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ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 114/ मन्त्र 3
स॒प्त दिशो॒ नाना॑सूर्याः स॒प्त होता॑र ऋ॒त्विज॑: । दे॒वा आ॑दि॒त्या ये स॒प्त तेभि॑: सोमा॒भि र॑क्ष न॒ इन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । दिशः॑ । नाना॑ऽसूर्याः । स॒प्त । होता॑रः । ऋ॒त्विजः॑ । दे॒वाः । आ॒दि॒त्याः । ये । स॒प्त । तेभिः॑ । सो॒म॒ । अ॒भि । र॒क्ष॒ । नः॒ । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त दिशो नानासूर्याः सप्त होतार ऋत्विज: । देवा आदित्या ये सप्त तेभि: सोमाभि रक्ष न इन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त । दिशः । नानाऽसूर्याः । सप्त । होतारः । ऋत्विजः । देवाः । आदित्याः । ये । सप्त । तेभिः । सोम । अभि । रक्ष । नः । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 114; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
मुक्तपुरुषाय (सप्त, दिशः) भूरादयः सप्तलोकाः (नानासूर्याः) नानाविधदिव्यप्रकाशवन्तो भवन्ति (सप्त) इन्द्रियाणां सप्तछिद्राणि प्राणगतिद्वारा (होतारः) होतारो भवन्ति, तथा च (ऋत्विजः) ऋत्विजोऽपि भवन्ति (ये, सप्त, देवाः) यानि प्रकृतेर्महत्तत्त्वादीनि सप्तकार्याणि तानि मङ्गलप्रदानि भवन्ति (आदित्याः) सूर्य्यः सुखप्रदोभवति (तेभिः) तैः शक्तिकार्य्यैः (सोम) हे सोम ! (नः) अस्मान् (अभि, रक्ष) सर्वतः परिपालय (इन्दो) हे प्राणप्रद ! (इन्द्राय) कर्मयोगिने (परि, स्रव) सुधावृष्टिं कुरु ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
अब मुक्त पुरुष की अवस्था का निरूपण करते हैं।
पदार्थ
मुक्त पुरुष के लिये (सप्त, दिशः) भूरादि सातों लोक (नानासूर्याः) नाना प्रकार के दिव्य प्रकाशवाले हो जाते हैं और (सप्त) इन्द्रियों के सातों छिद्र प्राणों की गति द्वारा (होतारः) होता तथा (ऋत्विजः) ऋत्विक् हो जाते हैं, (ये, सप्त, देवाः) प्रकृति के महत्तत्त्वादि सात कार्य्य उसके लिये मङ्गलमय होते हैं, (आदित्याः) सूर्य्य सुखप्रद होता है, (तेभिः) उक्त शक्तियों द्वारा मुक्त पुरुष यह प्रार्थना करता है कि (सोम) हे सोम ! (नः) हमारी (अभि, रक्ष) रक्षा कर। (इन्दो) हे प्राणप्रद ! (इन्द्राय) कर्मयोगी के लिये आप (परि, स्रव) सुधा की वृष्टि करें ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में मुक्त पुरुष की विभूति का वर्णन किया गया है कि उसकी सब लोकों में दिव्य दृष्टि हो जाती है। “दिशा” शब्द का तात्पर्य यहाँ लोक में है और वह भूः, भुवः तथा स्वरादि सात लोक हैं अर्थात् विकृतिरूप से कार्य्य और प्रकृतिरूप से जो कारण हैं, वे सातों अखण्डनीय शक्तियें उसके लिये मङ्गलमय होती हैं ॥३॥
विषय
सप्त 'दिश: - होतारः - देवाः'
पदार्थ
हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! जो (नानासूर्या:) = विविध सूर्यो वाली (सप्त दिश:) = सात दिशायें हैं । जो = (सप्त) = सात (ऋत्विजः) = ऋतु ऋतु में यज्ञ करनेवाले (होतारः) = होता हैं । तथा (ये) = जो (सप्त) = सात (आदित्याः देवा:) = सब अच्छाइयों का आदान करनेवाले देव हैं । (तेभिः) = उनके द्वारा (नः अभिरक्ष) = तू हमारा रक्षण कर । यहाँ 'सप्त दिशः ' वस्तुतः वेदोपदिष्ट सात मर्यादायें हैं, ये वेद के मानों सात आदेश हैं। इनके अनुसार हमें भिन्न कार्य करने होते हैं । सो इन्हें 'नानासूर्याः' कहा है। 'सरति इति सूर्य: ' इन मर्यादाओं के अनुसार सरण ही 'सूर्य' है। इन मर्यादाओं के पालन से जीवन में सात सूर्यों का उदय होता है इनके अभाव में [seven deadly sins] सात पाप हमें घेर लेते हैं - दर्प [Pride] लोभ [covetousness] काम [Lust] क्रोध [anger] उदरम्भरिता [gluttony ] ईर्ष्या [ envy] और आलस्य [slachness] इन सात पापों के विपरीत [ seven gifts of the holy ghosts] सात दिव्य भावनायें हैं— [wisdom] बुद्धि, विद्या [understanding], शुभ प्रेरणा [counsel] दृढ़ता [ fortude] ज्ञान [knowledge] दिव्यता [ godliness] प्रभु का भय [fear of the Lord]। इन सात दिव्यभावनाओं को प्राप्त करनेवाला 'सोम' ही है। शरीर में जीवनयज्ञ को चलानेवाले सप्तर्षि व सप्त होता 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम् ' हैं । इन्हें सोम ही शक्ति सम्पन्न बनाता है। 'पाँच प्राण, मन व बुद्धि' ही सात आदित्य देव हैं- ये ही सब अच्छाइयों का ग्रहण करते हैं। इन्हें भी सोम ने ही सबल बनाता है। हे (इन्दो) = सोम ! तू (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (परिस्त्रव) = शरीर में चारों ओर गतिवाला हो। तू हमारे जीवन में इन सात दिशाओं, सात होताओं व सात आदित्य देवों को स्थापित करनेवाला बन ।
भावार्थ
भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम सात दिव्यगुणों को हमारे में स्थापित करता है। यह जीवन के सप्तर्षियों को सबल बनाता है। पाँचों प्राणों व मन-बुद्धि को यह शक्ति देता है ।
विषय
सात आदेष्टा, सात सचिवादि साहाय्य से राज्य का देहवत् शासन।
भावार्थ
(सप्त दिशः) सात दिशाएं, उनके तुल्य सात आदेश करने वाले, (सप्त होतारः) यज्ञ में सात ऋत्विजों के तुल्य ये सात, आज्ञा देने वाले, ये (देवाः आदित्याः सप्त) तेजस्वी, सात ऋतुओं के तुल्य भूमि के रक्षक वा सूर्य वा तेजस्वी राजा के अधीन सात सचिव आदि हैं (तेभिः) उनसे हे (सोम) शासक ! तू (नः अभि रक्ष) हम प्रजाओं की प्रभुवत् रक्षा कर। हे (इन्दो) युद्ध में द्रुतगति से जाने वाले, हे प्रजा के प्रति दयाभाव से द्रवित होने वाले ! तू (इन्द्राय) ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये और ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र और अन्न को देने वाले राष्ट्र के हित के लिये (परि स्रव) चारों ओर जा, और युद्ध आदि कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २ विराट् पंक्तिः। ३, ४, पंक्तिः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Seven are the directions, regions of the universe, many many suns, seven priests and seasonal yajakas of nature, bright divinities, suns and stars, all the seven orders of existence that there are, with all these, pray protect and promote us. O Soma, let the divine power and presence vibrate and flow for Indra, the soul of humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात मुक्त पुरुषाच्या विभूतीचे वर्णन केलेले आहे. ‘‘त्याची सर्व लोकात दिव्य दृष्टी होते’’ दिशा शब्दाचे तात्पर्य येथे लोकात आहे व ते भू: भुव: तसेच स्वर इत्यादी सात लोक आहेत. अर्थात्, विकृतिरूपाने कार्य प्रकृतिरूपाने जे कारण आहे त्या सातही अखण्डनीय शक्ती त्याच्यासाठी मंगलप्रद असतात. ॥३॥
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