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यजुर्वेद अध्याय - 4

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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 35
    ऋषिः - वत्स ऋषिः देवता - सूर्य्यो देवता छन्दः - निचृत् आर्षी जगती स्वरः - निषादः
    2

    नमो॑ मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ चक्ष॑से म॒हो दे॒वाय॒ तदृ॒तꣳ स॑पर्यत। दू॒रे॒दृशे॑ दे॒वजा॑ताय के॒तवे॑ दि॒वस्पु॒त्राय॒ सूर्या॑य शꣳसत॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नमः॑। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। चक्ष॑से। म॒हः। दे॒वाय॑। तत्। ऋ॒तम्। स॒प॒र्य्य॒त॒। दू॒रे॒दृश॒ इति॑ दूरे॒ऽदृशे॑। दे॒वजा॑ता॒येति॑ दे॒वऽजा॑ताय। के॒तवे॑। दि॒वः। पु॒त्राय॑। सूर्य्या॑य। श॒ꣳस॒त॒ ॥३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमो मित्रस्य वरुणस्य चक्षसे महो देवाय तदृतँ सपर्यत । दूरेदृशे देवजाताय केतवे दिवस्पुत्राय सूर्याय शँसत ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नमः। मित्रस्य। वरुणस्य। चक्षसे। महः। देवाय। तत्। ऋतम्। सपर्य्यत। दूरेदृश इति दूरेऽदृशे। देवजातायेति देवऽजाताय। केतवे। दिवः। पुत्राय। सूर्य्याय। शꣳसत॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 35
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनरीश्वरसवितारौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या! यथा वयं यन्मित्रस्य वरुणस्य दिव ऋतं सत्यं स्वरूपमस्ति, तद्यूयमपि सपर्य्यत। यस्य महो महसे दूरेदृशे चक्षसे देवजाताय केतवे देवाय पुत्राय पवित्रकर्त्रे सूर्य्याय परमात्मने वयं नमस्कुर्म्मस्तस्मै यूयमपि कुरुतेत्येकः॥१॥३५॥ हे मनुष्या यथा वयं यन्मित्रस्य वरुणस्य दिवः प्रकाशस्वरूपस्य सूर्य्यलोकस्यर्तं यथार्थं स्वरूपं सेवेमहि, तद्यूयमपि विद्यया सपर्य्यत। यथा वयं यस्मै चक्षसे देवजाताय केतवे दिवोऽग्नेः पुत्राय दूरेदृशे महोदेवाय सूर्य्याय लोकाय प्राप्त्यर्थं प्रवर्त्तेमहि, तथा यूयमपि प्रवर्त्तध्वम्॥२॥३५॥

    पदार्थः

    (नमः) सत्करणमन्नं वा। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰२.७) (मित्रस्य) सर्वजगत्सुहृदः प्रकाशस्य वा (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (चक्षसे) सर्वद्रष्टुर्दर्शयितुर्वा। अत्र षष्ठ्यर्थे चतुर्थी॰। [अष्टा॰भा॰वा॰२.३.६२] इति वार्त्तिकेन चतुर्थी। चष्ट इति पश्यति कर्मसु पठितम्। (निघं॰३.११) (महः) महसे, अत्र सुपां सुलुग्॰। [अष्टा॰७.१.३९] इति ङेर्लुक् (देवाय) दिव्यगुणाय (तत्) चेतनस्वरूपं प्रकाशस्वरूपं वा (ऋतम्) सत्यम् (सपर्य्यत) परिचरत। सपर्य्यतीति परिचरणकर्मसु पठितम्। (निघं॰३.५) (दूरेदृशे) यो दूरे स्थितान् दर्शयति तस्मै (देवजाताय) देवैर्दिव्यैर्गुणैः प्रसिद्धाय (केतवे) विज्ञानस्वरूपाय ज्ञापकाय वा (दिवः) प्रकाशस्वरूपस्य (पुत्राय) पवित्रकारकायाग्निपुत्राय वा (सूर्य्याय) चराचरात्मने परमैश्वर्य्यहेतवे वा (शꣳसत) प्रशंसत। अयं मन्त्रः (शत॰३.३.४.२४) व्याख्यातः॥३५॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यस्य कृपया प्रकाशेन वा चोरदस्य्वादयो निवर्त्तन्ते, यतः परमेश्वरेण समः समर्थः सूर्य्येण समो लोकश्च न विद्यते, तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैः स एव प्रशंसनीय इति वेद्यम्॥३५॥

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    विषयः

    पुनरीश्वरसवितारौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे मनुष्या! यथा वयं यन्मित्रस्य सर्वजगत्सुहृदः, वरुणस्य श्रेष्ठस्य दिवः प्रकाशस्वरूपस्य ऋतं सत्यं स्वरूपमस्ति,तत् चेतनस्वरूपं यूयमपि सपर्य्यत परिचरत । यस्य महः महसे दूरेदृशे यो दूरे स्थितान् दर्शयति तस्मै चक्षसे सर्वद्रष्टुः देवजाताय देवैर्दिव्यैर्गुणैः प्रसिद्धाय केतवे विज्ञानस्वरूपाय देवाय दिव्यगुणाय पुत्रायपवित्रकर्त्रे पवित्रकारकाय सूर्याय=परमात्मने चराचरात्मने वयं नमः सत्कारणंकुर्मस्तस्मै यूयमपि कुरुत [संशत] प्रशंसत च इत्येकः ।। [सविता] हे मनुष्या ! यथा वयं यन्मित्रस्य प्रकाशस्य वरुणस्य श्रेष्ठस्य दिवः=प्रकाशस्वरूपस्य सूर्यलोकस्य ऋतम्=यथार्थस्वरूपं सत्यं सेवेमहि तत् प्रकाशस्वरूपंयूयमपि विद्यया सपर्य्यत परिचरत। यथा वयं यस्मै चक्षसे दर्शयितुः देवजाताय देवैर्दिव्यैर्गुणैः प्रसिद्धाय केतवे ज्ञापकाय दिवः=अग्नेः प्रकाशस्वरूपस्य पुत्राय अग्निपुत्राय दूरेदृशे यो दूरे स्थितान् दर्शयति तस्मै महः महसे देवाय दिव्यगुणाय सूर्याय परमैश्वर्यहेतवे लोकाय [नमः]अन्नं प्राप्प्त्यर्थं प्रवर्त्तेमहि, तथा यूयमपि प्रवर्त्तध्वं [शंसत] प्रशंसत च ॥ ४ । ३५ ।। [ हे मनुष्या!........यन्मित्रस्य वरुणस्य दिव ऋतं स्वरूपमस्ति तत् सपर्यत]

    पदार्थः

    (नमः) सत्करणमन्नं वा । नम इत्यन्ननामसु पठितम्॥ निघं० २ ।७ ।। (मित्रस्य) सर्वजगत्सुहृदः । प्रकाशस्य वा (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (चक्षसे) सर्वद्रष्टुर्दर्शयितुर्वा। अत्र षष्ठ्यर्थं चतुर्थीति वात्तिकेन चतुर्थी। चष्ट इति पश्यतिकर्मसु पठितम् ॥ निघं० ३ ।११ ॥ (महः) महसे अत्र सुपां सुलुगिति ङेर्लुक् (देवाय) दिव्यगुणाय (तत्) चेतनस्वरूपं प्रकाशस्वरूपं वा (ऋतम्) सत्यम् (सपर्य्यत) परिचरत। सपर्य्यतीति परिचरणकर्मसु पठितम् ॥ निघं० ३ । ५ ॥ (दूरेदृशे) यो दूरे स्थितान् दर्शयति तस्मै (देवजाताय) देवैर्दिव्यैर्गुणैः प्रसिद्धाय (केतवे ) विज्ञानस्वरूपाय ज्ञापकाय वा (दिवः) प्रकाशस्वरूपस्य (पुत्राय) पवित्रकारकायाग्निपुत्राय वा (सूर्य्याय) चराचरात्मने । परमैश्वर्य्यहेतवे वा (श७सत) प्रशंसत । अयं मंत्रः शत० ३।३। ४। २४ व्याख्यातः ॥ ३५ ॥ [ईश्वरः]

    भावार्थः

    अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ ॥ यस्य कृपया, प्रकाशेन वा चोरदस्य्वादयो निवर्त्तन्ते, यतः परमेश्वरेण समः समर्थः, सूर्येण समो लोकश्च न विद्यते, तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैः स एव प्रशंसनीय इति वेद्यम् ।। ४ । ३५ ।।

    विशेषः

    वत्सः। सूर्य्य:=ईश्वरः सूर्यश्च ॥ निचृदार्षी जगती । निषादः ॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर ईश्वर और सूर्य्य कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जैसे हम लोग जो (मित्रस्य) सब के सुहृत् (वरुणस्य) श्रेष्ठ (दिवः) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर का (ऋतम्) सत्य स्वरूप है, (तत्) उस चेतन की सेवा करते हैं, वैसे तुम भी उस का सेवन सदा (सपर्य्यत) किया करो और जैसे उस (महः) बड़े (दूरेदृशे) दूरस्थित पदार्थों को दिखाने (चक्षसे) सब को देखने (देवजाताय) दिव्य गुणों से प्रसिद्ध (केतवे) विज्ञानस्वरूप (देवाय) दिव्यगुणयुक्त (पुत्राय) पवित्र करने वाले (सूर्य्याय) चराचरात्मा परमेश्वर को (नमः) नमस्कार करते हैं, वैसे तुम भी (प्रशंसत) उसकी स्तुति किया करो॥१॥३५॥ हे मनुष्यो! जो (मित्रस्य) प्रकाश (वरुणस्य) श्रेष्ठ (दिवः) प्रकाशस्वरूप सूर्य्यलोक का (ऋतम्) यथार्थ स्वरूप है, (तत्) उस प्रकाशस्वरूप को तुम भी विद्या से (सपर्य्यत) सेवन किया करो, जैसे हम लोग जिस (चक्षसे) सब के दिखाने (देवजाताय) दिव्य गुणों से प्रसिद्ध (केतवे) ज्ञान कराने, अग्नि के (पुत्राय) पुत्र (दूरेदृशे) दूर स्थित हुए पदार्थों को दिखाने (महः) बड़े (देवाय) दिव्यगुण वाले (सूर्य्याय) सूर्य्य के लिये प्रवृत्त होओ॥२॥३५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। सब मनुष्यों को जिसकी कृपा वा प्रकाश से चोर डाकू आदि अपने कार्य्यों से निवृत्त हो जाते हैं, उसी की प्रशंसा और गुणों की प्रसिद्धि करनी और परमेश्वर के समान समर्थ वा सूर्य्य के समान कोई लोक नहीं है, ऐसा जानना चाहिये॥३५॥

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    विषय

    सूर्य का शंसन

    पदार्थ

    १. प्रभु की उपासना करते हुए कहते हैं कि ( मित्रस्य ) = दिन के अभिमानी देव सूर्य के तथा ( वरुणस्य ) = रात्रि के अभिमानी देव चन्द्र के ( चक्षसे ) = प्रकाशक प्रभु के लिए ( नमः ) =  नमस्कार हो। 

    २. ( तत् ) = उस ( महोदेवाय ) = महान् देव के लिए ( ऋतम् ) = ऋत की ( सपर्यत ) = पूजा करो, अर्थात् उस प्रभु के उपासन के लिए आवश्यक है कि हम ऋत का पालन करें। ऋत का पालन ही देवों का व्रत है। यही व्रत हमें उस ऋत—अपने तीव्र तप से ऋत को जन्म देनेवाले प्रभु के समीप प्राप्त कराएगा। 

    ३. ऋत का पालन करते हुए उस प्रभु के लिए ( शंसत ) = स्तुतिवचन कहो, जो [ क ] ( दूरेदृशे ) = दूर-से-दूर देखनेवाले हैं। उन प्रभु से भागकर कभी कोई अदृष्ट नहीं हो सकता। [ ख ] ( देवजाताय ) = [ देवः जातः यस्मात् ] सब देवों को वे प्रभु जन्म देनेवाले हैं। देवों का देवत्व उस प्रभु के ही कारण है तेन देवा देवतामग्र आयन्। [ ग ] ( केतवे ) = [ विज्ञानघनानन्दस्वभावाय ] प्रज्ञाधन और अतएव आनन्दस्वभाव हैं। [ घ ] ( दिवस्पुत्राय ) = [ दिवः पुरुत्रायते—म० ] ज्ञान के द्वारा खूब रक्षण करनेवाले हैं। ज्ञान के द्वारा वे हमें [ पुनाति त्रायते ] पवित्र करते और हमारा रक्षण करते हैं। [ ङ ] ( सूर्याय ) = सारे संसार को कर्मों में प्रेरित करनेवाले हैं। इस प्रकार प्रभु के शंसन का अभिप्राय यही है कि हम भी ‘दूर-दृष्टि बनें, अपने में दिव्य गुणों का विकास करें, प्रकाशमय जीवनवाले हों, ज्ञान के द्वारा पवित्र बन आसुरवृत्तियों से अपना रक्षण करें और निरन्तर कर्मशील हों’।

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रभु की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम नमनवाले हों [ नमः ], ऋत का पालन करें तथा प्रभु के गुणों का शंसन करें, जिससे हमारा ध्येय उन गुणों को प्राप्त करना हो।

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    विषय

    ) परमेश्वर का स्वरूप तथा राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

     ( मित्रस्य ) सबके मित्र, सबके स्नेही, सबको मरण से बचाने वाले ( वरुणस्य ) सर्वश्रेष्ठ, सर्वदुःखवारक, सबसे वरण करने योग्य, (चक्षसे) सर्वद्रष्टा उस परमेश्वर को ( नमः ) हम नमस्कार करें। ( महःदेवाय ) महान् उस सर्वप्रद, सर्वदर्शी, सर्वप्रकाशक परमेश्वर के ( तत् ऋतम् ) उस सत्यस्वरूप, सत्य ज्ञान की ( सपर्यतः ) पूजा करें। ( दूरे दृशे ) दूर २ के पदार्थों को भी दिखाने वाले ( देवजाताय ) दिव्यगुणों से प्रसिद्ध या देव - विद्वानों द्वारा प्रसिद्ध या पृथिवी अग्नि वायु सूर्य आदि दिव्य पदार्थो के उत्पत्तिस्थान उस ( केतवे ) सर्वप्रज्ञापक, ज्ञानस्वरूप, चित्स्वरूप, (दिवः पुत्राय ) प्रकाशस्वरूप, सर्वपवित्रकारक या समस्त दिव्य, द्यौलोक या तेजोमय पदार्थों के पवित्रकारक, संस्कारक, प्रकाशक या उसमें व्यापक ( सूर्याय ) सबके प्रेरक, चराचररूप परमैश्वर्य के कारणभूत परमेश्वर के ( शंसत ) गुणों का गान करो । 
    राष्ट्रपक्ष में - मित्र, वरुण दोनों अधिकारियों का आदर कर, मार्गदर्शी देव, विद्वान् पुरुष या राजा के 'ऋत' ज्ञान या कानून का आदर करो । दूरदर्शी विद्वानों और राजाओं में शक्तिमान् ज्ञानी, दिव्य वेदवाणी के पुत्र उसके विद्वान् ज्ञानसूर्य के गुणों की प्रशंसा करो ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्यो देवता । निचृदार्षी जगती । निषादः स्वरः ॥

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    विषय

    परमेश्वर का स्वरूप तथा राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

     ( मित्रस्य ) सबके मित्र, सबके स्नेही, सबको मरण से बचाने वाले ( वरुणस्य ) सर्वश्रेष्ठ, सर्वदुःखवारक, सबसे वरण करने योग्य, (चक्षसे) सर्वद्रष्टा उस परमेश्वर को ( नमः ) हम नमस्कार करें। ( महःदेवाय ) महान् उस सर्वप्रद, सर्वदर्शी, सर्वप्रकाशक परमेश्वर के ( तत् ऋतम् ) उस सत्यस्वरूप, सत्य ज्ञान की ( सपर्यतः ) पूजा करें। ( दूरे दृशे ) दूर २ के पदार्थों को भी दिखाने वाले ( देवजाताय ) दिव्यगुणों से प्रसिद्ध या देव-विद्वानों द्वारा प्रसिद्ध या पृथिवी अग्नि वायु सूर्य आदि दिव्य पदार्थो के उत्पत्तिस्थान उस ( केतवे ) सर्वप्रज्ञापक, ज्ञानस्वरूप, चित्स्वरूप, (दिवः पुत्राय ) प्रकाशस्वरूप, सर्वपवित्रकारक या समस्त दिव्य, द्यौलोक या तेजोमय पदार्थों के पवित्रकारक, संस्कारक, प्रकाशक या उसमें व्यापक ( सूर्याय ) सबके प्रेरक, चराचररूप परमैश्वर्य के कारणभूत परमेश्वर के ( शंसत ) गुणों का गान करो । 
    राष्ट्रपक्ष में - मित्र, वरुण दोनों अधिकारियों का आदर कर, मार्गदर्शी देव, विद्वान् पुरुष या राजा के 'ऋत' ज्ञान या कानून का आदर करो । दूरदर्शी विद्वानों और राजाओं में शक्तिमान् ज्ञानी, दिव्य वेदवाणी के पुत्र उसके विद्वान् ज्ञानसूर्य के गुणों की प्रशंसा करो ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्यो देवता । निचृदार्षी जगती । निषादः स्वरः ॥

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    विषय

    फिर ईश्वर और सूर्य कैसे हैं, इस विषय का उपदेश किया है ।।

    भाषार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग जो (मित्रस्य) सब जगत् के मित्र (वरुणस्य) श्रेष्ठ (दिव:) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर के (ऋतम्) सच्चे स्वरूप की पूजा करते हैं, वैसे तुम भी (तत्) उस चेतनस्वरूप की (सपर्य्यत) पूजा करो। जिस (महः) महान् (दूरेदृशे) दूर स्थित पदार्थों को दिखाने वाले (चक्षसे) सबके द्रष्टा (देवजाताय) दिव्य गुणों के कारण प्रसिद्ध (केतवे) विज्ञानस्वरूप (देवाय) दिव्यगुणों वाले (पुत्राय) पवित्र करने वाले (सूर्याय) चराचर जगत् के आत्मा परमात्मा का हम लोग (नमः) सत्कार करते हैं उसका तुम भी सत्कार तथा [शंसत] प्रशंसा करो। यह मन्त्र का पहला अर्थ है । [सूर्य] हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग जो (मित्रस्य) प्रकाश करने वाले (वरुणस्य) श्रेष्ठ (दिवः) प्रकाशस्वरूप सूर्यलोक का (ऋतम्) सच्चास्वरूप है उसका सेवन करते हैं वैसे तुम लोग भी विद्या के द्वारा (तत्) उस प्रकाशस्वरूप का (सपर्यत) सेवन करो । जैसे हम लोग जिस (चक्षसे ) सबको दिखाने वाले (देवजाताय) दिव्य गुणों से प्रसिद्ध (केतवे) ज्ञान कराने वाले (दिवः) प्रकाशस्वरूप (पुत्राय) अग्नि के पुत्र (दूरेदृशे) दूर स्थित होकर सब पदार्थों को दिखाने वाले (महः) महान् (देवाय) दिव्यगुणों से युक्त (सूर्याय) परम ऐश्वर्य के निमित्त सूर्यलोक तथा (नमः) अन्न की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हैं वैसे तुम भी सदा प्रयत्न करो और [शंसत] प्रशंसा किया करो ।। ४ । ३५ ।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार हैं ।। जिस ईश्वर की कृपा वा सूर्य के प्रकाश से चोर, दस्यु आदि लोग दूर रहते हैं क्योंकि परमेश्वर के समान समर्थ और सूर्य के समान कोई लोक नहीं है इसलिये सब मनुष्य उन्हीं की प्रशंसा किया करें ।। ४ । ३५ ।।

    प्रमाणार्थ

    (नमः) यह शब्द निघं ० (२ । ७ ) में अन्न नामों में पढ़ा है। ( चक्षसे ) सर्वद्रष्टुः । यहाँ 'षष्ठ्यर्थे चतुर्थी वक्तव्या' [अ० २ । ३ । ६२] इस वार्त्तिक से षष्ठी के अर्थ में चतुर्थी विभक्ति है। (चष्टे) यह पद निघं० (३ । ११) में देखने अर्थ वाली क्रियाओं में पढ़ा है। (महः) महसे । यहाँ 'सुपां सुलुक्.' [अ० ७ । १ । ३९] सूत्र से 'ङे' प्रत्यय का लुक् है । (सपर्य्यत) 'सपर्य्यति’ पद निघं० (३ । ५) परिचरण (सेवा) अर्थ वाली क्रियाओं में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । ३ । ४ । २४) में की गई है । ४ । ३५ ।। [ईश्वर]

    भाष्यसार

    १. ईश्वर कैसा है--परमेश्वर सब जगत् का मित्र, श्रेष्ठ, प्रकाशस्वरूप, सत्यस्वरूप, चेतनस्वरूप, महान्, दूर स्थित पदार्थों को दिखाने वाला, सब का द्रष्टा, दिव्य गुणों के कारण प्रसिद्ध, विज्ञानस्वरूप, दिव्यगुणवान्, पवित्रकारक, और चराचर जगत् का आत्मा है। ईश्वर कृपा से चोर, दस्यु आदि दुष्ट-जन निवृत्त हो जाते हैं। ईश्वर के समान संसार में कोई समर्थ नहीं। अतः ईश्वर नमस्कार के योग्य तथा प्रशंसा के योग्य है। २. सविता (सूर्य) कैसा है--सविता अर्थात् सूर्य श्रेष्ठ, प्रकाशस्वरूप तथा सत्यस्वरूप है, विद्या से जानने योग्य है, यह सबको दिखाने वाला, अपने दिव्य गुणों के कारण प्रसिद्ध, सब पदार्थों का ज्ञापक, तथा प्रकाशस्वरूप अग्नि का पुत्र है। यह दूर स्थित हम सब मनुष्यों को सब पदार्थ दिखा रहा है। यह महान्, दिव्यगुणों से युक्त, और परम ऐश्वर्य प्राप्ति का हेतु है। इसी की महिमा से अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न होते हैं। विद्वान् लोग इसका विद्यापूर्वक सेवन करें। इसकी प्रशंसा करें अर्थात् इसके गुणों को प्रकाशित करें। इसके प्रकाश से चोर, दस्यु आदि दुष्ट जन निवृत्त होते हैं। सूर्य के समान कोई लोक नहीं है । ३. अलङ्कार–इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार से ईश्वर और सूर्य अर्थ का ग्रहण किया है। मन्त्र में उपमा वाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त है इसलिए वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि जैसे विद्वान् लोग ईश्वर की पूजा और स्तुति करें तथा सूर्य का यथायोग्य सेवन और गुणों का वर्णन करें इसी प्रकार अन्य मनुष्य भी किया करें ॥ ४ । ३५ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. ज्या परमेश्वराची आपल्यावर कृपा आहे, त्याच्यासारखा समर्थ कोणी नाही हे जाणून त्याची माणसांनी प्रशंसा केली पाहिजे. तसेच ज्या सूर्याच्या प्रकाशामुळे चोर, डाकू वगैरे चोरी करू शकत नाहीत त्या सूर्याचे गुण जाणून सूर्यासारखा कोणताही लोक (तारा) नाही हे जाणले पाहिजे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात ईश्‍वर आणि सूर्य, यांचे स्वरूप विशद केले आहे -

    शब्दार्थ

    या मंत्राचे दोन अर्थ आहे 1. ईश्‍वरपरक 2. सूर्यपरक हे मनुष्यांनो, ज्याप्रमाणे आम्ही उपासकगण (यत्) ज्या (मित्रस्य) सर्वांचा सखा असलेल्या (वरूणस्य) श्रेष्ठत्व धारण करणार्‍या (दिवः) प्रकाशस्वरूप परमेश्‍वराच्या (ऋतम्) सत्य स्वरूपाचे (तत्) ध्यान म्हणजे त्याची उपासना करतो, त्याप्रमाणे तुम्ही देखील सदा त्याचे ध्यान (सपर्य्यत) करीत जा. तसेच ज्याप्रमाणे त्या (महः) महान् (दूरद्दशे) दूरवरील पदार्थांना दाखविणार्‍या (सृष्टीच्या गूढ रहस्यांची उकल सांगणार्‍या (चक्षसे) सर्वांना पाहणार्‍या (देवजाताय) दिव्यगुणयुक्त (केतवे) विज्ञानरूप (देवाय) दिव्यगुणयुक्त (पुत्राय) पवित्र करणार्‍या (सूर्य्याय) चराचरव्यापी परमात्म्याला (नमः) नमस्कार करतो, तसे तुम्ही देखील (प्रशंसत) त्याची स्तुती करीत जा ॥35॥^हे मनुष्यांनो, (मित्रस्य) प्रकाशमय (वरूणस्य) श्रेष्ठ (दिवः) प्रकाशस्वरूप सूर्यलोकाचे जे (ऋतम्) यर्थाथरूप आहे, (तत्) त्या प्रकाशस्वरूप सूर्याला तुम्ही देखील आमच्याप्रमाणे विद्या-ज्ञानाआदीने (सपर्य्यत) जवळ करा, त्याचे सेवन करा. आम्ही विद्वज्जन (चक्षसे) सर्वांना पाहण्यासाठी (देवजाताय) दिव्यगुणवान (केतमे) पदार्थांचे ज्ञान करून देणार्‍या (सूर्यप्रकाशामुळे पदार्थ दिसतात) अग्नीच्या (पुत्राचे) (दूरेहशे) दूरवर स्थित पदार्थांना पाहण्याकरिता (महः) महाव् (देवाय) दिव्यगुणधारी (सूर्याय) सूर्याचे सेवन करतो, (च्या पासून लाभ घेण्यासाठी यत्न करतो) त्याप्रमाणे तुम्ही देखील आमच्याप्रमाणे सूर्यसेवनाकडे प्रवृत्त व्हा. ॥35॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात श्‍लेष आणि वाचकलुप्तोपमा हे दोन काव्यालंकार आहेत (मित्रस्य, दिवः, केतने आदी शब्दात श्‍लेषालंकार आहे म्हणजे प्रत्येक शब्दाचे दोन अर्थ आहेत तसेच विद्वान हा उपमान पक्ष व मनुष्यगण हा उपमेयपक्ष आहे, पण मंत्रात ‘यथा, तथा’ आदी उपमावाचक शब्द लुप्त आहेत) ज्या परमेश्‍वराच्या कृपेने चोर, चोरटे, डाकू आदी माणसांना लुटणारे दुष्ट लोक चौरकर्मापासून निवृत्त होतात आणि ज्या सूर्याच्या प्रकाशामुळे चोर चोरटे चौरकर्म करण्यास घाबरतात, मनुष्यांनी त्या परमेश्‍वराची व सूर्याची स्तुती केली पाहिजे व त्याचे गुण प्रकट व प्रसिद्ध केले पाहिजेत. कारण की परमेश्‍वरासमान वा सूर्यासमान समर्थ कोणी नाही ॥35॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Do homage unto God, the Friend of all, Ever Pure, and Resplendent. Worship the true nature of the Mighty God. Sing praises unto God, the Purifier of all radiant objects, the Omniscient, the Embodiment of virtues, and the Exhibitor of distant objects.

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    Meaning

    Salutations in reverence, recognition and gratitude to the Sun, best friend, highest, all-seeing, great, brilliant, far-seeing light of the world, self- luminant, child of heaven. Sing in praise of him, serve his law of right and truth in life.

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    Translation

    Our reverence to the eye of the friend, the Almighty. Worship truly that great Lord. Offer your praises to the sun, who sees far, who is an ensign born of stars, the son of the heaven. (1)

    Notes

    Saparyain, worship. Samsata, offer praises. Rtam, truly. Devajataya ketave. for one, who is an ensign born of stars.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনরীশ্বরসবিতারৌ কীদৃশাবিত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় ঈশ্বর ও সূর্য্য কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন আমরা যাহারা (মিত্রস্য) সকলের সুহৃদ (বরুণস্য) শ্রেষ্ঠ (দিবঃ) প্রকাশস্বরূপ পরমেশ্বরের (ঋতম্) সত্য স্বরূপ (তৎ) সেই চেতনের সেবা করি । সেইরূপ তুমিও তাঁহার সেবন সর্বদা (সপর্য়্যত) করিতে থাক এবং যেমন সেই (মহঃ) বৃহৎ (দূরেদৃশে) দূরস্থিত পদার্থ দেখাইতে (চক্ষসে) সকলকে দেখিতে (দেবজাতায়) দিব্য গুণ দ্বারা প্রসিদ্ধ (কেতবে) বিজ্ঞান স্বরূপ (দেবায়) বিদ্যা গুণযুক্ত (পুত্রায়) পবিত্রকারী (সূর্য়্যায়) চরাচরাত্মা পরমেশ্বরকে (নমঃ) নমস্কার করি সেইরূপ তুমিও (প্রশংসত) তাঁহার স্তুতি করিতে থাক । ১ । হে মনুষ্যগণ! যিনি (মিত্রস্য) প্রকাশ (বরুণস্য) শ্রেষ্ঠ (দিবঃ) প্রকাশস্বরূপ সূর্য্যলোকের (ঋতম্) যথার্থ স্বরূপ (তব) সেই প্রকাশস্বরূপকে তুমিও বিদ্যা দ্বারা (সপর্য়্যত) সেবন করিতে থাক । যেমন আমরা (চক্ষসে) সকলকে দেখাইতে (দেবজাতায়) দিব্যগুণ দ্বারা প্রসিদ্ধ (কেতবে) জ্ঞান করাইতে অগ্নির (পুত্রায়) পুত্র (দূরদৃশে) দূরস্থিত পদার্থ দেখাইতে (মহঃ) বৃহৎ (দেবায়) দিব্যগুণযুক্ত (সূর্য্যায়) সূর্য্য হেতু প্রবৃত্ত হই, সেইরূপ তোমরাও প্রবৃত্ত হও ॥ ৩৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে শ্লেষ ও বাচক লুপ্তোপমালঙ্কার আছে । সকল মনুষ্য যাহার কৃপা ও প্রকাশ দ্বারা চোর, ডাকাইত ইত্যাদি স্বীয় কর্ম্ম হইতে নিবৃত্ত হইয়া যায় তাহারই প্রশংসা ও গুণের প্রসিদ্ধি করা এবং পরমেশ্বরের সমান সমর্থ বা সূর্য্য সমান কোনও লোক নেই, এই রকম জ্ঞান করা উচিত ॥ ৩৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    নমো॑ মি॒ত্রস্য॒ বরু॑ণস্য॒ চক্ষ॑সে ম॒হো দে॒বায়॒ তদৃ॒তꣳ স॑পর্য়ত ।
    দূ॒রে॒দৃশে॑ দে॒বজা॑তায় কে॒তবে॑ দি॒বস্পু॒ত্রায়॒ সূর্য়া॑য় শꣳসত ॥ ৩৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    নমো মিত্রস্যেত্যস্য বৎস ঋষিঃ । সূর্য়্যো দেবতা । নিচৃদার্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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