
मानवाच्या अंत:करणात दुर्भावनांच्या अनेक वसाहती असतात. त्यांना भरणपोषणासाठी तेथेच सर्व काही मिळते. अंत:करणात परमेश्वराला विराजमान करू शकणारा व परमेश्वराचे मनन करणारा साधकच या दुर्भावनांच्या वसाहतींचा विध्वंस करू शकतो. या वसाहती प्रवाहरूपाने अनादि अनंत आहेत. वारंवार तुटतात व पुन्हा जोडल्या जातात. त्यासाठी सतत वारंवार मनन करणे आवश्क आहे. ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमात्मा! (त्वम्) आप (शश्वतीनाम्) प्रवाहरूप से अनादि तथा अनन्त (पुराम्) मानव उन्नति में बाधक दुर्भावनाओं की सर्व प्रकार से भरी-पूरी बस्तियों के (दर्ता) विध्वंसक हैं और (दस्योः) उपतापक दुर्भावनाओं को (हन्ता) नष्ट करते हैं; (मनोः वृधः) मननशील को उत्साह प्रदान करते हैं तथा (दिवः पतिः) प्रकाशलोक को संरक्षण देते हैं॥६॥
भावार्थ
मानव-अन्तःकरण में दुर्भावनाओं के अनेक क्षेत्र हैं; उन्हें अपने भरण-पोषण हेतु वहीं सब कुछ प्राप्त होता रहता है। प्रभु के मनन से अन्तःकरण में प्रभु को आसीन कर सकने वाला साधक ही इन क्षेत्रों का विध्वंसक है। फिर ये प्रवाहरूप से अनादि-अनन्त हैं--बार-बार टूट-टूटकर फिर बन जाते हैं। इसलिये मनन भी बार-बार करना अनिवार्य है॥६॥
विषय
पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( त्वं ) तू अवश्य ( शश्वतीनां पुराम् ) बहुत सी, अनादि काल से बनी ( पुराम् ) नगरियों का ( दर्त्ता असि ) तोड़ने हारा है। तु (दस्योः हन्ता ) दुष्टों को दण्ड देने वाला और ( मनोः वृधः ) उपासक का बढ़ाने वाला और उसका ( दिवः पतिः ) कामनाओं का पालक, (दिवः पतिः) भूमि और आकाशादि का भी पालक है। इति प्रथमो वर्गः।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नृमेध ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५ उष्णिक्। २, ६ ककुम्मती उष्णिक्। ३, ७, ८, १०—१२ विराडष्णिक्। ४ पादनिचदुष्णिक्। ९ निचृदुष्णिक्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'पुरांदर्ता'
पदार्थ
[१]' हे (इन्द्र) = शत्रु-विद्रावक प्रभो ! (त्वं हि) = आप ही (शश्वतीनाम्) = अनेक (पुराम्) = काम- क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं की नगरियों के (दर्ता असि) = विदारण करनेवाले हैं। [२] इन नगरियों का विध्वंस करके आप (दस्यो:) = हमारा उपक्षय करनेवाले के (हन्ता असि) = नष्ट करनेवाले हैं। (मनोः वृधः) = विचारशील पुरुष का वर्धन करनेवाले हैं तथा (दिवः) = प्रकाश व स्वर्ग के (पतिः) = स्वामी हैं।
भावार्थ
भावार्थ- शत्रु-पुरियों का विदारण करके, दस्युओं के विध्वंस के द्वारा प्रभु विचारशील पुरुषों का वर्धन करते हैं और इनके जीवन को प्रकाशमय व सुखमय बनाते हैं।
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