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यजुर्वेद अध्याय - 37
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  • यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 12
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - पृथिवी देवता छन्दः - स्वराडुत्कृतिः स्वरः - षड्जः
    2

    अना॑धृष्टा पु॒रस्ता॑द॒ग्नेराधि॑पत्य॒ऽआयु॑र्मे दाः।पु॒त्रव॑ती दक्षिण॒तऽइन्द्र॒स्याऽधि॑पत्ये प्र॒जां मे॑ दाः।सु॒षदा॑ प॒श्चाद्दे॒वस्य॑ सवि॒तुराधि॑पत्ये॒ चक्षु॑र्मे दाः।आश्रु॑तिरुत्तर॒तो धा॒तुराधि॑पत्ये रा॒यस्पोषं॑ मे दाः।विधृ॑तिरु॒परि॑ष्टा॒द् बृह॒स्पते॒राधि॑पत्य॒ऽओजो॑ मे दाः।विश्वा॑भ्यो मा ना॒ष्ट्राभ्य॑स्पाहि॒ मनो॒रश्वा॑सि॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अना॑धृष्टा। पु॒रस्ता॑त्। अ॒ग्नेः। आधि॑पत्य॒ इत्याधि॑ऽपत्ये। आयुः॑। मे॒। दाः॒। पु॒त्रव॒तीति॑ पु॒त्रऽव॑ती। द॒क्षि॒ण॒तः। इन्द्र॑स्य। आधि॑पत्य॒ इत्याधि॑ऽपत्ये। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। मे॒। दाः॒। सु॒षदा॑। सु॒सदेति॑ सु॒ऽसदा॑। प॒श्चात्। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। आधि॑पत्य॒ इत्याधि॑ऽपत्ये॒। चक्षुः॑। मे॒। दाः॒। आश्रु॑ति॒रित्याश्रु॑तिः। उ॒त्त॒र॒तः। धा॒तुः। आधि॑पत्य॒ इत्याधि॑ऽपत्ये। रा॒यः। पोष॑म्। मे॒। दाः॒। विधृ॑ति॒रिति॒ विऽधृ॑तिः। उ॒परि॑ष्टात्। बृह॒स्पतेः॑। आधि॑पत्य॒ इत्याधि॑ऽपत्ये। ओजः॑। मे॒। दाः॒। विश्वा॑भ्यः। मा॒। ना॒ष्ट्राभ्यः॑। पा॒हि॒। मनोः॑। अश्वा॑। अ॒सि॒ ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनाधृष्टा पुरस्तादग्नेराधिपत्य आयुर्मे दाः पुत्रवती दक्षिणतऽइन्द्रस्याधिपत्ये प्रजाम्मे दाः । सुषदा पश्चाद्देवस्य सवितुराधिपत्ये चक्षुर्मे दाऽआस्रुतिरुत्तरतो धातुराधिपत्ये रायस्पोषम्मे दाः । विधृतिरुपरिष्टाद्बृहस्पतेराधिपत्येऽओजो मे दाः । विश्वाभ्यो मा नाष्ट्राभ्यस्पाहि । मनोरश्वासि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अनाधृष्टा। पुरस्तात्। अग्नेः। आधिपत्य इत्याधिऽपत्ये। आयुः। मे। दाः। पुत्रवतीति पुत्रऽवती। दक्षिणतः। इन्द्रस्य। आधिपत्य इत्याधिऽपत्ये। प्रजामिति प्रऽजाम्। मे। दाः। सुषदा। सुसदेति सुऽसदा। पश्चात्। देवस्य। सवितुः। आधिपत्य इत्याधिऽपत्ये। चक्षुः। मे। दाः। आश्रुतिरित्याश्रुतिः। उत्तरतः। धातुः। आधिपत्य इत्याधिऽपत्ये। रायः। पोषम्। मे। दाः। विधृतिरिति विऽधृतिः। उपरिष्टात्। बृहस्पतेः। आधिपत्य इत्याधिऽपत्ये। ओजः। मे। दाः। विश्वाभ्यः। मा। नाष्ट्राभ्यः। पाहि। मनोः। अश्वा। असि॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 37; मन्त्र » 12
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह॥

    अन्वयः

    हे स्त्रि! त्वमनाधृष्टा सती पुरस्तादग्नेराधिपत्ये म आयुर्दाः, पुत्रवती सती दक्षिणत इन्द्रस्याधिपत्ये मे प्रजां दाः, सुषदा सती पश्चात् सवितुर्देवस्याधिपत्ये मे चक्षुर्दा, आश्रुतिः सत्युत्तरतो धातुराधिपत्ये मे रायस्पोषं दाः, विधृतिः सत्युपरिष्टाद् बृहस्पतेराधिपत्ये म ओजो दाः। यतो मनोरश्वाऽसि तस्माद्विश्वाभ्यो नाष्ट्राभ्यो मा पाहि॥१२॥

    पदार्थः

    (अनाधृष्टा) परैर्धर्षणरहिता (पुरस्तात्) पूर्वदेशात् (अग्नेः) पावकस्य (आधिपत्ये) अधिपतेर्भावे (आयुः) जीवनप्रदमन्नम्। आयुरित्यन्ननामसु पठितम्॥ (निघं॰२।७) (मे) मह्यम् (दाः) दद्याः (पुत्रवती) प्रशस्ताः पुत्रा विद्यन्ते यस्याः सा (दक्षिणतः) दक्षिणाद्देशात् (इन्द्रस्य) विद्युत ऐश्वर्यस्य वा (आधिपत्ये) अधिष्ठातृत्वे (प्रजाम्) (मे) मह्यम् (दाः) दद्याः (सुषदा) सुष्ठु सीदन्ति यस्यां सा (पश्चात्) पश्चिमतः (देवस्य) देदीप्यमानस्य (सवितुः) सवितृमण्डलस्य (आधिपत्ये) (चक्षुः) (मे) मह्यम् (दाः) (आश्रुतिः) समन्ताच्छ्रवणं यस्याः सा (उत्तरतः) (धातुः) धर्त्तुर्वायोः (आधिपत्ये) (रायः) धनस्य (पोषम्) पुष्टिम् (मे) (दाः) (विधृतिः) विविधा धारणा यस्याः सा (उपरिष्टात्) ऊर्ध्वात् (बृहस्पतेः) बृहतां पालकस्य सूत्रात्मनः (आधिपत्ये) (ओजः) बलम् (मे) (दाः) (विश्वाभ्यः) सर्वाभ्यः (मा) माम् (नाष्ट्राभ्यः) नष्टभ्रष्टस्वभावाभ्यो व्यभिचारिणीभ्यः (पाहि) (मनोः) अन्तःकरणस्य (अश्वा) व्यापिका (असि) भवसि॥१२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! यथाऽग्निर्जीवनं यथा विद्युत् प्रजां यथा सविता दर्शनं धाता श्रियं महाशयो बलञ्च ददाति, तथैव सुलक्षणा पत्नी सर्वाणि सुखानि प्रयच्छति, तां यथावद् रक्षत॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे स्त्रि! तू (अनाधृष्टा) दूसरों से नहीं धमकायी हुई (पुरस्तात्) पूर्वदेश से (अग्नेः) अग्नि के (आधिपत्ये) स्वामीपन में (मे) मेरे लिये (आयुः) जीवन के हेतु अन्न को (दाः) दे (पुत्रवती) प्रशंसित पुत्रों वाली हुई (दक्षिणतः) दक्षिण देश से (इन्द्रस्य) बिजुली वा सूर्य्य के (आधिपत्ये) स्वामीपन में (मे) मेरे लिये (प्रजाम्) प्रजा सन्तान (दाः) दीजिये (सुषदा) जिसके सम्बन्ध में सुन्दर प्रकार स्थित हो, ऐसी हुई (पश्चात्) पश्चिम से (देवस्य) प्रकाशमान (सवितुः) सूर्य्यमण्डल के (आधिपत्ये) स्वामीपन में (मे) मेरे लिये (चक्षुः) नेत्र (दाः) दीजिये (आश्रुतिः) अच्छे प्रकार जिसका सुनना हो, ऐसी हुई तू (उत्तरतः) उत्तर से (धातुः) धारणकर्त्ता वायु के (आधिपत्ये) मालिकपन में (मे) मेरे लिये (रायः धन की (पोषम्) पुष्टि को (दाः) दे (विधृतिः) अनेक प्रकार की धारणाओं वाली हुई (उपरिष्टात्) ऊपर से (बृहस्पतेः) बड़े-बड़े पदार्थों के रक्षक सूत्रात्मा वायु के (आधिपत्ये) स्वामीपन में (मे) मेरे लिये (ओजः) बल (दाः) दे। जिस कारण (मनोः) मननशील अन्तःकरण की (अश्वा) व्यापिका (असि) है, इससे (विश्वाभ्यः) सब (नाष्ट्राभ्यः) नष्ट-भ्रष्ट स्वभाववाली व्यभिचारिणियों से (मा) मुझको (पाहि) रक्षित कर॥१२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! जैसे अग्नि जीवन को, जैसे बिजुली प्रजा को, जैसे सूर्य देखने को, धारणकर्त्ता ईश्वर लक्ष्मी और शोभा को और महाशयजन बल को देता है, वैसे ही सुलक्षणा पत्नी सब सुखों को देती है, उसकी तुम रक्षा किया करो॥१२॥

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    विषय

    पृथ्वी निवासिनी प्रजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे पृथिवि ! [१] (अनाघ्टष्टा) शत्रु से कभी घर्षण नहीं की जाकर तू ( पुरस्तात् ) पूर्व की दिशा से (अग्नेः) अग्नि अर्थात् सूर्य के ( आधिपत्ये ) स्वामित्व में रह कर (आयुः) जीवनप्रद अन्न का प्रदान -करती है उसी प्रकार तू अग्नि के समान तेजस्वी शत्रुसंतापक, प्रतापी, अग्रणी नायक के स्वामित्व में रहकर (मे) मुझ प्रजाजन को (आयुः दाः) आयु प्रदान कर । (२) हे पृथिवि ! (पुत्रवती) पुत्रों बाली पति के अधीन रहकर उत्तम प्रजा को प्रदान करती है, इसी प्रकार तू भी ( पुत्रवती ) पुरुषों को दु:खों से बचाने वाले वीर पुरुष से युक्त होकर (दक्षिणतः ) दक्षिण दिशा से (इन्द्रस्य आधिपत्ये ) विद्युत् या सूर्य के समान तेजस्वी,. केः शत्रुनाशक, ऐश्वर्यवान् पुरुष के स्वामित्व में रहकर ( मे ) मुझ राष्ट्र राजवर्ग को उत्तम ( प्रजां दाः ) प्रजा, सन्तति प्रदान कर । ( ३ ) हे पृथिवि ! तू (सुपदा) सुख से बैठने और बसने योग्य समतल होकर (पश्चात् ) पश्चिम से (देवस्य सवितुः) प्रकाशमान सूर्य के अधीन रहकर चक्षु, उत्तम दर्शनशक्ति प्रदान करती है । जिस समतल भूमि पर सूर्य का. प्रकाश विस्तृत पड़ता है दूर तक स्पष्ट दिखाई देता है । उसी प्रकार तू (देवस्य सवितुः) दानशील, विजिगीषु सूर्य के समान तेजस्वी, सबके प्रेरक पुरुष के अधीन रहकर (मे) मुझ शासक को (चक्षुः ) ज्ञान चक्षु एवं प्रजा पर निरीक्षण करने का बल (दाः) प्रदान कर । ( ४ ) (आश्रुतिः) सब तरफ से उत्तम रीति से श्रवण करने हारी होकर (उत्तरतः ) उत्तर दिशा से (धातुः ) धारण करने वाले, वायु के समान व्यापक, बलशाली पुरुष के (आधिपत्ये) स्वामित्व में रहकर (रायः पुष्टिः) धन समृद्धि और पशु सम्पत्ति को (मे दा:) मुझे प्रदान कर । (५) (विघ्टति:) विविध पदार्थों और विशेष ज्ञान के धारण में समर्थ होकर तू (बृहस्पतेः) बृहती, वेद- वाणी के पालक विद्वान् पुरुष के (आधिपत्ये) स्वामित्व में, (मे) मुझे (भोजः) बल, पराक्रम एवं ब्रह्मचर्यपूर्वक वीर्य (दाः) प्रदान कर । ( ६ ). (मा) मुझको (विश्वाभ्यः) समस्त ( नाष्ट्राभ्यः ) नाश करने वाली दुष्ट स्वभाव की शत्रुसेनाओं से (पाहि) सुरक्षित रख । तू (मनोः) मननशील पुरुष के (अश्वा) भोग करने योग्य (असि ) है । शरीर के पांच मुख्य भाग हैं नाक, मुख, प्रजननाङ्ग, चक्षु, मन और धारण बुद्धि । इनके पांच कार्य हैं प्राण और अन्न का ग्रहण, प्रजा प्राप्त करना, देखना, दुर का श्रवण करना, ज्ञान प्राप्त करना । इन सब शक्तियों से युक्त पृथिवीनिवासिनी प्रजा क्रम से (१) अन्न और प्राण के बल से वह शत्रु से कभी पराजित नहीं होती । ऐसी प्रजा अपने नायक के अधीन रहकर राजा के राज्य की आयु को बढ़ाती है। (२) खूब प्रजाओं, सन्ततियों से पृथिवीनिवासिनी प्रजा पुत्रवती होकर सेनापति को वीर सैनिक प्रदान करती है । (३)- सुख से जिसमें राजा शासन करता है वह प्रजा दूरदर्शिनी है वह कभी अन्धी होकर द्रोह नहीं करती । वह शान्ति से दूर तक देखने और गम्भीर . विचारने का अवसर प्रदान करती है । (४) समृद्ध प्रजा राजा की आज्ञा-- पालन करने वाली 'आश्रति' है । वह अपने पोषक राजा के अधीन रहे तो और समृद्ध होती है । (५) राष्ट्रपालक या सेनानायक के अधीन रह कर राष्ट्र की विविध प्रजाओं को अपने भीतर धरती है वह 'विष्टति' है । उसमें बल पराक्रम की मात्रा बहुत है । वह राजा को सब विपत्तियों से बचावे । वह मननशील राजा के ही भोग्य हो, मूर्ख, अत्याचारी राजा उसको भोग न सके ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पृथिवी । स्वराड् उत्कृतिः । षड्जः ॥

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    विषय

    पत्नी के जीवन की पाँच बातें।

    पदार्थ

    पति पत्नी से कहता है १. (पुरस्तात्) - इस आगे बढ़ने की [पुर:-आगे] पूर्व दिशा में (अनाधृष्टा) = किसी भी प्रकार से धर्षित, वासनाओं से पराजित न होती हुई तू (अग्नेः) = अग्नि के (आधिपत्ये) = आधिपत्य में, अर्थात् अग्नि-तुल्य पतिवाली होती हुई (मे) = मेरे लिए (आयुः) = उत्तम दीर्घजीवन दाः=देनेवाली हो। पत्नी को अनाधृष्ट बनना, वासनाओं से कभी पराजित नहीं होना तो पति ने अग्नि बनना, सदा आगे बढ़ने की भावनावाला होना। पूर्व दिशा का दोनों के लिए यही पाठ है। आगे और आगे जैसे सूर्य इस दिशा में बढ़ रहा है, इसी प्रकार पति-पत्नी ने आगे और आगे चलना है। वासनाओं से अपराजित, आगे बढ़ने की भावना से परिपूर्ण तभी उत्तम दीर्घजीवन की प्राप्ति होगी । ३. (दक्षिणतः) = अब दाक्षिण्य=उदारता व कुशलता की दक्षिण दिशा में (पुत्रवती) = उत्तम सन्तानोंवाली तू (इन्द्रस्य आधिपत्ये) = इन्द्र के आधिपत्य में, अर्थात् जितेन्द्रिय व धन कमानेवाले पतिवाली तू (मे) = मेरे लिए (प्रजाम्) = शक्तियों के विकासवाली उत्तम सन्तान दे। पति-पत्नी दोनों ने दक्षिण दिशा में दाक्षिण्य= उदारता व कर्मकुशलता का पाठ पढ़ना है। पत्नी ने अपना मुख्य कार्य सन्तानों का निर्माण समझना है, उसे उत्तम पुत्रोंवाली - पुत्रवती बनना है। पति ने (इन्द्र) = जितेन्द्रिय व धन कमानेवाला होना है। ऐसा होने पर ही इनकी सन्तानें प्रजा प्रकृष्ट विकासवाली होंगी। ३. (पश्चात्) = अब पश्चिम दिशा में (सुषदा) = घर में उत्तमता से निवास करनेवाली (देवस्य सवितुः) = सवितादेव के आधिपत्य में, अर्थात् कमानेवाले [ सविता षु = प्रसव = पैदा करना = धन कमाना ] तथा उदार [देवो दानात्] पतिवाली तू (मे) = मुझे (चक्षुः) = प्रकाश को (दाः) = देनेवाली हो, अर्थात् संघर्ष व समस्या आने पर उत्तम सलाह देनेवाली हो, मार्ग को सुझानेवाली हो। पत्नी ने मुख्यरूप से घर में ही अपना स्थान समझना है, उसने घर को उत्तम बनाना है। कमाना काम पति का है, वह निकम्मा न हो, सदा श्रम से धनार्जन करे तथा पत्नी को उदारता से घर के व्यय के लिए धन देनेवाला हो । घर में पूर्ण स्वास्थ्य के साथ निवास करती हुई पत्नी सदा नेक सलाह देनेवाली होती है। समस्याओं में पति के लिए सहायक होती है। पत्नी पति की आँख बनती है। ४. (उत्तरतः) = इस ऊपर उठने की उत्तर दिशा में (आश्रुतिः) = समन्तात्, सब ओर से ज्ञान की बातों को श्रवण करनेवाली तू (धातुः आधिपत्ये) = धाता के आधिपत्य में, अर्थात् धारण करनेवाले पतिवाली होती हुई (मे) = मेरे लिए (रायस्पोषम्) = धन के पोषण को (दा:) = देनेवाली हो। वस्तुतः पति ने तो कमाना ही है, उसका बुद्धिमत्तापूर्वक व्यय पत्नी ने ही करना है। विवाह संस्कार में इसी दृष्टिकोण से वधू का एक व्रत यह भी होता है कि मेरा सारा व्यवहार घर के ऐश्वर्य को बढ़ानेवाला होता है 'समृद्धिकरणम्' । पत्नी की यह विशेषता होनी चाहिए कि वह 'आश्रुति' हो, खूब सुननेवाली । 'बोलना कम सुनना अधिक' यही आदर्श गृहिणी का आदर्श वाक्य हो। पति 'धाता' धारण करनेवाला हो, पोषण के लिए पर्याप्त धन न कमानेवाला पति 'पति' होने योग्य नहीं है। पत्नी ने उस कमाये हुए धन का उचित व्यय करते हुए घर पर कभी ऋण का बोझ नहीं आने देना। ५. (उपरिष्टात्) = इस ऊर्ध्वा दिशा की ओर देखते हुए (विधृतिः) = विशिष्ट धैर्यवाली, कभी भी मानस सन्तुलन को न खोनेवाली तू (बृहस्पतेः) = बृहस्पति के (आधिपत्ये) = आधिपत्य में, अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त करनेवाले पतिवाली तू (मे) = मेरे लिए (ओजः) = ओज को, वृद्धि की कारणभूत शक्ति को (दाः) = देनेवाली हो। पत्नी में धैर्य व दृढ़ता हो, पति में उत्कृष्ट ज्ञान हो तो घर में वह शक्ति बनी रहती है जो सब उन्नतियों का कारण है। तभी घर उन्नति के शिखर पर पहुँचता है, यही ऊर्ध्वा दिशा में स्थित होना है। ६. इस प्रकार के जीवनवाली बनकर तू (मा) = मुझे (विश्वाभ्यः) = सब (नाष्ट्राभ्यः) = नाशक शक्तियों से (पाहि) = बचा। जिस समय पत्नी ('अनाधृष्ट') = न होकर वासनाओं का शिकार होने से मर्यादा का उल्लंघन कर जाती है, सन्तानों का ध्यान न करने से उत्तम पुत्रोंवाली 'पुत्रवती' नहीं होती, घर में उत्तमता से रहनेवाली 'सुषदा' न बनकर कुलटा - इधर-उधर जानेवाली हो जाती है, 'आश्रुति' न होकर बहुत बोलती है, बोल-बोलकर पति के लिए उबाऊ - सी हो जाती है, 'विधृति'=दृढ़ धैर्यवाली न होकर झट क्रोध में आ जाती है तो पति का जीवन कड़वा हो जाता है और वह भी अपना आमोद-प्रमोद गलत स्थानों पर ढूँढता है, व्यभिचारणियों की खोज में रहता है और उनमें फँसकर अपने जीवन को विनष्ट कर लेता है। 'अनाधृष्टा, पुत्रवती, सुषदा, आश्रुति व विधृति' पत्नी पति को इस विनाश से बचा लेती है। ७. हे पत्नि ! तू (मनो:) = ज्ञान - सम्पन्न - समझदार पुरुष की (अश्वा) = सदा कार्यों में व्यापृत रहनेवाली पत्नी असि = है। 'पति ने समझदार होना, पत्नी ने घर के कार्यों में व्याप्त रहना' यह मूल मन्त्र है घर को स्वर्ग बनाने का ।

    भावार्थ

    भावार्थ- पति-पत्नी कर्त्तव्यों को समझेंगे तो घर क्यों न स्वर्ग बनेगा ?

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जसा अग्नी जीवन देतो, विद्युत (संतान) प्रजा देते, सूर्यदर्शन घडवितो, धारणकर्ता असा ईश्वर लक्ष्मी व शोभा देतो, वायू बल देतो (श्रेष्ठजनही बल देतात) तसे सुलक्षणा पत्नी सर्व सुख देते म्हणून तुम्ही तिचे रक्षण करा.

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    विषय

    मनुष्यांन काय केले पाहिजे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (पतीचे कथन पत्नीव्रत) हे पत्नी, तू (अनाधृष्टा) कोणी तुला धमकावू शकत नाही, अशी (वीर व निर्भयवृत्तीची) असून (पुरस्तात्) पूर्व दिशेकडे (अग्नेः) अग्नीसारखी (अधिपत्ये) घराची तेजस्वी स्वामीनी आहेस. म्हणून (मे) मला (आयुः) आयुष्य वाढविणारे अन्न (दाः) दे. (पुत्रवती) प्रशंसनीय पुत्रांची माता, तू (दक्षिणतः) दक्षिण दिशेकडे (इद्रस्य) विद्युतेच्या आणि सूर्य्याच्या (आधिपत्ये) स्वामीनी आहेस, म्हणून (मे) मला (आणखी) (प्रजाम्) संतान (दाः) दे. (सुषदा) घराची सुंदर व्यवस्था करणारी तू (पश्‍चात्य्) पश्‍चिम दिशेकडे (सर्व दिशांचा उल्लेख केल्यामुळे तू सर्वतः सर्व दिशांकडे (देवस्य) प्रकाशमान (सवितुः) सूर्यमंडळाची (आधिपत्ये) स्वामीनी आहेस (मे) म्हणून मला (चक्षुः) दृष्टीशक्ती दे म्हणजे वाढव. तू (आश्रुतिः) सर्वजण जिची कीर्ती ऐकतात अथवा जी सर्वांचे म्हणजे लक्ष देऊन ऐकते, अशी असून (उत्तरतः) उत्तर दिशेकडे (धातुः) धारणकर्ता वायूच्या (आधिपत्ये) स्वामीत्वाखाली आहेस म्हणून (मे) माझ्या (रायः) धन-संपत्तीची (पोषः) वृद्धी (दाः) कर. तू (विधृतिः) अनेक प्रकारे विचार-चिंतन करणारी असून (उपरिष्यत्) वरच्या दिशेकडे (बृहस्पतेः) मोठमोठ्या पदार्थांचा रक्षक सूत्राच्या वायूच्या (आधिपत्ये) स्वामीत्वाखाली आहेस. म्हणून (मे) मला (ओजः) बळ (दा।) दे. तू (मनोः) मननशील अंतःकरणात (व्यादिका) रमणारी (असि) आहेस, यामुळे तू (विश्‍वाभ्यः) सर्व (नाष्ट्राभ्यः) दुष्ट-भ्रष्ट स्वभाव असणार्‍या व्यभिचारीणी स्त्रियांकडून (मा) (पाहि) रक्षण कर (कोणी दुराचारीणी मला तिच्या मोहपाशात पकडण्यात यशस्वी होऊ नये) (पूर्व आदि दिशांच्या वर्णनावरून पती असे सुचवितो की सर्वतः सर्वत्र माझी रक्षिका हो) ॥12॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यानो, ज्याप्रमाणे अग्नी जीवन विद्युत लोक, सूर्य दर्शन, धारक ईश्‍वर लक्ष्मी व कीर्ती देतो आणि महात्मा मनुष्य शक्ती व प्रेरणा देतो, तद्वत एक सुलक्षणा पत्नी पतीला सर्व सुख प्रदान करते. हे पती महाशयहो, तुम्ही आपापल्या पत्नीने सदैव रक्षण करा ॥12॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O woman, unconquerable in the East, in Agnis over lordship, give me life. Rich in sons, in the South, in Suns over lordship give me offspring. Fair-seated, in the West, in God Creators over lordship, give me spiritual sight. Excellent in hearing, in the North, in airs over lordship, Give me increase of wealth. Strong in convictions in the upper direction, in the over lordship of a learned master of the Vedas, give me energy. Being filled with a reflective mind, protect me from women given to adultery.

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    Meaning

    Mother Earth, unassailable and unviolated, from the east, under the rule and laws of Agni, bless me with life and age. Mother of brave children, from the south, under the rule and supremacy of Indra, bless me with children. Blessed home for humanity, from the west, under the rule and supremacy of Savita, bless me with light of the eyes. Universal listener, praised and admired all round, from the north, under the rule and supremacy of the lord sustainer of the world, bless me with health and wealth. Mother of constancy, from above, under the rule and supremacy of Brihaspati, bless me with the light and lustre of life. You are the Queen omnipresent in the heart and mind, protect me from the defilement and pollutions of the world.

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    Translation

    (O Earth) always unconquered, from the east, under the overlordship of the adorable Lord, may you bestow long life on me. (1) O blessed with sons, from the south, under the overlordship of the resplendent Lord, may you bestow progeny on me. (2) O pleasing to rest upon, from the west, under the overlordship of the creator Lord, may you bestow vision on me. (3) O good of audition, from the north, under the overlordship of the sustainer Lord, bestow riches and nourishment on me. (4) O great support, from zenith, under the overlordship of the Lord supreme, may you bestow vigour on me. (5) May you protect me from all the miseries. You are the driving force of man. (6)

    Notes

    Anādhṛṣtā, unconquered; unsubdued. Adhipatye, under the overlordship of. Suşadā, pleasing to sit upon. Aśrutih, good of audition; quick to hear and listen. Dhatuḥ, of the sustainer Lord (of dhātr). Vidhṛtiḥ, fatury:, great support. Nāṣṭrābhyaḥ, nff, from miseries. Manoraśvā asi, you are the driving force of men. Also, you are the mind's mare; the mind rides upon you to seek high ambitions.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যাঃ কিং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্যদিগকে কী করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে স্ত্রী ! তুমি (অনাধৃষ্টা) অপরের দ্বারা ভৎর্সিত নয় (পুরস্তাৎ) পূর্বদেশ হইতে (অগ্নেঃ) অগ্নির (আধিপত্যে) স্বামিত্বে (মে) আমার জন্য (আয়ুঃ) জীবন হেতু অন্নকে (দাঃ) দাও, (পুত্রবতী) প্রশংসিত পুত্রসম্পন্ন (দক্ষিণতঃ) দক্ষিণ দেশ হইতে (ইন্দ্রস্য) বিদ্যুৎ বা সূর্য্যের (আধিপত্যে) স্বামিত্বে (মে) আমার জন্য (প্রজাম্) প্রজা সন্তান (দাঃ) দাও (সুষদা) যাহার সম্পর্কে সুন্দর প্রকার স্থিত হয় এমন (পশ্চাৎ) পশ্চিম হইতে (দেবস্য) প্রকাশমান (সবিতুঃ) সূর্য্য মন্ডলের (আধিপত্যে) স্বামিত্বে (মে) আমার জন্য (চক্ষুঃ) নেত্র (দাঃ) দাও, (আশ্রুতিঃ) উত্তম প্রকার যাহাকে শ্রবণ করা হয় এমন তুমি (উত্তরতঃ) উত্তর হইতে (ধাতুঃ) ধারণকর্ত্তা বায়ুর (আধিপত্যে) আধিপত্যে (মে) আমার জন্য (রায়ঃ) ধনের (পোষম্) পুষ্টিকে (দাঃ) দাও, (বিধৃতিঃ) অনেক প্রকার ধারণা যুক্ত (উপরিষ্টাৎ) উপর হইতে (বৃহস্পতেঃ) বড় বড় পদার্থগুলির রক্ষক সূত্রাত্মা বায়ুর (আধিপত্যে) স্বামিত্বে (মে) আমার জন্য (ও জঃ) বল (দাঃ) দাও । যে কারণে (মনোঃ) মননশীল অন্তঃকরণের (অশ্বা) ব্যাপিকা (অসি) আছো, এইজন্য (বিশ্বাভ্যঃ) সকল (নাষ্ট্রাভ্য) নষ্ট ভ্রষ্ট স্বভাবযুক্তা ব্যভিচারিণীদের হইতে (মা) আমাকে (পাহি) রক্ষা কর ॥ ১২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যেমন অগ্নি জীবনকে, যেমন বিদ্যুৎ প্রজাকে, যেমন সূর্য্য দর্শনকে, ধারণকর্ত্তা ঈশ্বর লক্ষ্মী ও শোভাকে এবং মহাশয় ব্যক্তি বল প্রদান করে, সেইরূপ সুলক্ষণা পত্নী সকল সুখ প্রদান করে, তাহাকে তোমরা রক্ষা করিতে থাক ॥ ১২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অনা॑ধৃষ্টা পু॒রস্তা॑দ॒গ্নেরাধি॑পত্য॒ऽআয়ু॑র্মে দাঃ ।
    পু॒ত্রব॑তী দক্ষিণ॒তऽইন্দ্র॒স্যাऽধি॑পত্যে প্র॒জাং মে॑ দাঃ ।
    সু॒ষদা॑ প॒শ্চাদ্দে॒বস্য॑ সবি॒তুরাধি॑পত্যে॒ চক্ষু॑র্মে দাঃ ।
    আশ্রু॑তিরুত্তর॒তো ধা॒তুরাধি॑পত্যে রা॒য়স্পোষং॑ মে দাঃ ।
    বিধৃ॑তিরু॒পরি॑ষ্টা॒দ্ বৃহ॒স্পতে॒রাধি॑পত্য॒ऽওজো॑ মে দাঃ ।
    বিশ্বা॑ভ্যো মা না॒ষ্ট্রাভ্য॑স্পাহি॒ মনো॒রশ্বা॑সি ॥ ১২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অনাধৃষ্টেত্যস্য দধ্যঙ্ঙাথর্বণ ঋষিঃ । পৃথিবী দেবতা । স্বরাডুৎকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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