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ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 114/ मन्त्र 2
ऋषे॑ मन्त्र॒कृतां॒ स्तोमै॒: कश्य॑पोद्व॒र्धय॒न्गिर॑: । सोमं॑ नमस्य॒ राजा॑नं॒ यो ज॒ज्ञे वी॒रुधां॒ पति॒रिन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥
स्वर सहित पद पाठऋषे॑ । म॒न्त्र॒ऽकृता॑म् । स्तोमैः॑ । कश्य॑प । उ॒त्ऽव॒र्धय॑न् । गिरः॑ । सोम॑म् । न॒म॒स्य॒ । राजा॑नम् । यः । ज॒ज्ञे । वी॒रुधा॑म् । पतिः॑ । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋषे मन्त्रकृतां स्तोमै: कश्यपोद्वर्धयन्गिर: । सोमं नमस्य राजानं यो जज्ञे वीरुधां पतिरिन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥
स्वर रहित पद पाठऋषे । मन्त्रऽकृताम् । स्तोमैः । कश्यप । उत्ऽवर्धयन् । गिरः । सोमम् । नमस्य । राजानम् । यः । जज्ञे । वीरुधाम् । पतिः । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 114; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऋषे) हे सर्वव्यापक (कश्यप) सर्वद्रष्टः परमात्मन् ! भवान् (मन्त्रकृताम्, स्तोमैः) मन्त्रानुष्ठानकर्तॄणां स्तुतियुक्तानामुपासकानां (गिरः) उपासनारूपवाचः (उद्वर्धयन्) उन्नमयन् उपासककल्याणं करोतु, (यः) यः उपासकः (सोमं) सोमस्वभावं (राजानं) परमात्मानं (नमस्य) प्रभुं मत्वा (जज्ञे) प्रकटो भवति, भवान् (वीरुधां, पतिः) वनस्पतीनां स्वामी अतः (इन्द्राय) यः उपासकस्तदर्थं (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् (परि, स्रव) ज्ञानद्वारा व्याप्नुहि ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऋषे) हे सर्वव्यापक (कश्यप) सर्वद्रष्टा परमात्मन् ! आप (मन्त्रकृतां, स्तोमैः) स्तुतियुक्त मन्त्रानुष्ठान करनेवाले उपासकों की (गिरः) उपासनारूप वाणियों को (उद्वर्धयन्) बढ़ाते हुए उपासक का कल्याण करें, (यः) जो उपासक (सोमं, राजानं) सोमस्वभाव परमात्मा को (नमस्य) प्रभु मानकर (यज्ञे) प्रकाशित होता है, (वीरुधां, पतिः) आप वनस्पतियों के स्वामी हैं, इसलिये (इन्द्राय) उपासक के लिये (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (परि, स्रव) ज्ञानद्वारा उसके हृदय में व्याप्त हों ॥२॥
भावार्थ
जो परमात्मा चराचर ब्रह्माण्डों का पति है, उससे यहाँ ज्ञानयोग की प्रार्थना की गई है कि हे परमात्मन् ! ज्ञानवर्द्धक वाणियों द्वारा उपासक के हृदय में ज्ञान की वृद्धि करें ॥२॥
विषय
यो जज्ञे वीरुधां पतिः
पदार्थ
हे (ऋषे) = तत्त्वद्रष्टः कश्यप ज्ञानी पुरुष ! तू (मन्त्रकृताम्) = विचार को करनेवाले [तज्जप:, तदर्थभावनम्] अर्थभावनवर्धक नाम जप को करनेवाले पुरुषों के (स्तोमैः) = स्तुतिसमूहों के साथ (गिरः उद्वर्धयन्) = ज्ञान की वाणियों को बढ़ाता हुआ (राजानम्) = जीवन को दीप्त करनेवाले (सोमम्) = सोम को (नमस्य) = पूज। यह सोम ही तुझे 'ऋषि कश्यप' बनायेगा। यही तेरे में स्तवन व ज्ञान का वर्धन करेगा । हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! (यः) = जो तू (वीरुधाम्) = सब वनस्पतियों का वनस्पतियों के तुल्य इस पृथिवी पर उत्पन्न होनेवाली प्रजाओं का [सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिव जायते पुनः ] (पति) = रक्षक (जज्ञे) = होता है, वह तू (इन्द्राय) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (परिस्त्रव) = शरीर में चारों ओर परिस्रुत हो ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें स्तोता व ज्ञानी बनाता है, यह हमारा रक्षण करता है ।
विषय
उत्तम शासक, प्रजा-पालक का आदर-पूजा करने का आदेश।
भावार्थ
हे (ऋषे) मन्त्रार्थों के द्रष्टा ! हे (कश्यप) तत्वज्ञान के देखने वाले ! तू (मन्त्र-कृतां) मन्त्रों का उपदेश करने वाले विद्वानों के (स्तोमैः) उपदिष्ट मन्त्रसमूहों से (गिरः उत्-वर्धयन्) अपनी वाणियों को उत्तम रीति से बढ़ाता हुआ (यः वीरुधां पतिः) जो ओषधियों के तुल्य भूमिपर विविध रूपों से उत्पन्न होने वाली प्रजाओं का पालक है उस (राजानं सोमम्) चन्द्रवत् प्रकाशमान शासक को (नमस्य) आदर से नमस्कार कर। हे (इन्दो इन्द्राय परिस्रव) ऐश्वर्यवन् ! तेजस्विन् स्वामिन् ! प्रभो ! तू ‘इन्द्र’ अन्न का उपभोग करने वाले जीव के लिये सुखों की वर्षा कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २ विराट् पंक्तिः। ३, ४, पंक्तिः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord omniscient, cosmic seer, sustainer of life, the sage who sublimates and raises his songs of praise with hymns realised in the essence by the Vedic seers, and, having paid homage to self-refulgent ruling Soma, rises in the self-awareness of divinity is divine. O Indu, lord of light, sustainer of nature, vibrate and flow in your presence for such a soul and bless him.
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमात्मा चराचर ब्रह्मांडाचा पती आहे त्याची ज्ञानयोगासाठी प्रार्थना केलेली आहे. हे परमात्मा! ज्ञानवर्धक वाणीद्वारे उपासकाच्या हृदयात ज्ञानाची वृद्धी कर. ॥२॥
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