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यजुर्वेद अध्याय - 28

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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 35
    ऋषिः - सरस्वत्यृषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    2

    दे॒वं ब॒र्हिर्व॑यो॒धसं॑ दे॒वमिन्द्र॑मवर्धयत्।गा॒य॒त्र्या छन्द॑सेन्द्रि॒यं चक्षु॒रिन्द्रे वयो॒ दध॑द् वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वेतु॒ यज॑॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वम्। ब॒र्हिः। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒य॒त्। गा॒य॒त्र्या। छन्द॑सा। इ॒न्द्रि॒यम्। चक्षुः॑। इन्द्रे॑। वयः॑। दध॑त्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वेतु॑। यज॑ ॥३५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवम्बर्हिर्वयोधसन्देवमिन्द्रमवर्धयत् । गायत्र्या छन्दसेन्द्रियञ्चक्षुरिन्द्रे वयो दधद्वसुवने वसुधेयस्य वेतु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवम्। बर्हिः। वयोधसमिति वयःऽधसम्। देवम्। इन्द्रम्। अवर्धयत्। गायत्र्या। छन्दसा। इन्द्रियम्। चक्षुः। इन्द्रे। वयः। दधत्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वेतु। यज॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 35
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    कीदृशा जना वर्धन्त इत्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्! यथा देवं बर्हिर्वयोधसं देवमिन्द्रमवर्धयद् यथा च गायत्र्या छन्दसा चक्षुरिन्द्रियं वयश्चेन्द्रे दधत् सद् वसुधेयस्य वसुवने वेतु तथा यज॥३५॥

    पदार्थः

    (देवम्) दिव्यगुणम् (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (वयोधसम्) वयोवर्धकम् (देवम्) दिव्यस्वरूपम् (इन्द्रम्) सूर्यम् (अवर्धयत्) वर्धयति (गायत्र्या) (छन्दसा) (इन्द्रियम्) इन्द्रस्य जीवस्य लिङ्गम् (चक्षुः) नेत्रम् (इन्द्रे) जीवे (वयः) जीवनम् (दधत्) धरत् (वसुवने) धनविभाजकाय (वसुधेयस्य) द्रव्याऽऽधारस्य संसारस्य (वेतु) प्राप्नोतु (यज) संगच्छस्व॥३५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽऽकाशे सूर्यप्रकाशो वर्धते, तथा वेदेषु प्रज्ञा वर्धते। येऽस्मिन् संसारे वेदद्वारा सर्वाः सत्यविद्या जानीयुस्ते सर्वतो वर्धेरन्॥३५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    कैसे मनुष्य बढ़ते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् पुरुष! जैसे (देवम्) उत्तम गुणों वाला (बर्हिः) अन्तरिक्ष (वयोधसम्) अवस्थावर्धक (देवम्) उत्तम रूप वाले (इन्द्रम्) सूर्य को (अवर्धयत्) बढ़ाता है अर्थात् चलने का अवकाश देता है और जैसे (गायत्र्या, छन्दसा) गायत्री छन्द से (इन्द्रियम्) जीव के चिह्न (चक्षुः) नेत्र इन्द्रिय को और (वयः) जीवन को (इन्द्रे) जीव में (दधत्) धारण करता हुआ (वसुधेयस्य) द्रव्य के आधार संसार के (वसुवने) धन का विभाग करने हारे मनुष्य के लिए (वेतु) प्राप्त होवे, वैसे (यज) समागम कीजिए॥३५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे आकाश में सूर्य का प्रकाश बढ़ता है, वैसे वेदों का अभ्यास करने में बुद्धि बढ़ती है। जो इस जगत् में वेद के द्वारा सब सत्य विद्याओं को जानें, वे सब ओर से बढ़ें॥३५॥

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    विषय

    उनका इन्द्र सेनानायक और उनके ऐश्वर्य को बढ़ाने का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( देवम् ) दिव्य गुण वाला (बर्हिः) आकाश (इन्द्रम् देवम्) प्रकाशमान सूर्य को, उसके सामर्थ्य की ( अवर्धयत् ) वृद्धि करता, उसके तेज़ को फैलने देता है और वही प्रकाश, (इन्द्रे) जीवन में (चक्षुः इद्रियं वयः दधत् ) चक्षु नामक तेजोमय इन्द्रिय को बल धारण कराता है, उसी प्रकार ( देवम् बर्हिः) दानशील, करप्रद प्रजा ( वयोधसम् ) बल और ऐश्वर्य के धारण करने वाले ( देवम् इन्द्रम् ) तेजस्वी राजा की ( अवर्धयत् ) वृद्धि करता है । वह प्रजागण, (गायत्र्या छन्दसा ) गायत्री छन्द अर्थात् २४ वर्ष के व्रतपालक ब्राह्मणरूप बल से (इन्द्रे) ऐश्वर्यवान् राजा में ( चक्षुः इन्द्रियम् ) आंख के समान देखने वाली शक्ति और (वय: दधत् ) बल को धारण करावे । वह प्रजारूप गायत्री (वसुवने ) ऐश्वर्यवान् राजा के (वसुधेयस्य) ऐश्वर्य का (वसु) पालन करे । हे होतः ! (यज) तू उसको यह अधिकार प्रदान कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रो देवता । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    गायत्री छन्द

    पदार्थ

    १. (देवम् बर्हिः) = दिव्य गुणों को धारण करनेवाला वासनाशून्य हृदय (वयोधसम्) = उत्कृष्ट आयुष्य को धारण करनेवाला है। हृदय के अच्छा होने पर जीवन भी अच्छा होता है। २. यह (हृदय देवम्) = ज्ञान की ज्योति से जगमगानेवाले (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (अवर्द्धयत्) = बढ़ाता है। हृदय की पवित्रता ही सब प्रकार की वृद्धि का मूल है। ३. (गायत्र्या छन्दसा) = प्राणशक्ति की रक्षा की प्रबल इच्छा के द्वारा (इन्द्रियम्) = वीर्य व इन्द्रियों के सामर्थ्य को, (चक्षुः) = दृष्टिशक्ति को तथा (वयः) = उत्कृष्ट जीवन को (इन्द्रे) = जितेन्द्रिय पुरुष में (दधत्) = स्थापित करता हुआ, यह पवित्र हृदय (वसुवने) = धन के सेवन में (वसुधेयस्य) = धन के आधारभूत प्रभु को वेतु प्रजनन करे 'प्रभु- भावना' को अपने में विकसित करे। ४. हे (होत:) = दानशील पुरुष ! तू (यज) = इस पवित्र हृदय के द्वारा उस प्रभु का अपने-आप संगम कर, प्रभु की पूजा करनेवाला बन उसके प्रति अपना अर्पण कर दे।

    भावार्थ

    भावार्थ - दिव्य हृदय प्रभु-प्राप्ति का प्रथम साधन है। प्रभु प्राप्ति के लिए साधना का प्रारम्भ वहीं से होता है कि हम हृदय को वासनाशून्य बनाएँ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकर आहे. जसा आकाशात सूर्यप्रकाश वाढतो तसे वेदाचा अभ्यास करण्याने बुद्धी वाढते जे या जगात वेदाद्वारे सर्व विद्या जाणतात त्यांची सर्व तऱ्हेने वाढ होते.

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    विषय

    कशी माणसें प्रगती करतात, या विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान महोदय, ज्याप्रमाणे (देवम्) उत्तम गुणवान हा (बर्हिः) आकाश (वयोधसम्) आयुष्य वाढविणार्‍या (देवम्) दिव्य रूपवान (इन्द्रम्) सूर्याला (अवर्धयत्) वाढवितो अर्थात सूर्याला चलणे, परिभ्रमण आदी कार्यासाठी स्थान देतो (तसा तूही सर्वांना योग्य सहाय्य देत जा) जसा (तो होता) (गायत्र्या, छन्दसा) गायत्री छंदाने (इन्द्रियम्) जीवाचे चिन्ह ओळखतो, (चक्षुः) नेत्राला आणि (वयः) जीवनाला (इन्द्रे) जीवामधेच (दधत्) धारण करीत (वसुधेयस्य) द्रव्याचा आधार जो हा संसार, त्यात (वसुवने) धनाचा विभाग करणार्‍या मनुष्याला (वेतु) प्राप्त करो, तसे तुम्हीही (यज) यज्ञ करा वा संगती-समागम करा. ॥35॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जसा आकाशात सूर्याचा प्रकाश वाढतो वा पसरतो, तसेच वेदाभ्यास केल्याने बुद्धीचा विकास होतो. जे लोक या जगात वेदांद्वारा सर्व सत्यविद्या जाणून घेतात, ते सर्वत्र वृद्धिंगत वा प्रगत होतात. ॥35॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, just as well-merited space develops the beautiful, life-infusing Sun, and just as a yogi through Gayatri metre establishes in the soul, the power to perceive like an eye, and enjoy long life, and befriends a man, who makes the best use of the riches of this world, the source of all wealth, so shouldst thou perform yajna.

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    Meaning

    The splendid fire, the sacred grass around the vedi, and the wide space of the sky exalt the divine Indra, sun, ruler of the world and giver of life and beauty, and, inspiring and investing Indra, the soul, with the joyous vision of the Gayatri verses of the Veda, freedom of spirit, wealth and sensitivity of mind and intelligence, vision of reality and the beauty and dignity of life, bring down the blessings of heaven to the earth for dedicated humanity. Man of yajna, keep the fire burning. Let it never go out.

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    Translation

    The divine sacrifice (barhis) makes the divine aspirant prosper enjoying a long life; with the gayatri metre, it bestows on the aspirant resplendence, vision and long life. At the time of distribution of wealth, may it procure the store of wealth for us. Offer sacrifice. (1)

    Notes

    Indram, the aspirant; one who wants to achieve or accomplish some thing great. Cakṣuḥ, vision; eye sight. Devam barhiḥ, divine or shining sacrifice. Vasuvane, at the time of distribution of wealth.

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    बंगाली (1)

    विषय

    কীদৃশা জনা বর্ধন্ত ইত্যাহ ॥
    কেমন করিয়া মনুষ্য বৃদ্ধি পায়, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ পুরুষ ! যেমন (দেবম্) উত্তম গুণযুক্ত (বর্হিঃ) অন্তরিক্ষ (বয়োধসম্) অবস্থাবর্ধক (দেবম্) উত্তম রূপ যুক্ত (ইন্দ্রম্) সূর্য্যকে (অবর্ধয়ৎ) বৃদ্ধি করে অর্থাৎ গমন করিবার অবকাশ প্রদান করে এবং যেমন (গায়ত্র্যা, ছন্দসা) গায়ত্রী ছন্দ দ্বারা (ইন্দ্রিয়ম্) জীবের চিহ্ন (চক্ষুঃ) নেত্র ইন্দ্রিয়কে এবং (বয়ঃ) জীবনকে (ইন্দ্রে) জীবে (দধৎ) ধারণ করিয়া (বসুধেয়স্য) দ্রব্যের আধার সংসারের (বসুবনে) ধনের নির্মাণকারী মনুষ্যের জন্য (বেতু) প্রাপ্ত হউক সেইরূপ (য়জ) সমাগম করুন ॥ ৩৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন আকাশে সূর্য্যের প্রকাশ বৃদ্ধি হয় সেইরূপ বেদাভ্যাস করিলে বুদ্ধি বৃদ্ধি পায় । যাহারা এই জগতে বেদের দ্বারা সব সত্যবিদ্যাসমূহ কে জানিবে তাহারা সব দিক দিয়া অগ্রসর হয় ॥ ৩৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দে॒বং ব॒র্হির্ব॑য়ো॒ধসং॑ দে॒বমিন্দ্র॑মবর্ধয়ৎ । গা॒য়॒ত্র্যা ছন্দ॑সেন্দ্রি॒য়ং চক্ষু॒রিন্দ্রে বয়ো॒ দধ॑দ্ বসু॒বনে॑ বসু॒ধেয়॑স্য বেতু॒ য়জ॑ ॥ ৩৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেবমিত্যস্য সরস্বতৃ্যষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । ভুরিক্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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