ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 113/ मन्त्र 11
यत्रा॑न॒न्दाश्च॒ मोदा॑श्च॒ मुद॑: प्र॒मुद॒ आस॑ते । काम॑स्य॒ यत्रा॒प्ताः कामा॒स्तत्र॒ माम॒मृतं॑ कृ॒धीन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । आ॒न॒न्दाः । च॒ । मोदाः॑ । च॒ । मुदः॑ । प्र॒ऽमुदः॑ । आस॑ते । काम॑स्य । यत्र॑ । आ॒प्ताः । कामाः॑ । तत्र॑ । माम् । अ॒मृत॑म् । कृ॒धि॒ । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्रानन्दाश्च मोदाश्च मुद: प्रमुद आसते । कामस्य यत्राप्ताः कामास्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । आनन्दाः । च । मोदाः । च । मुदः । प्रऽमुदः । आसते । कामस्य । यत्र । आप्ताः । कामाः । तत्र । माम् । अमृतम् । कृधि । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११३.११
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 113; मन्त्र » 11
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्र, आनन्दाः, च) यत्र आनन्दाः सन्ति (मोदाः, च) मोक्षश्चास्ति (मुदः, प्रमुदः) आनन्दितो हर्षितश्च मुक्तपुरुषो (आसते) विराजते (कामस्य, यत्र, आप्ताः, कामाः) यत्र च कामनावतः सर्वे कामाः प्राप्ताः (तत्र) तस्यां मोक्षावस्थायां (मां, अमृतं, कृधि) मां मोक्ष- सुखभागिनं करोतु (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप ! भवान् (इन्द्राय) ज्ञानयोगिने (परि, स्रव) पूर्णाभिषेकहेतुर्भवतु ॥११॥ इति त्रयोदशोत्तरशततमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्र) जहाँ (आनन्दाः) आनन्द (च) और (मोदाः) हर्ष है (मुदः, च, प्रमुदः) और जहाँ आनन्दित तथा हर्षित मुक्त पुरुष (आसते) विराजमान होता है, (कामस्य, यत्र, आप्ताः, कामाः) और जहाँ कामनावालों को सब काम प्राप्त हैं, (तत्र) वहाँ (मां) मुझको (अमृतं) मोक्षसुख का भागी (कृधि) करें। (इन्दो) हे परमात्मन् ! आप (इन्द्राय) ज्ञानयोगी के लिये (परि, स्रव) पूर्णाभिषेक का निमित्त बनें ॥११॥
भावार्थ
हे भगवन् ! जिस अवस्था में आनन्द तथा मोक्ष होता है और जहाँ सब कामनायें पूर्ण होती हैं, वह अवस्था मुझे प्राप्त करायें या यों कहो कि हे परमात्मन् ! उस मुक्ति अवस्था में जहाँ आनन्द ही आनन्द प्रतीत होता है, अन्य सब भाव उस समय तुच्छ हो जाते हैं, वह मुक्ति अवस्था मुझे प्राप्त हो ॥११॥ यह ११३ वाँ सूक्त और सत्ताईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
कामस्य यत्राप्ताः कामाः
पदार्थ
हे (इन्दो) = सोम! (माम्) = मुझे (तत्र) = वहाँ (अमृतं कृधि) = अमृतत्त्व प्राप्त करा (यत्र) = जहाँ कि (आनन्दाः च मोदाः च) = समस्त समृद्धियाँ व हर्ष हैं। प्रभु की प्राप्ति ही सर्वमहान् समृद्धि है, इस समृद्धि में ही वास्तविक हर्ष है । जहाँ (मुदः प्रमुदः) = मोद 'प्रमोद' रूप से (आसते) = स्थित होते हैं । अर्थात् जहाँ आनन्द का मापक बहुत ऊँचा हो जाता है । (यत्र) = जहाँ (कामस्य) = इच्छा के (कामा:) = सब इष्ट विषय (आप्ताः) = प्राप्त हो जाते हैं, जहाँ प्रभु प्राप्ति के होने पर सब कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। उस मोक्षलोक में मुझे अमर बना। इस अमृतत्त्व को प्राप्त कराने के लिये हे (इन्दो) = सोम ! तू (इन्द्राय) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (परिस्रव) = परिस्रुत हो ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण ही हमें ब्रह्मलोक को प्राप्त करानेवाला होगा। तत्त्वद्रष्टा 'कश्यप मारीच' ही अगले सूक्त में प्रार्थना करते हैं-
विषय
सुखमय लोकों में अमृतत्व की प्रार्थना।
भावार्थ
(यत्र आनन्दाः च मोदाः च) जिस लोक में समस्त प्रकार की ऋद्धियां और हर्ष हैं, जहां (मुदः प्रमुदः आसते) हर्षदायी समस्त सम्पदाएं और अति आह्लादकारी ऐश्वर्य विराजते हैं, (कामस्य) इस अभिलाषायुक्त जीव की (यत्र कामाः आप्तः) जहां समस्त कामनाएं प्राप्त हो जाती हैं (तत्र माम् अमृतं कृधि) वहां, उस लोक में मुझे अमृत, मरणरहित, दीर्घायु-युक्त कर। (इन्दो इन्द्राय परि स्रव) हे दयालो ! इस जीव, तत्वदर्शी आत्मा के हितार्थ तू दया से द्रवीभूत हो, कृपाकर आनन्द-घन बरसा दे। इति सप्तविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ७ विराट् पंक्तिः । ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ पंक्तिः। ५, ६, ८-११ निचृत पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (1)
Meaning
Where all orders of bliss, all forms of pleasure, all delights and ecstasies abide subsistent in bliss divine, where all desires and ambitions are subsumed in fulfilment, there in that heaven of eternal joy and fulfilment, place me immortal. O Indu, flow for Indra, ultimate soul of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
हे भगवान! ज्या अवस्थेत आनंद व मोद होतो व जेथे सर्व कामना पूर्ण होतात ती अवस्था मला प्राप्त करव. हे परमात्मा! त्या मुक्ती अवस्थेत जेथे आनंदच आनंद असतो व इतर सर्व सुख त्यावेळी तुच्छ वाटतात अशी मुक्त अवस्था मला प्राप्त व्हावी. ॥११॥
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