ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 113/ मन्त्र 4
ऋ॒तं वद॑न्नृतद्युम्न स॒त्यं वद॑न्त्सत्यकर्मन् । श्र॒द्धां वद॑न्त्सोम राजन्धा॒त्रा सो॑म॒ परि॑ष्कृत॒ इन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तम् । वद॑न् । ऋ॒त॒ऽद्यु॒म्न॒ । स॒त्यम् । वद॑न् । स॒त्य॒ऽक॒र्म॒न् । श्र॒द्धाम् । वद॑न् । सो॒म॒ । रा॒ज॒न् । धा॒त्रा । सो॒म॒ । परि॑ऽकृत । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतं वदन्नृतद्युम्न सत्यं वदन्त्सत्यकर्मन् । श्रद्धां वदन्त्सोम राजन्धात्रा सोम परिष्कृत इन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥
स्वर रहित पद पाठऋतम् । वदन् । ऋतऽद्युम्न । सत्यम् । वदन् । सत्यऽकर्मन् । श्रद्धाम् । वदन् । सोम । राजन् । धात्रा । सोम । परिऽकृत । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 113; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऋतं, वदन्) यज्ञादिकमुपदिशन् (ऋतद्युम्न) हे यज्ञकर्मजदीप्त्या दीप्तिमन् (सत्यं, वदन्) सत्यभाषणशीलः (सत्यकर्मन्) सत्यता- मनुसृत्य कर्मकर्ता (राजन्) हे राजन् ! भवान् (श्रद्धां, वदन्) श्रद्धामुपदिशन् (सोम) हे सोम्यस्वभाव ! (धात्रा) संसारधारकेण (सोम, परिष्कृतः) परमात्मना शोधितो भवान् (इन्द्राय) इत्थंभूताय राज्ञे (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (परि, स्रव) अभिषेक- हेतुर्भवतु ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऋतं, वदन्) यज्ञादिकों का उपदेश करते हुए (ऋतद्युम्न) यज्ञकर्मरूप दीप्ति से दीप्तिमान् (सत्यं, वदन्) सत्य भाषण करनेवाले (सत्यकर्मन्) सत्य के आश्रित कर्म करनेवाले (राजन्) हे राजन् ! आप (श्रद्धां, वदन्) श्रद्धा का उपदेश करते हुए (सोम) सौम्यस्वरूपयुक्त (धात्रा) संसार को धारण करनेवाले (सोम, परिष्कृतः) परमात्मा से परिष्कार किये गये (इन्द्राय) राजा के लिये (इन्दो) हे परमात्मन् ! आप (परि, स्रव) राज्याभिषेक का निमित्त बनें ॥४॥
भावार्थ
जो स्वयं यज्ञादि कर्म करता, औरों को यज्ञादि कर्म करने का उपदेश करता, ऐसे सत्यभाषण और सत्य के आश्रित कर्म करनेवाले राजा के राज्य को परमात्मा अटल बनाता है ॥४॥
विषय
ऋत-सत्य- श्रद्धा
पदार्थ
हे (ऋतद्युम्न) = सत्य ज्ञानवाले, सत्य ज्ञान को उत्पन्न करनेवाले, सोम ! तू (ऋतं वदन्) = हमारे जीवनों में ऋत को उच्चारित करता है। सोम के रक्षण से सत्य ज्ञान की उत्पत्ति होकर जीवन सत्यमय बन जाता है। हे (सत्यकर्मन्) = सत्य कमों वाले, सब क्रियाओं से असत्य को दूर करनेवाले, सोम ! तू (सत्यं वदन्) = हमारे जीवनों में सत्य का ही उच्चारण करता है । क्रियाओं को नियमपूर्वक करना 'ऋत' है, और उत्तम क्रियाओं को करना ही 'सत्य' है । हे राजन् जीवनों को दीप्त करनेवाले (सोम) = सोम ! तू (श्रद्धां वदन्) = हमारे जीवनों में श्रद्धा को कहनेवाला हो, हमारे जीवनों को श्रद्धामय बना। हमें उस प्रभु में पूर्ण आस्था है । हे (सोम) = सोम ! तू (धात्रा) = उस प्रभु के द्वारा, प्रभु स्मरण के द्वारा (परिष्कृतः) = निर्मल किया जाता है। प्रभु स्मरण हमें वासनाओं से बचाता है, और इस प्रकार सोम निर्मल बना रहता है । हे (इन्दो) = निर्मल सोम ! तू (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (परिस्त्रव) = शरीर में चारों ओर परिस्रुत हो । तेरे इस शरीर में धारण के होने पर ही हमारा जीवन 'ऋत, सत्य व श्रद्धा' वाला बन पाएगा।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें सत्य ज्ञान वाला, सत्य कर्मों वाला व श्रद्धामय बनाता है ।
विषय
वह पुरोहित आदि उत्तम कार्य-कर्त्ता जनों द्वारा प्रजा को सत्य की शिक्षा करे।
भावार्थ
हे (ऋत-द्युम्न) सत्य, ज्ञानमय वेद से कान्तियुक्त ! हे (सत्य-कर्मन्) सत् पुरुषों के आचरित, हित कर्म करने हारे ! हे (सोम) उत्तम ऐश्वर्य-शक्ति के पालक ! तू (ऋतम् वदन्) यथावत् न्याय, सत्य, वेदानुसार वचन कहता हुआ (सत्यं वदन्) सत्य का उपदेश करता हुआ, (श्रद्धां वदन्) सत्य को धारण करने वाली बुद्धि वा वाणी का उपदेश करता हुआ, हे (इन्दो) तेजस्विन् ! (धात्रा) राजकर्त्ता पुरोहित वा पोषक जन से (परि-कृतः) सुसज्जित होकर (इन्द्राय परि स्रव) ऐश्वर्यवान् पद के लिये आगे बढ़।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ७ विराट् पंक्तिः । ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ पंक्तिः। ५, ६, ८-११ निचृत पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, spirit of glory and majesty of the order, great with the light and lustre of truth, reflecting the truth and rectitude of the order, speaking the truth, doing things aright, reflecting divine faith in action and policy, shining bright and ruling, purified and consecrated by the universal divine ordainer, O Soma, flow for Indra, soul of the system in the service of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
जो स्वत: यज्ञ इत्यादी कर्म करतो व इतरांना यज्ञ इत्यादी कर्म करण्याचा उपदेश करतो. सत्य वचन व सत्याश्रित कर्म करणाऱ्या राजाच्या राज्याला परमेश्वर दृढ करतो. ॥४॥
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