ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 48/ मन्त्र 3
अत॑स्त्वा र॒यिम॒भि राजा॑नं सुक्रतो दि॒वः । सु॒प॒र्णो अ॑व्य॒थिर्भ॑रत् ॥
स्वर सहित पद पाठअतः॑ । त्वा॒ । र॒यिम् । अ॒भि । राजा॑नम् । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो । दि॒वः । सु॒ऽप॒र्णः । अ॒व्य॒थिः । भ॒र॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अतस्त्वा रयिमभि राजानं सुक्रतो दिवः । सुपर्णो अव्यथिर्भरत् ॥
स्वर रहित पद पाठअतः । त्वा । रयिम् । अभि । राजानम् । सुक्रतो इति सुऽक्रतो । दिवः । सुऽपर्णः । अव्यथिः । भरत् ॥ ९.४८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 48; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सुक्रतो) हे शुभकर्मशोभायमान परमात्मन् ! (रयिम् अभि राजानम्) भवान् यदखिलधनाद्यैश्वर्यस्वाम्यस्ति तथा (दिवः सुपर्णः) द्युलोकेऽपि चैतन्यतया प्रतिष्ठितोऽस्ति अथ च (अव्यथिभर्रत्) विनाप्रयासतस्संसारस्य संरक्षकोऽस्ति (अतस्त्वा) अतो वयं भवतः स्तुतिं कुर्मः ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सुक्रतो) हे शोभनकर्मों से विराजमान ! (रयिम् अभि राजानम्) आप जो कि सम्पूर्ण धनाद्यैश्वर्य के स्वामी हैं और (दिवः सुपर्णः) द्युलोक में भी चेतनरूप से विराजमान हैं और (अव्यथिभर्रत्) अनायास संसार को पालन करनेवाले हैं (अतस्त्वा) इससे आपकी स्तुति करते हैं ॥३॥
भावार्थ
सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों का अधिपति एकमात्र परमात्मा ही है, इसलिए उसी परमात्मा की उपासना करनी चाहिए, जिससे बढ़कर जीव का कोई अन्य स्वामी नहीं हो सकता ॥३॥
विषय
'सुपर्ण अव्यथि' का सोम धारण
पदार्थ
[१] हे (सुक्रतो) = शोभन कर्मन् व शोभन शक्तिवाले सोम ! (अतः) = क्योंकि तू गत मन्त्र के अनुसार असुर- पुरियों का विध्वंस करता है, इसलिए (सुपर्णः) = अपना उत्तमता से पालन व पूरण करनेवाला व्यक्ति (अव्यथिः) = कार्यों को न व्यथित होकर करनेवाला व्यक्ति (दिवः) = प्रकाश के हेतु से (भरत्) = अपने अन्दर तुझे भरता है, शरीर में ही तेरे धारण का प्रयत्न करता है। [२] हे सोम ! यह 'अव्यथि सुपर्ण' उस तेरे धारण का प्रयत्न करता है जो तू (रयिं अभि) = ऐश्वर्य का लक्ष्य करके (राजानम्) = दीप्त होनेवाला है । सोम अन्नमय आदि सब कोशों को तेज आदि ऐश्वर्यों से सम्पन्न करता है । इन ऐश्वर्यों से सम्पन्न करके यह हमें दीप्ति प्रदान करता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के लिये आवश्यक है कि हम [क] अपने को वासनाओं के आक्रमण से बचायें तथा [ख] अनथक रूप से कार्यों में लगे रहें। यह सुरक्षित सोम हमें दीप्त जीवनवाला बनायेगा ।
विषय
सर्वकामपूरक प्रभु।
भावार्थ
(अतः) इसलिये हे (सुक्रतो) उत्तम प्रज्ञावन् ! (रयिम्) ऐश्वर्य रूप, (राजानम्) कान्तिमय (त्वा) तुझ को प्राप्त कर (सुपर्णः) उत्तम ज्ञानवान् पुरुष (अव्यथिः) विना पीड़ा के, आनन्द मग्न होकर (त्वा दिवः भरत्) तुझ से नाना ज्ञान, उत्तम कामनाएं प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कविर्भार्गव ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ५ गायत्री। २-४ निचृद् गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
For this reason of your glory and inspiring nature, O lord of holy action and self-refulgent ruler, controller and dispenser of wealth, honour and excellence, the veteran sage and scholar can invoke you from the heights of heaven without fear and difficulty.
मराठी (1)
भावार्थ
संपूर्ण लोकलोकांतराचा अधिपती एकमेव परमात्माच आहे. त्यासाठी त्याच परमात्म्याची उपासना केली पाहिजे ज्याच्यापेक्षा मोठा कोणी जीवाचा दुसरा स्वामी होऊ शकत नाही. ॥३॥
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