यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 18
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - वाग्विद्युतौ देवते
छन्दः - स्वराट् आर्षी बृहती,
स्वरः - मध्यमः
2
तस्या॑स्ते स॒त्यस॑वसः प्रस॒वे त॒न्वो य॒न्त्रम॑शीय॒ स्वाहा॑। शु॒क्रम॑सि च॒न्द्रम॑स्य॒मृत॑मसि वैश्वदे॒वम॑सि॥१८॥
स्वर सहित पद पाठतस्याः॑। ते॒। स॒त्यस॑वस॒ इति॑ स॒त्यऽस॑वसः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। त॒न्वः᳖। य॒न्त्रम्। अ॒शी॒य॒। स्वाहा॑। शु॒क्रम्। अ॒सि॒। च॒न्द्रम्। अ॒सि॒। अ॒मृत॑म्। अ॒सि॒। वै॒श्व॒दे॒वमिति॑ वैश्वऽदे॒वम्। अ॒सि॒ ॥१८॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यास्ते सत्यसवसः प्रसवे तन्वो यन्त्रमशीय स्वाहा । शुक्रमसि चन्द्रमस्यमृतमसि वैश्वदेवमसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
तस्याः। ते। सत्यसवस इति सत्यऽसवसः। प्रसव इति प्रऽसवे। तन्वः। यन्त्रम्। अशीय। स्वाहा। शुक्रम्। असि। चन्द्रम्। असि। अमृतम्। असि। वैश्वदेवमिति वैश्वऽदेवम्। असि॥१८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
ते वाग्विद्युतौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे जगदीश्वर! सत्यसवसस्ते तव प्रसवे या स्वाहा वाग् विद्युच्च वर्त्तते, तस्या विद्यां प्राप्य यच्छुक्रमस्ति चन्द्रमस्त्यमृतमस्ति वैश्वदेवमस्ति तद्यन्त्रमहमशीय प्राप्नुयाम्॥१८॥
पदार्थः
(तस्याः) वाचो विद्युतो वा (ते) तव (सत्यसवसः) सत्यं सवं ऐश्वर्य्यं जगत्कारणं वा यस्य तस्य परमात्मनः (प्रसवे) उत्पादिते संसारे (तन्वः) शरीरस्य। अत्र जसादिषु छन्दसि वा वचनम्। [अष्टा॰भा॰वा॰ ७.३.१०९] इति वार्तिकेनाडभावः (यन्त्रम्) यन्त्रयति संकुचति चालयति निबध्नाति वा येन तत् (अशीय) प्राप्नुयाम् (स्वाहा) वाचं विद्युतं वा (शुक्रम्) शुद्धम् (असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (चन्द्रम्) आह्लादकारकम् (असि) अस्ति (अमृतम्) अमृतात्मकव्यवहारपरमार्थसुखसाधकम् (असि) अस्ति (वैश्वदेवम्) यद्विश्वेषां देवानां विदुषामिदं तत् (असि) अस्ति। अयं मन्त्रः (शत॰३.२.४.१२-१५) व्याख्यातः॥१८॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वरोत्पादितायामस्यां सृष्टौ विद्यया कलायन्त्रसिद्धेरग्न्यादिभ्यः पदार्थेभ्यः सम्यगुपकारान् गृहीत्वा सर्वाणि सुखानि सम्पादनीयानि॥१८॥
विषयः
ते वाग्विद्युतौ कीदृशावित्युपदिश्यते ।।
सपदार्थान्वयः
हे जगदीश्वर ! सत्यसवसः सत्यं सवम्=ऐश्वर्यं जगत्कारणं वा यस्य तस्य परमात्मनः ते=तव प्रसवे उत्पादिते संसारे या स्वाहा=वाग् विद्युच्च वर्त्तते तस्याः वाचो विद्युतो वा विद्यां प्राप्य यत् [तन्वः] शरीरस्य शुक्रं शुद्धम् [असि]=अस्ति, चन्द्रम् आह्लादकारकम् [असि]=अस्ति, अमृतम् अमृतात्मकव्यवहारपरमार्थसुखसाधकम् [असि]=अस्ति, वैश्वदेवं यद्विश्वेषां देवानां=विदुषामिदं तत् [असि] अस्ति, तद्यन्त्रं यन्त्रयति=संकुचति चालयति निबध्नाति वा तत् अहमशीय=प्राप्नुयाम् ॥ ४ ॥ १८ ॥ [हे जगदीश्वर! ......ते =तव प्रसवे--विद्यां प्राप्य.......यन्त्रमहमशीय=प्राप्नुयाम्]
पदार्थः
(तस्याः) वाचो विद्युतो वा (ते) तव (सत्यसवसः) सत्यं सवं=ऐश्वर्यं जगत्कारणं वा यस्य तस्य परमात्मनः (प्रसवे) उत्पादिते संसारे (तन्व:) शरीरस्य। अत्र जसादिषु छन्दसि वा वचनमिति वार्तिकेनाडभाव: (यन्त्रम्) यन्त्रयति=संकुचति चालयति निबन्धाति वा येन तत् (अशीय) प्राप्नुयाम् (स्वाहा) वाचं विद्युतं वा (शुक्रम्) शुद्धम् (असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (चन्द्रम्) आह्लादकारकम् (असि) अस्ति (अमृतम्) अमृतात्मकव्यवहारपरमार्थसुखसाधकम् (असि) अस्ति (वैश्वदेवम्) यद्विश्वेषां देवानां=विदुषामिदं तत् (असि) अस्ति। अयं मंत्रः शत० ३ ।२ ।४ ।१२–१५ व्याख्यातः ।। १८ ।।
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः ॥ मनुष्यैरीश्वरोत्पादितायामस्यां सृष्टौ विद्यया कलायन्त्रसिद्धेरग्न्यादिभ्यः पदार्थेभ्यः सम्यगुपकारान् गृहीत्वा सर्वाणि सुखानि सम्पादनीयानि ॥ ४ ॥ १८ ॥
भावार्थ पदार्थः
प्रसवे= ईश्वरोत्पादितायामस्यां सृष्टौ । यन्त्रम्=कलायन्त्रम् ।
विशेषः
वत्सः। वाग्विद्युत्=वाणी विद्युच्च ॥ स्वराडार्षीबृहती ।मध्यमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
वह वाणी और बिजुली कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे जगदीश्वर! (सत्यसवसः) सत्य ऐश्वर्य्ययुक्त वा जगत् के निमित्त कारणरूप (ते) आपके (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में आपकी कृपा से जो (स्वाहा) वाणी वा बिजुली है, (तस्याः) उन दोनों के सकाश से विद्या करके मैं जो (शुक्रम्) शुद्ध (असि) है, (चन्द्रम्) आह्लादकारक (असि) है, (अमृतम्) अमृतात्मक व्यवहार वा परमार्थ से सुख को सिद्ध करने वाला (असि) है और (वैश्ववेदम्) सब देव अर्थात् विद्वानों को सुख देने वाला (असि) है, (तत्) उस (यन्त्रम्) सङ्कोचन, विकाशन, चालन, बन्धन करने वाले यन्त्र को (अशीय) प्राप्त होऊं॥१८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यो को चाहिये कि ईश्वर की उत्पन्न की हुई इस सृष्टि में विद्या से कलायन्त्रों को सिद्ध करके अग्नि आदि पदार्थों से अच्छे प्रकार पदार्थों का ग्रहण कर सब सुखों को प्राप्त करें॥१८॥
विषय
शरीर-नियन्त्रण
पदार्थ
१. ‘वत्स’ गत मन्त्र में वर्णित प्रभु-प्रेरणा को सुनता है और कहता है कि ( सत्यसवसः ) = सत्य-प्रेरणा देनेवाले ( ते ) = तेरी ( तस्याः ) = उस वेदवाणी की ( प्रसवे ) = अनुज्ञा में ( तन्वः ) = शरीर के ( यन्त्रम् ) = नियन्त्रण को ( अशीय ) = मैं प्राप्त करूँ। ( स्वाहा ) = वस्तुतः यह कितनी सुन्दर बात कही गई है। हम वेदवाणी के आदेश के अनुसार चलें और अपने इस शरीर को पूर्णतया अपने वश में रक्खें। हमारी प्रत्येक क्रिया नियन्त्रित व नपी-तुली हो। हमारा खाना-पीना, सोना-जागना सभी नियमबद्ध हो।
२. वत्स की इस प्रार्थना पर प्रभु कहते हैं कि ऐसा करने पर—वेदवाणी के अनुकूल नियन्त्रित जीवन बिताने पर [ क ] ( शुक्रमसि ) = तू ‘शुक्र’ होता है—दीप्त ज्ञानवाला [ शुच दीप्तौ ], शुचि मनवाला व क्रियाशील जीवनवाला [ शुक् गतौ ] होता है, [ ख ] इस प्रकार का जीवन बनाकर तू इस सुख-दुःखादि द्वन्द्वात्मक संसार में सदा ( चन्द्रम् असि ) [ चदि आह्लादे ] = आह्लादमय जीवन बितानेवाला होता है। तू दुःखों व विघ्नों से खिझ नहीं उठता। [ ग ] सदा प्रसन्न मनोवृत्तिवाला होकर ( अमृतम् असि ) = असमय में रोगों से मरता नहीं। [ घ ] दीर्घजीवनवाला बनकर तू ( वैश्वदेवम् असि ) = सब दिव्य गुणों को लिये हुए हितकर जीवनवाला होता है। तेरा जीवन सब दिव्य गुणों से परिपूर्ण होता है। ब्रह्मचारी को यदि ‘शुक्र’—वीर्यवान् बनना है तो गृहस्थ को ‘चन्द्र’ सदा आह्लादमय रहने का प्रयत्न करना है। वानप्रस्थ ने किन्हीं भी विषयों के पीछे न मरनेवाला ‘अमृत’ बनना है और संन्यासी ने सब दिव्य गुणोंवाला ‘वैश्वदेव’ बन जाना है। वैश्वदेव बनकर ही यह महादेव को प्राप्त करेगा।
भावार्थ
भावार्थ — मनुष्य वेदवाणी के अनुसार अपने शरीर का नियन्त्रण करे। वह ज्ञानवान्, सदा प्रसन्न, रोगों से अनाक्रान्त और दिव्य गुणोंवाला बने।
विषय
वाणी की साधना ।
भावार्थ
हे वाणि ! या हे चितिशक्ते ! चेतने ! ( सत्यसवसः ) सत्य को उत्पन्न करने वाली, सत्यभाषिणी वा सत्य-सत् आत्मा से उत्पन्न होने वाले या आत्मा को अपना मुख्य उत्पत्तिस्थान रखने वाली ( ते तस्याः ) उस तेरे ( प्रसवे ) उत्पादित ऐश्वर्य में ( तन्वः ) शरीर के ( यन्त्रम् ) यन्त्र को ( अशीय) प्राप्त करूं । अथवा ( सत्यसवसः प्रसवे ) सत्यैश्वर्यवान् परमेश्वर के बनाये इस संसार में (तस्या: ते) हे विद्युत् या वाणि तेरे (तन्वः ) विस्तृत शक्ति को ( यन्त्रम् ) नियमन करने वाले साधन या विशेष उपकरण को मैं प्राप्त करूं, ( स्वाहा ) और उसका उत्तम रीति से उपयोग करूं । वाणी और चेतना शक्ति के नियमनकारी बलरूप आत्मा का स्वरूप बतलाते हैं। शरीर रूप यन्त्र के नियामक बल ! वीर्य ! आत्मन् अथवा विद्युत् आदि यन्त्र के नियामक शक्ते ! तू ( शुक्रम् असि ) शुक्र, अति दीप्तिमान् ( चन्द्रम् असि ) आह्लादक है । ( अमृतम् असि ) तू अविनाशी है । ( वैश्वदेवम् असि ) समस्त दिव्य पदार्थों में सूक्ष्म रूप से विद्यमान है ॥
शत० ३ । २ । ४ । १२-१५ ॥
टिप्पणी
१८ - विद्युत् देवता । द० । '० तनु यन्त्रम० । शुक्रमसि चन्द्रमस्य ०' इति काण्व ० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यवान् विद्युत् देवता । स्वराट् आर्षी बृहती । मध्यमः ॥
विषय
वह वाणी और बिजुली कैसी हैं, इस विषय का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे जगदीश्वर! ( सत्यसवसः) सच्चे ऐश्वर्य वा जगद्-कारण वाले (ते) तुझ परमात्मा के (प्रसवे) पैदा किये हुए संसार में जो (स्वाहा) वाणी वा विद्युत् है (तस्याः) उस वाणी वा विद्युत्-विद्या को प्राप्त करके जो (तन्व:) शरीर के लिये (शुक्रम्) शुद्ध [असि] है (चन्द्रम्) आनन्ददायक [असि] है (अमृतम्) अमृत रूप व्यवहार तथा परमार्थ से सुख का साधक [असि] है (वैश्वदेवम्) सब विद्वानों के लिए सुखदायक [असि] है, उस (यन्त्रम्) संकोचन, चालन, निबन्धन के निमित्त यन्त्र को मैं (अशीय) प्राप्त करूँ ।। ४ । १८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है। सब मनुष्य ईश्वर के द्वारा उत्पन्न की हुई इस सृष्टि में विद्या से कलायन्त्रों की सिद्धि करके, अग्नि आदि पदार्थों से ठीक-ठीक उपकारों को ग्रहण करके सब सुखों को सिद्ध करें ॥ ४ ॥ १८ ॥
प्रमाणार्थ
(तन्वः) यहाँ ‘जसादिषु छन्दसि वा वचनम्’ [अ० ७ । ३ । १०९] वार्तिक से 'आट्' का अभाव है। (असि) अस्ति। इस मन्त्र में 'असि’ पद पर सर्वत्र पुरुष-व्यत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३। २ । ४ । १२-१५) में की गई है ॥ ४ ॥ १८ ॥
भाष्यसार
१. वाणी कैसी है--ऐश्वर्य सम्पन्न, जगत् के कारण परमात्मा की सृष्टि में वाग्-विद्या को प्राप्त करके शरीर के लिये शुद्ध, आह्लादकारक, व्यवहार और परमार्थ को सिद्ध करने वाले, विद्वानों से सम्बन्धित कलायन्त्रों को प्राप्त करें । २. विद्युत् कैसी है--उक्त परमात्मा की सृष्टि में विद्युत् विद्या को प्राप्त करके उक्त गुणों वाले कलायन्त्रों को सिद्ध करके, अग्नि आदि पदार्थों से ठीक-ठीक उपकार ग्रहण करके सब सुखों को सिद्ध करें ।। ४ । १८॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी ईश्वराने उत्पन्न केलेल्या या सृष्टीत विद्यायुक्त बनावे व कलायंत्रे तयार करावीत आणि अग्नी इत्यादीद्वारे पदार्थांना चांगल्या प्रकारे उपयोगात आणावे व सर्व सुख प्राप्त करावे.
विषय
वाणी आणि विद्युत यांचे स्वरूप कसे आहे, याविषयी पुढील मंत्रात उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे जगदीश्वर (सत्यसवसः) आपण सत्य व ऐश्वर्ययुक्त आहात. जगाचे निमित्त कारण आहात (ते) आपण (प्रसवे) उत्पन्न केलेल्या या संसारात आपल्या कृपेमुळे ज्या (स्वाहा) वाणी आणि विद्युत या दोन वस्तू आहेत (जगाच्या कल्याणासाठी आपण या वस्तू दिल्या आहेत) (तस्याः) मी विद्या, कौशल्यादीद्वारे त्यांचे ज्ञान मिळवून त्या दोन्हीचे जे (शुक्रम्) शुद्ध तेज व (चन्द्रम्) आल्हाद कारी प्रभाव आहे, वाणी आणि विद्युतापासून (अमृतम्) अमृतकारी कार्य व परमार्थ सिद्ध करणारे (असि) जे व्यवहार आहेत, (वैश्वदेवम्) तसेच जे सर्व देवांना म्हणजे विद्वानांना सुख देणारे, (ईस) आहे, अशा (त्) त्या (यंत्रम्) संकोचन, विकाशन (प्रसारण), चालन व बंधन या क्रिया करण्यास समर्थ यंत्राला मी (अशीष) प्राप्त करावे (विद्युतापासून उत्पादनसाठी आवश्यक कशा कलायंत्राचा (मशिनीचा) आविष्करण व विकास करून मी लाभ प्राप्त करावेत) ॥18॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे मनुष्यांसाठी हे उचित आहे मी ईश्वर निर्मित या सृष्टीमधे त्यानी विद्या विज्ञान द्वारे कलायंत्रांचे (मशीन) निर्माण करून अग्नी आदी पदार्थापासून उपयोगी वस्तू काढाव्यात व सर्वसुखांची प्राप्ती करावी ॥18॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O resplendent God, in this world created by Thee, may I obtain mastery over the vast power of speech. O Speech, thou art pure, pleasant and dear to the sages.
Meaning
Lord Creator, true and glorious, in the yajna of creation of yours, with electric energy and the divine knowledge of the Veda in unison, I pray, I may design an instrument and apparatus of the form and structure which would be faultless and a source of comfort, peace and happiness for all in general, and a matter of pride and satisfaction for the scholars.
Translation
By impulsion of yours, whose impulses are always real, may I gain the sturdiness of body. You are brilliant; you are blissful; you are immortal, and agreeable to all the bounties of Nature you are. (1)
Notes
Satyasavasah, one whose impulsions are always real. Tanvo yentram, sturdiness of body. Candram, blissful, pleasing. Amrtam, immortal; bestower of immortality.
बंगाली (1)
विषय
তে বাগ্বিদ্যুতৌ কীদৃশাবিত্যুপদিশ্যতে ॥
সে বাণী ও বিদ্যুৎ কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে জগদীশ্বর ! (সত্যসবসঃ) সত্য ঐশ্বর্য্যযুক্ত বা জগতের নিমিত্ত কারণ রূপ (তে) আপনার (প্রসবে) উৎপন্ন কৃত সংসারে আপনার কৃপাবলে যে (স্বাহা) বাণী বা বিদ্যুৎ আছে (তস্যাঃ) তাহাদের উভয়ের সামীপ্যে বিদ্যা সহ যুক্ত আমি যাহা (শুক্রম্) শুদ্ধ (অসি) হয় (চন্দ্রম্) আহ্লাদকারক (অসি) হয় এবং (বৈশ্যদেবম্) সকল দেব অর্থাৎ বিদ্বান্া্দিগের সুখদাতা (অসি) হয় এবং (বৈশ্যদেবম্) সকল দেব অর্থাৎ বিদ্বানদিগের সুখদাতা (অসি) হয় (তৎ) সেই (যন্ত্রম্) সঙ্কোচন, বিকাশ, চালন, বন্ধন কারী যন্ত্রকে (অসীয়) প্রাপ্ত হই ॥ ১৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, ঈশ্বরের উৎপন্ন এই সৃষ্টিতে বিদ্যা দ্বারা কলাযন্ত্র সিদ্ধ করিয়া অগ্নি ইত্যাদি পদার্থ দ্বারা সম্যক্ প্রকার পদার্থ গ্রহণ করিয়া সকল সুখ প্রাপ্ত করুক ॥ ১৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
তস্যা॑স্তে স॒ত্যস॑বসঃ প্রস॒বে ত॒ন্বো᳖ য়॒ন্ত্রম॑শীয়॒ স্বাহা॑ ।
শু॒ক্রম॑সি চ॒ন্দ্রম॑স্য॒মৃত॑মসি বৈশ্বদে॒বম॑সি ॥ ১৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তস্যাস্ত ইত্যস্য বৎস ঋষিঃ । বাগ্বিদ্যুতৌ দেবতে । স্বরাডার্ষী বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal