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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 16
ऋषिः - त्रित ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
2
अ॒न्तर॑ग्ने रु॒चा त्वमु॒खायाः॒ सद॑ने॒ स्वे। तस्या॒स्त्वꣳ हर॑सा॒ तप॒ञ्जात॑वेदः शि॒वो भ॑व॥१६॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्तः। अ॒ग्ने॒। रु॒चा। त्वम्। उ॒खायाः॑। सद॑ने। स्वे। तस्याः॑। त्वम्। हर॑सा। तप॑न्। जात॑वेद॒ इति॑ जात॑ऽवेदः। शि॒वः। भ॒व॒ ॥१६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तरग्ने रुचा त्वमुखायाः सदने स्वे । तस्यास्त्वँ हरसा तपञ्जातवेदः शिवो भव ॥
स्वर रहित पद पाठ
अन्तः। अग्ने। रुचा। त्वम्। उखायाः। सदने। स्वे। तस्याः। त्वम्। हरसा। तपन्। जातवेद इति जातऽवेदः। शिवः। भव॥१६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजकर्म्माह॥
अन्वयः
हे जातवेदोऽग्ने! यस्त्वं यस्या उखाया अधोऽग्निरिव स्वे सदने तपन् सन्नन्ता रुचा वर्तेथास्तस्या हरसा सन्तपँस्त्वं शिवो भव॥१६॥
पदार्थः
(अन्तः) मध्ये (अग्ने) विद्वन् (रुचा) प्रीत्या (त्वम्) (उखायाः) प्राप्तायाः प्रजायाः (सदने) अध्ययनस्थाने (स्वे) स्वकीये (तस्याः) (त्वम्) (हरसा) ज्वलनेन। हर इति ज्वलतो नामसु पठितम्॥ (निघं॰१.१७) (तपन्) शत्रून् सन्तापयन् (जातवेदः) जाता विदिता वेदा यस्य तत्सम्बुद्धौ (शिवः) मङ्गलकारी (भव)। [अयं मन्त्रः शत॰६.७.३.१५ व्याख्यातः]॥१६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सभाध्यक्षो राजा न्यायासने स्थित्वा परमरुच्या राज्यपालनकृत्यानि कुर्यात्, तथा प्रजा राजानं सुखयन्ती सती दुष्टान् संतापयेत्॥१६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (जातवेदः) वेदों के ज्ञाता (अग्ने) तेजस्वी विद्वन्! (त्वम्) आप जिस (उखायाः) प्राप्त हुई प्रजा के नीचे से अग्नि के समान (स्वे) अपने (सदने) पढ़ने के स्थान में (तपन्) शत्रुओं को संताप कराते हुए (अन्तः) मध्य में (रुचा) प्रीति से वर्त्तो, (तस्याः) उस प्रजा के (हरसा) प्रज्वलित तेज से (त्वम्) आप शत्रुओं का निवारण करते हुए (शिवः) मङ्गलकारी (भव) हूजिये॥१६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सभाध्यक्ष राजा को चाहिये कि न्याय करने की गद्दी पर बैठ के अत्यन्त प्रीति के साथ राज्य के पालन रूप कार्यों को करे, वैसे प्रजाओं को चाहिये कि राजा को सुख देती हुई दुष्टों को ताड़ना करें॥१६॥
विषय
दीप्ति-यज्ञ-नीरोगता-धन = कल्याण
पदार्थ
१. हे ( अग्ने ) = उन्नतिशील त्रित! तू ( अन्तः ) = अपने हृदयाकाश में ( रुचा ) = ज्ञान की दीप्ति से युक्त हो, वेद के स्वाध्याय से तेरा अन्तःकरण प्रकाशमय हो। २. तू ( स्वे ) = अपने ( उखायाः ) = वेदि पर—यज्ञाङ्गिन के स्थानवाले ( सदने ) = घर में आसीन हो। तू सदा अपने घर में यज्ञों को करनेवाला हो। तेरे घर में यह यज्ञाङ्गिन कभी बुझे नहीं। ३. ( त्वम् ) = तू ( तस्याः ) = उस यज्ञाङ्गिन के ( हरसा ) = रोग-हरणशक्ति से ( तपन् ) = दीप्त हो, यह यज्ञाङ्गिन तुझे नीरोग बनाये और तू स्वास्थ्य की दीप्ति से चमकनेवाला हो। ४. ( जातवेदः ) = [ जातं वेदो यस्य, वेदस् = धन ] गृहस्थ के पालन के लिए तू आवश्यक धनवाला हो और ( शिवः भव ) = इस प्रकार तू कल्याणमय जीवनवाला हो। गरीबी भी एक पाप है व अकल्याण का कारण है।
भावार्थ
भावार्थ — हे प्रभो! मैं ज्ञान, यज्ञ, स्वास्थ्य व धन प्राप्त करके कल्याणरूप बनूँ।
विषय
तेजस्वी शत्रुदमनकारी परंतप राजा का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्ने ! तेजस्विन् ! राजन् ! ( त्वम् ) तू ( उखायाः अन्तः ) नाना ऐश्वर्यों को खोदकर निकालने की एकमात्र खान रूप भूमि एवं राष्ट्र को प्रजा के भीतर और ( स्वे सदने ) अपने आश्रयस्थान या आसन पर विराजमान रहकर ( रुचा ) दीप्ति से सूर्य के समान प्रज्वलित हो। और (वं ) तू ( हरसा ) अपने ज्वालामय तेज के समान परराष्ट्र के हरण करने में समर्थ बल से ( तस्याः ) उसको ( तपन ) तपाता हुआ भी, है ( जातवेदः ) ऐश्वर्यों से महान् ! तू ( तस्याः ) उस प्रजा के लिये (शिवः भव) सूर्य और अग्नि के समान ही कल्याणकारी हो । शत० ६ । ७ । ३ । १५ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता । विराड् अनुष्टुप | गान्धारः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे राजाने न्यायसिंहासनावर बसून अत्यंत प्रेमाने राज्यकारभार करावा तसे प्रजेने राजाला सुख द्यावे व दुष्टांचे ताडन करावे.
विषय
यापुढील मंत्रात राजाच्या कर्तव्यांविषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (प्रजाजनांनी उत्त्की) हे (जातवेद:) वेदज्ञाता (अग्ने) तेजस्वी विद्वान (सभापती राजा), आपण (उखाया:) प्राप्त प्रजेसाठी, अग्नी जसा पात्राला खालून उष्णता देतो, तसे आपण उत्साह द्या. (स्वे) आपल्या (सदने) भवनात अथवा आपल्या अध्ययन-स्थानात बसून एकीकडे (तपन्) शत्रूंना आपल्या प्रभावाने भयभीत करता. (रणनीती वा कार्यपद्धतीने शत्रूला त्रस्त, पराभूत करता.) तर दुसरीकडे (अन्त:) प्रजेमध्ये या प्रजेशी (रुचा) प्रेमाने वागता. तसेच (तस्या:) या प्रजेच्या (हरसा) प्रज्वलित तेजाद्वारे (संयुक्त लोकशक्तीद्वारे) आपण दूर लोटत प्रजेविषयी सदा (शिव:) मंगलकारी (भव) व्हा. ॥16॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे जसे सभाध्यक्ष राजासाठी आवश्यक आहे की त्याने न्यायासमावर बसून अत्यंत आत्मीयतेने राज्यपालन रूप कर्तर्व्ये पूर्ण करावीत, तसेच प्रजेसाठी देखील हे उचित आहे की तिने राजाला नेहमी सुख द्यावे आणि राज्यातील (वा समाजातील दुष्टांना ताडन करावे ॥16॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O majestic King, master of the Vedas, tormenting the foes, seated in thy study room, live in the midst of thy subjects, with love. Be gracious, suppressing the enemies with the glowing strength of thy subjects.
Meaning
Omniscient Agni/All knowing wide-awake ruler of the land, brilliant with your own light in your place in the world/dominion, blazing with your power and glory, be good and kind to the people.
Translation
O fire divine, you are seated in the lower self in your own abode, with your shining lustre. O omniscient, warmed up with light, be gracious towards it (the lower self). (1)
Notes
Ukhi, fire-place, hearth. Spiritually, it can be inter preted as the lower self, where the fire divine resides and inspires the seeker to realize the Higher Self.
बंगाली (1)
विषय
পুনা রাজকর্ম্মাহ ॥
রাজা কী করিবে এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ-হে (জাতবেদাঃ) বেদজ্ঞাতা (অগ্নে) তেজস্বী বিদ্বান্ ! (ত্বম্) আপনি যে (উখায়াঃ) প্রজাদের নিম্ন হইতে প্রাপ্ত অগ্নির ন্যায় (স্বে) স্বীয় (সদনে) অধ্যয়ন স্থলে (তপন্) শত্রুদিগকে সন্তাপ করাইয়া (অন্তঃ) মধ্যে (রুচা) প্রীতিপূর্বক আচরণ করেন (তস্যাঃ) সেই প্রজার (হরসা) প্রজ্জ্বলিত তেজ হইতে (ত্বম্) আপনি শত্রুদিগের নিবারণ করিয়া (শিবঃ) মঙ্গলকারী (ভব) হউন ॥ ১৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন সভাধ্যক্ষ, রাজার উচিত যে, ন্যায় করিবার আসনে উপবিষ্ট হইয়া অত্যন্ত প্রীতিপূর্বক রাজ্য পালন রূপ কার্য্য করিবেন, সেইরূপ প্রজাদিগের উচিত যে, রাজাকে সুখদান করিয়া দুষ্টদিগকে প্রতাড়িত করিবে ॥ ১৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒ন্তর॑গ্নে রু॒চা ত্বমু॒খায়াঃ॒ সদ॑নে॒ স্বে ।
তস্যা॒স্ত্বꣳ হর॑সা॒ তপ॒ঞ্জাত॑বেদঃ শি॒বো ভ॑ব ॥ ১৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অন্তরগ্ন ইত্যস্য ত্রিত ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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