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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    परि॒ यत्काव्या॑ क॒विर्नृ॒म्णा वसा॑नो॒ अर्ष॑ति । स्व॑र्वा॒जी सि॑षासति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । यत् । काव्या॑ । क॒विः । नृ॒म्णा । वसा॑नः । अर्ष॑ति । स्वः॑ । वा॒जी । सि॒सा॒स॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि यत्काव्या कविर्नृम्णा वसानो अर्षति । स्वर्वाजी सिषासति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । यत् । काव्या । कविः । नृम्णा । वसानः । अर्षति । स्वः । वाजी । सिसासति ॥ ९.७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    स परमात्मा (कविः) सर्वज्ञः (नृम्णा) ऐश्वर्यम् (वसानः) धारयति (पर्यर्षति) सर्वगतिरस्ति (स्वर्वाजी) आनन्दमयबलवान् तथा (काव्या सिषासति) कविकर्माणि प्रचिचारयिषति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    वह परमात्मा (कविः) सर्वज्ञ है “कवते जानाति सर्वमिति कविः” जो सबको जाने, उसका नाम कवि है और (नृम्णा) ऐश्वर्यों को (वसानः) धारण करनेवाला (पर्यर्षति) सर्वत्र प्राप्त है (स्वर्वाजी) आनन्दरूप बलवाला है तथा (काव्या सिषासति) कवित्वरूप कर्मों के प्रचार की इच्छा करता है ॥४॥

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    विषय

    काव्य व नृम्ण' का 'धारण

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार सोमरक्षण करनेवाला पुरुष (कविः) = क्रान्तर्शी, तत्त्वज्ञानी बनता है । यह (यत्) = जब (काव्या) = ज्ञानों को व (नृम्णा) = बलों को (वसानः) = धारण करता हुआ (परि अर्षति) = चारों ओर अपने कर्त्तव्य कर्मों में गतिवाला होता है। तो (वाजी) = [वाज Sacrifice] त्याग की वृत्तिवाला होता हुआ (स्वः सिषासति) = प्रकाशमय ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। [२] सोमरक्षण से रोगकृमियों का विनाश होकर बल बढ़ता है। रक्षित सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है, ज्ञानाग्नि की दीप्ति होकर हम क्रान्तदर्शी बनते हैं। इस तत्त्वदर्शन से हमारे में त्याग की भावना पैदा होती है। यह त्याग की भावना हमें ब्रह्मलोक को प्राप्त कराती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से नीरोगता-ज्ञानवृद्धि-त्याग की भावना व ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है ।

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    विषय

    विद्वानों का अन्यों के प्रति कर्त्तव्य। पक्षान्तर में विद्यार्थी के उद्देश्य और कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यत्) जो (कविः) क्रान्तदर्शी विद्वान् होकर (नृम्णा) नाना ऐश्वर्यों को वा मनुष्यों के चित्तों को (वसानः) अपने वश करके (परि अर्षति) प्राप्त करता है वह (वाजी) बलवान् पुरुष ही, (स्वः सिषासति) सब कुछ देता, सुख-समृद्ध राज्य को प्रदान करता है। (२) इसी प्रकार (यत् वसानः नृम्णा काव्या अर्पति सः कविः वाजी स्वः सिषासति) जो गुरु के अधीन रहकर विद्वानों के बनाये विद्या-धनों को प्राप्त करता है वह स्वयं मेधावी, ज्ञानी होकर अन्यों को ज्ञान-प्रकाश प्रदान करता और सुख प्राप्त कराता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ५–९ गायत्री। २ निचृद् गायत्री। ४ विराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the poetic spirit of omniscience wrapped in glory moves and inspires the vision and imagination of the poet, the creative spirit flies to the heavens and celebrates divinity in poetry.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात हे स्पष्ट आहे की परमात्मा सर्वज्ञ सर्वांना धारण करणारा, सर्वव्यापक, आनंदस्वरूप व बलवान आहे. त्याचीच उपासना केली पाहिजे. ॥४॥

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