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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 98/ मन्त्र 9
    ऋषिः - नृमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    यु॒ञ्जन्ति॒ हरी॑ इषि॒रस्य॒ गाथ॑यो॒रौ रथ॑ उ॒रुयु॑गे । इ॒न्द्र॒वाहा॑ वचो॒युजा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ञ्जन्ति॑ । हरी॒ इति॑ । इ॒षि॒रस्य॑ । गाथ॑या । उ॒रौ । रथे॑ । उ॒रुऽयु॑गे । इ॒न्द्र॒ऽवाहा॑ । व॒चः॒ऽयुजा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युञ्जन्ति हरी इषिरस्य गाथयोरौ रथ उरुयुगे । इन्द्रवाहा वचोयुजा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युञ्जन्ति । हरी इति । इषिरस्य । गाथया । उरौ । रथे । उरुऽयुगे । इन्द्रऽवाहा । वचःऽयुजा ॥ ८.९८.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 98; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Two motive forces like chariot horses, controlled by word, carry Indra, the soul, in the wide yoked spacious body-chariot by the power of the adorations of the universal mover, Indra, cosmic energy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या स्तुतीच्या माध्यमाने आमची ज्ञानेन्द्रिये व कर्मेन्द्रिये आत्म्याच्या वशमध्ये अशा प्रकारे राहतात, की त्या रथी आत्म्याला परमसुखापर्यंत पोचवितात. ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वचोयुजा) वाणी युक्त अर्थात् वश्य, (स्वर्विदा) सुखप्रदाता (इन्द्रवाहा) जीव के वाहनभूत दो अश्व [ज्ञान तथा कर्मेन्द्रियाँ] (उरौ रथे) इस बहुमूल्य रथरूपी देह में (उरौ युगे) इसके दृढ़ जुए में (इषिरस्य) सर्वप्रेरक प्रभु की (गाथया) स्तुतिरूप बन्धनों द्वारा (युञ्जन्ति) जुड़े हैं॥९॥

    भावार्थ

    प्रभु की वन्दना के माध्यम से ही हमारी ज्ञान तथा कर्मेन्द्रियाँ आत्मा के वश में इस प्रकार रहती हैं कि वे रथी आत्मा को नितान्त सुख तक पहुँचाती हैं॥९॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( इषिरस्य ) बड़ी इच्छा वाले राजा के ( उरुयुगे ) बड़े जुए वाले, (उरौ रथे) बड़े रथ में जिस प्रकार विद्वान् जन (इन्द्र-वाहा) ऐश्वर्य प्राप्ति कराने वाले, (वचोयुजा) वाणी मात्र से जुड़ने वाले (हरी युञ्जन्ति) दो अश्वों को नियुक्त करते हैं उसी प्रकार (गाथया) गान करने योग्य स्तुति और गाथा अर्थात् वेद वाणी द्वारा (इषिरस्य) सब के सञ्चालक, प्रवर्त्तक उस के ( उरौ ) विशाल ( उरु-युगे रथे ) महान् योजनावान् रमणीय रूप में विद्वान् जन, ( वचः-युजा ) वाणीमात्र से उस में योग देने वाले ( इन्द्र-वाहा ) इन्द्र आत्मा को धारण करने वाले ( हरी ) स्त्री पुरुषों को वा (हरी) गतिमान् आत्मा और मन को (युञ्जन्ति ) योग द्वारा समाहित करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नृमेध ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५ उष्णिक्। २, ६ ककुम्मती उष्णिक्। ३, ७, ८, १०—१२ विराडष्णिक्। ४ पादनिचदुष्णिक्। ९ निचृदुष्णिक्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    इन्द्रवाहा, वचोयुजा

    पदार्थ

    [१] (इषिरस्य) = उस सर्वप्रेरक, सबको गति देनेवाले प्रभु की (गाथया) = गुणगाथा के साथ (हरी) = इन्द्रियाश्वों को (उरौ रथे) = इस विशाल शरीर रथ में (युञ्जन्ति) = जोतते हैं। उस रथ में इनको जोतते हैं जो (उरुयुगे) = विशाल युगवाला है, मन ही युग है, यह आत्मा व इन्द्रियों को जोड़नेवाला है । [२] ये (इन्द्रियाश्ववाहा) = जितेन्द्रिय पुरुष का लक्ष्य की ओर वहन करनेवाले हैं, इस जितेन्द्रिय पुरुष को ये प्रभु के समीप प्राप्त कराते हैं। (वचोयुजा) = ये इन्द्रियाश्व वेदवाणी के अनुसार कार्यों में प्रवृत्त होनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रेरक प्रभु का गुणगान करनेवाला व्यक्ति इन्द्रियाश्वों को शरीर रथ में वेदवाणी के निर्देश के अनुसार युक्त कर प्रभुरूप लक्ष्य की ओर बढ़ता है।

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