साइडबार
यजुर्वेद अध्याय - 12
1
2
3
4
5
6
7
8
9
10
11
12
13
14
15
16
17
18
19
20
21
22
23
24
25
26
27
28
29
30
31
32
33
34
35
36
37
38
39
40
41
42
43
44
45
46
47
48
49
50
51
52
53
54
55
56
57
58
59
60
61
62
63
64
65
66
67
68
69
70
71
72
73
74
75
76
77
78
79
80
81
82
83
84
85
86
87
88
89
90
91
92
93
94
95
96
97
98
99
100
101
102
103
104
105
106
107
108
109
110
111
112
113
114
115
116
117
मन्त्र चुनें
यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 85
यदि॒मा वा॒जय॑न्न॒हमोष॑धी॒र्हस्त॑ऽआद॒धे। आ॒त्मा यक्ष्म॑स्य नश्यति पु॒रा जी॑व॒गृभो॑ यथा॥८५॥
स्वर सहित पद पाठयत्। इ॒माः। वा॒जय॑न्। अ॒हम्। ओष॑धीः। हस्ते॑। आ॒द॒ध इत्या॑ऽद॒धे। आ॒त्मा। यक्ष्म॑स्य। न॒श्य॒ति॒। पु॒रा। जी॒व॒गृभ॒ इति॑ जीव॒ऽगृभः॑। य॒था॒ ॥८५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिमा वाजयन्नहमोषधीर्हस्तऽआदधे । आत्मा यक्ष्मस्य नश्यति पुरा जीवगृभो यथा ॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्। इमाः। वाजयन्। अहम्। ओषधीः। हस्ते। आदध इत्याऽदधे। आत्मा। यक्ष्मस्य। नश्यति। पुरा। जीवगृभ इति जीवऽगृभः। यथा॥८५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथा पुरा वाजयन्नहं ओषधीर्हस्त आदधे याभ्यो जीवगृभो यक्ष्मस्यात्मा नश्यति, ताः सद्युक्त्योपयुञ्जताम्॥८५॥
पदार्थः
(यत्) याः (इमाः) (वाजयन्) प्रापयन् (अहम्) (ओषधीः) (हस्ते) (आदधे) (आत्मा) तत्त्वमूलम् (यक्ष्मस्य) क्षयस्य राजरोगस्य (नश्यति) (पुरा) पूर्वम् (जीवगृभः) यो जीवं गृह्णाति तस्य व्याधेः (यथा) येन प्रकारेण॥८५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सुहस्तक्रिययौषधीः संसाध्य यथाक्रममुपयोज्य यक्ष्मादिरोगान्निवार्य्य नित्यमानन्दाय प्रयतितव्यम्॥८५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (यथा) जिस प्रकार (पुरा) पूर्व (वाजयन्) प्राप्त करता हुआ (अहम्) मैं (यत्) जो (इमाः) इन (ओषधीः) ओषधियों को (हस्ते) हाथ में (आदधे) धारण करता हूं, जिनसे (जीवगृभः) जीव के ग्राहक व्याधि और (यक्ष्मस्य) क्षय=राजरोग का (आत्मा) मूलतत्त्व (नश्यति) नष्ट हो जाता है, उन ओषधियों को श्रेष्ठ युक्तियों से उपयोग में लाओ॥८५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि सुन्दर हस्तक्रिया से ओषधियों को सिद्ध कर ठीक-ठीक क्रम से उपयोग में ला और क्षय आदि बड़े रोगों को निवृत्त करके आनन्द के लिये प्रयत्न करें॥८५॥
भावार्थ
(यत्) जब ( अहम् ) मैं ( इमाः ओषधीः ) इन औषधियों की ( वाजयन् ) अधिक बलशाली बनाकर ( हस्ते आदधे ) अपने हाथ में लेता हूं (यथा पुरा ) पूर्व के समान ही तब (जीवगृभः) जीवन को लेलेने वाजे प्राणघातक ( यक्ष्मस्य ) राजयक्ष्मा का भी ( आत्मा ) मूल कारण ( पुरा नष्यति ) पहले ही नष्ट होजाता है । अथवा ( यथा जीवगृभः ) जिस प्रकार जीते जी पकड़े हुए अपराधी के आत्मा, प्राण ( पुरा ) पहले ही उठ जाते हैं उसी प्रकार ओषधि लेते ही ( यक्ष्मस्य पुरा आत्मा नश्यति ) रोग का मूल कारण पहले ही दूर होजाता है । इसी प्रकार मैं राजा जब ( ओषधीः ) वीर्यवती सेनाओं को ( वाज- यन् ) संग्राम के लिये उत्तेजित करता हुआ अपने हाथ में लेता हूं। तो ( यक्ष्मस्य ) ओषधियों से राजयक्ष्मा के समान पीड़ाकारी ( जीव- गृभः ) प्राणघाती नर-पिशाच का भी ( आत्मा पुरा नष्यति ) प्राण पहले ही निकलने लगता है ।
विषय
यक्ष्म के आत्मा का नाश
पदार्थ
१. 'ओषधियाँ रोग को धमकाकर भगा देती हैं', गत मन्त्र की इसी बात को और भी सुन्दर रूप में इस प्रकार कहते हैं कि (यत्) = ज्यों ही (वाजयन्) = रोगी को शक्तिशाली बनाता हुआ [बनाने की कामनावाला] मैं वैद्य (इमाः ओषधीः) = इन ओषधियों को (हस्ते) = हाथ में (आदधे) = धारण करता हूँ त्यों ही (यक्ष्मस्य) = रोग का (आत्मा) = स्वरूप (नश्यति) = नष्ट हो जाता है । औषध को खाने से पहले ही रोग नष्ट होने लगता है, खाने पर तो उसने बचना ही क्या है? २. यह वर्णन निःसन्देह काव्यात्मक है, इसमें अतिशयोक्ति अलंकार दिखता है, परन्तु इसमें बहुत कुछ सत्यता भी है। रोगी के मन पर वैद्य की महिमा, उसके प्रति विश्वास से उत्तम प्रभाव पड़ने से वह अपने को स्वस्थ होता हुआ अनुभव करता है। रोगी को जब वैद्य कहता है कि 'मा बिभेः न मरिष्यसि ' = ' डरता क्यों है, तू मरेगा नहीं। मैं अभी तेरे रोग को मारे डालता हूँ' हृदय में ऐसा विश्वास बैठने पर रोगी अपने को अच्छा अनुभव क्यों न करेगा ? ३. उपमा से इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि (यथा) = जैसे (जीवगृभः) =[जीवन् सन्नेव यो हिंसार्थं गृह्यते स जीवगृप् तस्य] कोई व्यक्ति जीवित ही फाँसी दिये जाने के लिए पकड़ लिया जाता है और वधस्थली की ओर ले जाया जाता है तो उस जीवगृभ् के प्राण अतिविषाद के कारण - 'मैं अब मरा' इस प्रकार सोचने के कारण पुरा = फाँसी देने से पहले ही नष्टप्राय हो जाते हैं उसी प्रकार ओषधि के वैद्य के हाथ में धारण करते ही रोग को अपनी मृत्यु दिखने लगती है और रोग की आत्मा नष्ट हो जाती है। रोग का ज़ोर नहीं रहता, यही यक्ष्म की आत्मा का नाश है।
भावार्थ
भावार्थ- सद्वैद्य आया, उसने औषध हाथ में पकड़ी और रोगी का रोग भागा। सद्वैद्य वही है जो रोगी की आत्मा को जिलाकर रोग की आत्मा को मार देता है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी स्वतः औषध तयार करून योग्य रीतीने उपयोगात आणावे व क्षयरोग इत्यादी भयंकर रोगांना नष्ट करून सदैव आनंद प्राप्त करण्याचा प्रयत्न करावा.
विषय
पुढील मंत्रातही तोच विषय (औषधीसेवन) कथित आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (एक अनुभवी वैद्याची उक्ती) हे मनुष्यांनो, (यथा) ज्याप्रमाणे (पुरा) पूर्वी (अहम्) मी (वाजयन्) प्रयत्नपूर्वक प्राप्त केलेल्या (यत्) ज्या (इमा:) या (ओषधी:) औषधींना (हस्ते) माझ्या हातात (आदधे) धारण केले आहे (या औषधी तुम्हांस दाखवीत आहे) या औषधीमुळे (जीवगृभ:) आयुष्याचा ताश करणाऱ्या व्याधीच आणि (यक्ष्मस्य) क्षय रोगासारख्या राजरोगाचे (आत्मा) मूलकारण (नश्यति) नष्ट होते. तुम्ही उत्तम युक्तीं (योग्यप्रमाणात) या औषधींचे उपयोग करा ॥85॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. मनुष्यांनी उपयुक्त पद्धतीने औषधी शुद्ध कराव्यात, (शोधन, जारण, मारण, भट, भस्म आदी पद्धतीद्वारे तयार करून) औषधींचा उचित प्रमाणात उपयोग करावा. तसेच या महौषधीमुळे क्षय आदी भीषण रोगांना देखील नष्ट करून नित्य आंनदात वाहण्यासाठी प्रयत्नशील असावे. ॥85॥
इंग्लिश (3)
Meaning
When I, obtaining them beforehand, hold these medicinal herbs within my hand, the root of life-killing disease like tuberculosis disappears.
Meaning
When I refine and strengthen these medicines and hold them in my hand, the very root of the consumptive ailment grabbing the vitality of the sick person is destroyed.
Translation
As soon as I take up these herbs in my hand to restore the strength of the patient, the soul of the wasting disease is destroyed, just as a condemned creature dies before its time. (1)
Notes
Yaksmasya, of the wasting disease, tuberculosis. Jivagrbhah, जीवन् सन् एव यो हिंसार्थं गृह्यते, one that is grabbed for killing; a creature condemned to death.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (য়থা) যে প্রকার (পুরা) পূর্বে (বাজয়ন্) প্রাপ্ত করিয়া (অহম্) আমি (য়ৎ) যে (ইমাঃ) এই সব (ওষধীঃ) ওষধীগুলিকে (হস্তে) হস্তে (আদধে) ধারণ করি যদ্দ্বারা (জীবগৃভঃ) জীবের গ্রাহক ব্যাধি ও (য়ক্ষস্য) ক্ষয় রাজরোগের (আত্মা) মূলতত্ত্ব (নশ্যতি) নষ্ট হইয়া যায় । সেই সব ওষধীগুলিকে শ্রেষ্ঠ যুক্তি দ্বারা উপযোগে আানিও ।
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, সুন্দর হস্তক্রিয়া দ্বারা ওষধীগুলিকে প্রতিপন্ন করিয়া ঠিক ঠিক ক্রমে কাজে লাগাও এবং ক্ষয়াদি বড় রোগগুলিকে নিবৃত্ত করিয়া আনন্দের জন্য প্রযত্নশীল হও ॥ ৮৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়দি॒মা বা॒জয়॑ন্ন॒হমোষ॑ধী॒র্হস্ত॑ऽআদ॒ধে ।
আ॒ত্মা য়ক্ষ্ম॑স্য নশ্যতি পু॒রা জী॑ব॒গৃভো॑ য়থা ॥ ৮৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়দিমা ইত্যস্য ভিষগৃষিঃ । বৈদ্যো দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal