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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 25
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    2

    दृ॒शा॒नो रु॒क्मऽउ॒र्व्या व्य॑द्यौद् दु॒र्मर्ष॒मायुः॑ श्रि॒ये रु॑चा॒नः। अ॒ग्निर॒मृतो॑ऽअभव॒द् वयो॑भि॒र्यदे॑नं॒ द्यौरज॑नयत् सु॒रेताः॑॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दृ॒शा॒नः। रु॒क्मः। उ॒र्व्या। वि। अ॒द्यौ॒त्। दु॒र्मर्ष॒मिति॑ दुः॒ऽमर्ष॑म्। आयुः॑। श्रि॒ये। रु॒चा॒नः। अ॒ग्निः। अ॒मृतः॑। अ॒भ॒व॒त्। वयो॑भि॒रिति॒ वयः॑ऽभिः। यत्। ए॒न॒म्। द्यौः। अज॑नयत्। सु॒रेता॒ इति॑ सु॒ऽरेताः॑ ॥२५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दृशानो रुक्म उर्व्या व्यद्यौद्दुर्मर्षमायुः श्रिये रुचानः । अग्निरमृतोऽअभवद्वयोभिर्यदेनन्द्यौर्जनयत्सुरेताः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दृशानः। रुक्मः। उर्व्या। वि। अद्यौत्। दुर्मर्षमिति दुःऽमर्षम्। आयुः। श्रिये। रुचानः। अग्निः। अमृतः। अभवत्। वयोभिरिति वयःऽभिः। यत्। एनम्। द्यौः। अजनयत्। सुरेता इति सुऽरेताः॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्नरैः किं किं वेद्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यूयं यद्यो दृशानो रुक्मः श्रिये रुचानोऽमृतो दुर्मर्षमायुः कुर्वन्नमृतोऽग्निरुर्व्या सह व्यद्यौद्, वयोभिः सहाभवत्, तद् द्यौः सुरेता जगदीश्वरो यदेनमजनयत्, तं तत् तां च विजानीत॥२५॥

    पदार्थः

    (दृशानः) दर्शकः (रुक्मः) (उर्व्या) पृथिव्या सह (वि) (अद्यौत्) प्रकाशयति (दुर्मर्षम्) दुर्गतो मर्षः सेचनं यस्मात्तत् (आयुः) जीवनम् (श्रिये) शोभायै (रुचानः) प्रदीपकः (अग्निः) तेजः (अमृतः) नाशरहितः (अभवत्) (वयोभिः) व्यापकैर्गुणैः (यत्) यस्मात् (एनम्) (द्यौः) स्वप्रकाशः (अजनयत्) जनयति (सुरेताः) शोभनानि रेतांसि वीर्याणि यस्य सः॥२५॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या जगत्स्रष्टारमनादिमीश्वरमनादिजगत्कारणं गुणकर्मस्वभावैः सह विज्ञायोपासत उपयुञ्जते च ते दीर्घायुषः श्रीमन्तो जायन्ते॥२५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या-क्या जानना चाहिये यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम लोग (यत्) जिस कारण (दृशानः) दिखाने हारा (रुक्मः) रुचि का हेतु (श्रिये) शोभा का (रुचानः) प्रकाशक (दुर्मर्षम्) सब दुःखों से रहित (आयुः) जीवन करता हुआ (अमृतः) नाशरहित (अग्निः) तेजस्वरूप (उर्व्या) पृथिवी के साथ (व्यद्यौत्) प्रकाशित होता है, (वयोभिः) व्यापक गुणों के साथ (अभवत्) उत्पन्न होता और जो (द्यौः) प्रकाशक (सुरेताः) सुन्दर पराक्रम वाला जगदीश्वर (यत्) जिस के लिये (एनम्) इस अग्नि को (अजनयत्) उत्पन्न करता है, उस ईश्वर, आयु और विद्युत् रूप अग्नि को जानो॥२५॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य गुण-कर्म और स्वभावों के सहित जगत् रचने वाले अनादि ईश्वर और जगत् के कारण को ठीक-ठीक जान के उपासना करते और उपयोग लेते हैं, वे चिरंजीव होकर लक्ष्मी को प्राप्त होते हैं॥२५॥

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    विषय

    दृशानो रुक्म

    पदार्थ

    १. ( दृशानः ) = यह वस्तुतत्त्व को देखता है, बाह्य रूप से ही विचलित नहीं हो जाता—विषयों की आपातरमणीयता इसे उनमें उलझा नहीं देती, क्योंकि यह विषयों के विषयत्व को देखता है। २. ( रुक्मः ) = न उलझने के कारण ही चमकता है। ३. ( उर्व्या व्यद्यौत् ) = हृदय की विशालता से यह प्रकाशमय है— उत्तम व्यवहार करनेवाला होता है। ४. ( आयुः ) = इसका जीवन ( दुर्मर्षम् ) = वासनाओं से न कुचलने योग्य होता हैं ५. ( श्रिये रुचानः ) = यह श्री के लिए रुचिवाला होता है, अर्थात् प्रत्येक कार्य को शोभा से करता है ६. ( अग्निः ) = निरन्तर आगे बढ़नेवाला होता है ७. ( वयोभिः ) = उत्तम आयुष्यवर्धक अन्नों से ( अमृतः अभवत् ) = रोगाक्रान्त न होकर अमृत हो जाता है, अकालमृत्यु को प्राप्त नहीं होता। ८. ( यत् ) = क्योंकि ( सुरेताः ) = उत्तम रेतस्वाला अर्थात् ब्रह्मचारी ( द्यौः ) = प्रकाशमय जीवनवाला आचार्य ( एनम् ) = इसे ( अजनयत् ) = विकसित करता है—शक्तिमान् बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — संसार में हमें तत्त्वदर्शी बनकर विषयों में नहीं उलझना। ज्ञानी, ब्रह्मचारी आचार्यों की कृपा से ही ऐसा जीवन बनता है।

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    विषय

    सूर्य के समाने राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( दृशान : ) साक्षात् स्वयं दीखता हुआ, और समस्त पदार्थों का दिखाने वाला स्वयंद्रष्टा, ( रुक्मः ) दीप्तिमान्, ( उर्व्या ) बड़ी भारी कान्ति से या विशाल इस पृथ्वी सहित ( श्रिये ) अपने परम कान्ति से ( रुचानः ) प्रकाशित होता हुआ, सूर्य जिस प्रकार ( दुर्भर्षम् आयुः) अविनाशी, जीवन सामर्थ्य, अन्नादि को (व्यद्यौत्) विविध प्रकार से प्रकाशित करता है । उसी प्रकार ( दृशानः ) सर्व पदार्थों को विज्ञान द्वारा दर्शाने वाला, ( श्रिये रुचानः ) महान् लक्ष्मी की इच्छा करता हुआ, (रुक्मः) कान्तिमानू, तेजस्वी, ऐश्वर्यवान्, विद्वान् राजा (दुर्मर्षम्) शत्रुओं और बाधक कारणों से अपराजित जीवन को ( उर्व्या) इस विशाल पृथ्वी पर ( व्यद्यन् ) नाना तेजों से प्रकट करता है और अपना तेज दिखाता है । (अग्निः) अग्नि, दीप्तिमान् सूर्य जिस प्रकार ( वयोभिः ) अपनी शक्तियों, तेजों, किरणों से(अमृतः ) अमृत, अमर ( अभवत् ) है उसी प्रकार (अग्निः ) विद्वान ज्ञानी एवं अग्रणी के समान तेजस्वी राजा भी ( व्योभिः अमृतः अभवत् ) अपने ज्ञान-बलों से और अन्न द्वारा अपने वयोवृद्ध सहायकों से अमृत, अमर, अख- डित होकर रहता है । ( यत् ) क्योंकि ( एनं ) उस सूर्य को (सुरेताः ) उत्तम वीर्य वाला, समस्त ब्रह्माण्ड के उत्पादन सामर्थ्य से युक्त, ( द्यौः ) तेजोयुक्त, महान् हिरण्यगर्भ ( अजनयत् ) उत्पन्न करता है . इसी प्रकार ( एनं ) इस विद्वान् को और तेजस्वी राजा को भी ( सुरेताः द्यौः ) उत्कृष्ट वीर्यवान् तेजस्वी पिता और आचार्य ( अजनयत ) उत्पन्न करता है । पराक्रमी, तेजस्वी पुरुष को तेजस्वी पिता माता ही उत्पन्न करते हैं ।शत० ६ । ७ । २ । १॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी माणसे गुण, कर्म स्वभावासह जगाची रचना करणाऱ्या अनादी ईश्वराला जाणतात व उपासना करतात, तसेच जगाचे कारण योग्य प्रकारे जाणून अग्नी वगैरेचा योग्य प्रकारे उपयोग करून घेतात ते दीर्घायू होऊन लक्ष्मी प्राप्त करतात.

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    विषय

    मनुष्यांनी आणखी काय काय जाणले पाहिजे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ हे मनुष्यांनो, (यत्‌) नो (दृशान:) सर्व पाहण्याची शक्ती देणारा आहे, (रुक्म:) प्रिय वा ज्याच्याविषयी प्रेम वाटावे, असा आहे, जो (श्रिये) सृष्टीतील सौन्दर्याचा प्रकाशक आणि (दुर्मर्षम्‌) दु:खरहित आहे, जो (आयु:) मनुष्यांना जीवन पद्रान करीत त्यांना (अमृत:) नाशरहित वा दीर्घायु करीत (उर्व्या) या पृथ्वीवर (व्यद्यौत्‌) प्रकाशित होतो, (तो अग्नी) (वयोभि:) आपल्या व्यापकत्व गुणांमुळे (अभवत्‌) कुठेही उत्पन्न होतो. परमेश्‍वर (द्यौ:) सर्वप्रकाशक असून (सुरे ता:) सुंदर शोभ व पराक्रम करणारा आहे, (यत्‌) तो ज्याच्या करिता (मनुष्यांकरिता) (एनम्‌) या अग्नीला (अजनयत्‌) उत्पन्न करतो, ते मनुष्यगण तुम्ही त्या परमेश्‍वराला, जीवनाला आणि विद्युत रुप अग्नीला जाणा (जीवनाचे व विद्युदग्नीचे महत्त्व ओळखा) ॥25॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे मनुष्य सर्व जगाची उत्पत्ती करणाऱ्या परमेश्‍वराला त्याच्या गुण, कर्म व स्वभावाने, खऱ्या रुपाने जाणतात, त्यास जगाचे कारण मानतात, त्याची उपासना करतात, आणि ईश्‍वर उपासनेने होणारे लाभ प्राप्त करतात, ते चिरंजीवी होऊन धन-संपदेचे स्वामी होतात ॥25॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Know God, who manifests the universe, is fascinating, full of grace, the Giver of life free from calamities, displays Himself in imperishable, lustrous earth, is All-pervading, Self -illuminating, full of manifold vitalities, and Creator of this world.

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    Meaning

    Agni, immortal light and vitality of existence, brilliant, golden glorious, explodes in heaven and illuminates everything with the earth. In love, as if, with the beauty of the world, it assumes various forms of self-assertive and inviolable life. And yet that Heavenly Power which creates this agni and brings it into existence is another, the Eternal Life of life and Light of light.

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    Translation

    Looking attractive, the fire divine shines on earth, glowing to bestow indomitable and glorious life. This fire divine by his vital powers has become immortal as the vigourful heaven has begot him. (1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্নরৈঃ কিং কিং বেদ্যমিত্যাহ ॥
    মনুষ্যদিগকে কী কী জানা উচিত এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (য়ৎ) যে কারণে (দৃশানঃ) দৃশ্যমান (রুক্মঃ) রুচির হেতু (শ্রিয়ে) শোভার (রুচানঃ) প্রকাশক (দুর্মর্ষম্) সর্ব দুঃখরহিত (আয়ুঃ) জীবন যাপন করিয়া (অমৃতঃ) নাশরহিত (অগ্নিঃ) তেজস্বরূপ (উর্ব্যা) পৃথিবী সহ (ব্যদৌৎ) প্রকাশিত হয়, (বয়োভিঃ) ব্যাপক গুণ সহ (অভবৎ) উৎপন্ন হয় এবং যে (দ্যৌঃ) প্রকাশক (সুরেতাঃ) সুন্দর পরাক্রমযুক্ত জগদীশ্বর (য়ৎ) যাহার জন্য (এনম্) এই অগ্নিকে (অজনয়ৎ) উৎপন্ন করেন, সেই ঈশ্বর, আয়ু এবং বিদ্যুৎ রূপ অগ্নিকে তোমরা জানিবে ॥ ২৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে মনুষ্য গুণ, কর্ম এবং স্বভাব সদৃশ জগৎ রচয়িতা অনাদি ঈশ্বর এবং জগতের কারণকে সম্যক জানিয়া উপাসনা করে এবং উপযোগিতা গ্রহণ করে তাহারা চিরঞ্জীবী হইয়া লক্ষ্মী প্রাপ্ত হয় ॥ ২৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দৃ॒শা॒নো রু॒ক্মऽউ॒র্ব্যা ব্য॑দ্যৌদ্ দু॒র্মর্ষ॒মায়ুঃ॑ শ্রি॒য়ে র॑ুচা॒নঃ ।
    অ॒গ্নির॒মৃতো॑ऽঅভব॒দ্ বয়ো॑ভি॒র্য়দে॑নং॒ দ্যৌরজ॑নয়ৎ সু॒রেতাঃ॑ ॥ ২৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দৃশান ইত্যস্য বৎসপ্রীর্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিক্পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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