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यजुर्वेद अध्याय - 28

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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 26
    ऋषिः - सरस्वत्यृषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृच्छक्वरी स्वरः - धैवतः
    2

    होता॑ यक्षदी॒डेन्य॒मीडि॒तं वृ॑त्र॒हन्त॑म॒मिडा॑भि॒रीड्य॒ꣳ सहः॒ सोम॒मिन्द्रं॑ वयो॒धस॑म्।अ॒नु॒ष्टुभं॒ छन्द॑ऽइन्द्रि॒यं पञ्चा॑विं॒ गां वयो॒ दध॒द्वेत्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥२६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। ई॒डेन्य॑म्। ई॒डि॒तम्। वृ॒त्र॒हन्त॑म॒मिति॑ वृत्र॒हन्ऽत॑मम्। इडा॑भिः। ईड्य॑म्। सहः॑। सोम॑म्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। अ॒नु॒ष्टुभ॑म्। अ॒नु॒स्तुभ॒मित्य॑नु॒ऽस्तुभ॑म्। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। पञ्चा॑वि॒मिति॒ पञ्च॑ऽअविम्। गाम्। वयः॑। दध॑त्। वेतु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥२६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षदीडेन्यमीडितँ वृत्रहन्तममिडाभिरीड्यँ सहः सोममिन्द्रँ वयोधसम् । अनुष्टुभञ्छन्दऽइन्द्रियम्पञ्चाविँगाँवयो दधद्वेत्वाज्यस्य होतर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। ईडेन्यम्। ईडितम्। वृत्रहन्तममिति वृत्रहन्ऽतमम्। इडाभिः। ईड्यम्। सहः। सोमम्। इन्द्रम्। वयोधसमिति वयःऽधसम्। अनुष्टुभम्। अनुस्तुभमित्यनुऽस्तुभम्। छन्दः। इन्द्रियम्। पञ्चाविमिति पञ्चऽअविम्। गाम्। वयः। दधत्। वेतु। आज्यस्य। होतः। यज॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 26
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे होतर्यथा होता वृत्रहन्तममिवेडाभिरीडेन्यमीडितं सह ईड्यं सोमं वयोधसमिन्द्रं यक्षदिन्द्रियमनुष्टुभं छन्दः पञ्चावि गां वयश्चाऽऽज्यस्य मध्ये दधद् वेतु तथैतान् यज॥२६॥

    पदार्थः

    (होता) आदाता (यक्षत्) संगच्छेत् (ईडेन्यम्) स्तोतुमर्हम् (ईडितम्) प्रशस्तम् (वृत्रहन्तमम्) अतिशयेन वृत्रस्य मेघस्य हन्तारं सूर्यमिव (इडाभिः) सुशिक्षिताभिर्वाग्भिः (ईड्यम्) प्रशंसितुमर्हम् (सहः) बलम् (सोमम्) सोमाद्योषधिगणम् (इन्द्रं) जीवम् (वयोधसम्) कमनीयानां प्राणानां धारकम् (अनुष्टुभम्) अनुस्तुम्भकम् (छन्दः) स्वातन्त्र्यम् (इन्द्रियम्) श्रोत्राादि (पञ्चाविम्) या पञ्च प्राणान् रक्षति ताम् (गाम्) पृथिवीम् (वयः) कमनीयं वस्तु (दधत्) धरत् सन् (वेतु) (आज्यस्य) विज्ञातुमर्हस्य (होतः) (यज)॥२६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या न्यायेन प्रशस्तगुणेन सूर्येणोपमिताः प्रशस्ता भूत्वा विज्ञेयानि वस्तूनि विदित्वा स्तुतिर्बलं जीवनं धनं जितेन्द्रियतां राज्यं च धरन्ति, ते प्रशंसार्हा भवन्ति॥२६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (होतः) यज्ञ करने हारे जन! जैसे (होता) शुभगुणों का ग्रहीता पुरुष (वृत्रहन्तमम्) मेघ को अत्यन्त काटने वाले सूर्य को जैसे वैसे (इडाभिः) अच्छी शिक्षित वाणियों से (ईडेन्यम्) स्तुति करने योग्य (ईडितम्) प्रशंसित (सहः) बल (ईड्यम्) प्रशंसा के योग्य (सोमम्) सोम आदि ओषधिगण और (वयोधसम्) मनोहर प्राणों के धारक (इन्द्रम्) जीवात्मा को (यक्षत्) सङ्गत करे और (इन्द्रियम्) श्रोत्र आदि (अनुष्टुभम्) अनुकूल थांभने वाली (छन्दः) स्वतन्त्रता से (पञ्चाविम्) पांच प्राणों की रक्षा करने वाली (गाम्) पृथिवी और (आज्यस्य) जानने योग्य जगत् के बीच (वयः) अभीष्ट वस्तु को (दधत्) धारण करता हुआ (वेतु) प्राप्त होवे, वैसे आप इन सब को (यज) सङ्गत कीजिए॥२६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य न्याय के साथ प्रशंसित गुण वाले सूर्य के तुल्य प्रशंसित हो के, विज्ञान के योग्य वस्तुओं को जान के स्तुति, बल, जीवन, धन, जितेन्द्रियपन और राज्य को धारण करते हैं, वे प्रशंसा के योग्य होते हैं॥२६॥

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    विषय

    होता द्वारा भिन्न-भिन्न अधिकारियों की नियुक्ति और उनके विशेष आवश्यक लक्षण, अधिकार और शक्तियों का वर्णन।

    भावार्थ

    (होता) योग्याधिकार दाता विद्वान् ( ईडेन्यम् ) स्तुति करने योग्य, ( वृत्रहन्तम् ) मेघ या अन्धकार को छिन्न-भिन्न करने वाले सूर्य के समान अज्ञान और बाधक कारणों को दूर करने वालों में सबसे श्रेष्ठ, ( इडाभिः ईड्यम् ) उत्तम वाणियों से प्रशंसा के योग्य (सहः) बल के कारण ( सोमम् ) सोम, चन्द्र के समान आह्लादक, (इन्द्रम् ) वायुवत् -बलवान्, विद्वान् ( वयोधसम् ) दीर्घायु पुरुष को ( यक्षत् ) स्थापित करे । (आनुष्टुभं छन्दः) अनुष्टुप् छन्द के समान, ३२ वर्ष के ब्रह्मचर्य पूर्वक (इन्द्रियम् ) शरीर के भीतर, इन्द्रिय, वीर्य और (पञ्चाविं गाम् ) ढाई वर्ष के बैल के समान (वय: ) बल को ( दधत् ) राष्ट्र में धारण करावे । वह विद्वान् (आज्यस्य वेतु) राष्ट्र ऐश्वर्य की वृद्धि करे । (होत: यज) हे विद्वन ! तू उसे पद प्रदान कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    निचृत् शक्वरी । धैवतः ॥

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    विषय

    पञ्चावि गौः

    पदार्थ

    १. (होता) = दानपूर्वक अदन करनेवाला (यक्षत्) = अपने साथ उस प्रभु को संगत करता है, जो [क] (ईडेन्यम्) = स्तुति के योग्य हैं, [ख] (इडाभिः ईडितम्) = सब वेदवाणियों से स्तुति किये गये हैं 'सर्वे वेदाः यत्पदमामनन्ति' [ग] (वृत्रहन्तमम्) = वासनाओं का सर्वाधिक विनाश करनेवाले हैं, [घ] (ईड्यम् सह:) = स्तुत्य शक्ति के पुञ्ज हैं, [ङ] (सोमम्) = अत्यन्त शान्त है, अर्थात् शक्ति के साथ शान्ति का प्रभु में पूर्ण समन्वय है, इसी से उनकी शक्ति प्रशंसनीय है, [च] (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली हैं, [छ] (वयोधसम्) = उत्कृष्ट जीवन को धारण करानेवाले हैं। २. होता को चाहिए कि उसमें [क] (अनुष्टुभम् छन्दः) = [अनुस्तौति ] प्रत्येक सफलता के साथ प्रभु-स्तवन की भावना हो, जिससे उस सफलता का गर्व न हो जाए, उस सफलता को प्रभु से होता हुआ समझकर हम अहंकार न करें, [ख] (इन्द्रियम्) = इन्द्रियों के सामर्थ्य को [ग] (पञ्चाविम् गाम्) = ज्ञान के द्वारा वासनाओं से बचाकर इस पाञ्चभौतिक शरीर की, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों कर्मेन्द्रियों व पाँचों प्राणों की रक्षा करनेवाली वेदवाणी को तथा [घ] (वयः) = उत्कृष्ट जीवन को (दधद्) = धारण करने के हेतु से (आज्यस्य वेतु) = शक्ति का पान करे, अपने में शक्ति को सुरक्षित करे। ३. हे (होतः) = दानपूर्वक अदन करनेवाले ! तू (यज) = यज्ञशील बन, दान देनेवाला बनकर प्रभु से अपना मेल बना।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम होता बनकर वासनाओं को नष्ट करनेवाले 'वृत्रहन्तम' प्रभु का अपने से मेल बनाएँ। हम प्रत्येक सफलता को प्रभु की शक्ति से होता हुआ समझें। हम उस वेदवाणी को अपनाएँ जो पाँचों इन्द्रियों की रक्षा करनेवाली है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्याप्रमाणे न्यायमार्गाने जाणारी असून प्रशंसेस पात्र ठरतात व विज्ञानाच्या साह्याने बल, जीवन, धन, जितेंद्रियता व राज्य धारण करतात ते प्रशंसा करण्यायोग्य असतात.

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    विषय

    पुन्हच, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (होतः) यज्ञ करणार्‍या मनुष्या, तसेच अतिजगती आदी अति छंदा मंत्राचे अर्थ जाणतात, ते सर्व ज्याप्रमाणे एक (होता) शुभगुणग्रहीता मनुष्य (वृत्रहन्तम्) मेघ मंडळाला छिन्न-भिन्न करणार्‍या सूर्याला (इडाभि) आपल्या सुशिक्षित वारीद्वारा (ईडेन्यम्) स्तुत्य आणि (ईडेन्यम्) प्रशंसनीय (सहः) बळाद्वारे (संगत वा संयुक्त करतो, सूर्याच्या शक्तीला जाणतो) त्याप्रमाणे (तू ही संगती कर) तसेच (ईडेन्यम्) प्रशंसनीय (सोमम्) सोम आदी औषधी शरीराशी आणि (वयोधसम्) प्रिय प्राणांचे धारक (इन्द्रम्) जीवात्माशी (यक्षत्) संयोग करतो (तसे तूही कर) (इन्द्रियम्) कर्ण आदी इंद्रियें यांना (अनुष्टुभम्) अनुकूलतेप्रमाणे नियंत्रित करतो व (छन्दः) स्वतंत्रवृत्तीने (पञ्चाविम्) पाच प्राणांचे रक्षण करणार्‍या (गाम्) पृथ्वीला आणि (आजस्य) ज्ञातव्य जगत (वयः) इच्छित वस्तूला (दधत्) धारण करतो आीण (वेतु) ती प्राप्त करतो, तसे हे विद्वान, या सर्वांची आपणही (यज) संगती करा ॥26॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जे मनुष्य न्यायाकरिता प्रख्यात अशा सूर्याप्रमाणे प्रशंसित माणूस होतो, विज्ञानानें पदार्थांची परीक्षा करून स्तुती, शक्ती, जीवन, धन हे सर्व अर्जित करतात आणि जितेंद्रिय राहून राज्यशासन करतात, ते अवश्य सर्व स्तुत्य होतात. ॥26॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O sacrifices just as a man possessing noble qualities, comes in contact with the Sun, the slayer of clouds, so should he come with instructive words, in contact with adorable, adored power, laudable medicinal herbs, and the soul, the sustainer of beautiful breaths. He enjoys all natures gifts, the organs like ear, sustainable freedom, the Earth, the protector of five breaths and desirable objects in this knowable world, so shouldst thou enjoy them all.

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    Meaning

    Let the man of yajna offer oblations to Indra, the Great Soul, worthy of love and praise, celebrated in sacred hymns, admirable breaker of the clouds of darkness, lord of courage and endurance, peace and bliss and the beauty and grace of life. And holding on to freedom and joy of the Anushtubh verses of the Veda, sensitivity of mind and senses, five streams of pranic energy and the beauty and poetry of life, the yajaka would create, promote and enjoy the wealth and prosperity of the world. Man of yajna, carry on the yajna, relent not!

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    Translation

    Let the sacrificer worship the resplendent Lord, worthy of praise (idenyam), and praised by sages, the greatest killer of evils, laudable with laudations. bestower of endurance, bliss as well as of long life. May He come to us with the anustup metre, bringing powers of all the sense-organs, a thirty months old cow, bestowing long life. O sacrificer, offer oblations of purified butter. (1)

    Notes

    Idenyam, स्तुत्यं, worthy of praises. Vrtrahantamain, वृत्रं हन्ति इति वृत्रहा; अतिशयेन वृत्रहा. इति वृत्रहंतम:, the greatest killer of evils or of nescience. Iḍabhiḥ idyam, laudable with lauds. Sahah somain vayodhasam, सहसा बलेन सोमवदाह्लादकं, pleasing as soma juice due to his power of endurance or of con quering, and bestower of long life on Indra. Or, bestower of en durance, bliss and long life. Pancavim, पंच अवयो यस्या: two and half years old.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (হোতঃ) যজ্ঞকারী ব্যক্তি! যেমন (হোতা) শুভ গুণের গ্রহীতা পুরুষ (বৃত্রহন্তমস) মেঘকে অত্যন্ত কর্ত্তনকারী সূর্য্যকে যেমন সেইরূপ (ইডাভিঃ) উত্তম শিক্ষিত বাণীসমূহ দ্বারা (ঈডেন্যম্) স্তুতি করিবার যোগ্য (ঈডিতম্) প্রশংসিত (সহঃ) বল (ঈড্যম্) প্রশংসার যোগ্য (সোমম্) সোমাদি ওষধিসমূহ এবং (বয়োধসম্) মনোহর প্রাণগুলির ধারক (ইন্দ্রম্) জীবাত্মাকে (যক্ষৎ) সঙ্গত করুক এবং (ইন্দ্রিয়ম্) শ্রোত্রাদি (অনুষ্টুভম্) অনুকূল স্তম্ভযুক্তা (ছন্দঃ) স্বতন্ত্রতাপূর্বক (পঞ্চাবিম্) পঞ্চ প্রাণের রক্ষাকারিণী (গাম্) পৃথিবী এবং (আজ্যস্য) জানিবার যোগ্য জগতের মধ্যে (বয়ঃ) অভীষ্ট বস্তুকে (দধৎ) ধারণ করিয়া (বেতু) প্রাপ্ত হইবে, সেইরূপ আপনি এই সকলকে (য়জ) সঙ্গত করুন ॥ ২৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য ন্যায় সহ প্রশংসিত গুণযুক্ত সূর্য্যতুল্য প্রশংসিত হইয়া বিজ্ঞানের যোগ্য বস্তুসকলকে জানিয়া স্তুতি, বল, জীবন, ধন, জিতেন্দ্রিয়তা এবং রাজ্যের ধারণা করেন তাহারা প্রশংসার যোগ্য হয় ॥ ২৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    হোতা॑ য়ক্ষদী॒ডেন্য॒মীডি॒তং বৃ॑ত্র॒হন্ত॑ম॒মিডা॑ভি॒রীড্য॒ꣳ সহঃ॒ সোম॒মিন্দ্রং॑ বয়ো॒ধস॑ম্ । অ॒নু॒ষ্টুভং॒ ছন্দ॑ऽইন্দ্রি॒য়ং পঞ্চা॑বিং॒ গাং বয়ো॒ দধ॒দ্বেত্বাজ্য॑স্য॒ হোত॒র্য়জ॑ ॥ ২৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    হোতেত্যস্য সরস্বতৃ্যষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । নিচৃচ্ছক্বরী ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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